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आचार्य श्री विजयदेवसूरि (साठवें पट्टधर) आ० श्री विजयसेनसूरि के पट्ट पर आ० श्री विजयदेवसूरि हुए। आपका जन्म ईडर में वि.सं. १६३४ में, दीक्षा वि.सं. १६४३ में, आचार्य पद वि.सं. १६५८ में, गच्छानुज्ञा वि.सं. १६५८ में और स्वर्गवास वि.सं. १७१३ में हुआ।
एक बार बादशाह जहाँगीर ने आपके विरुद्ध बातें सुनकर आपको खंभात से बहुमानपूर्वक मांडवगढ बुलवाया । वहाँ आपकी जीवनचर्या, तप, त्याग और विद्वता से संतुष्ट होकर बादशाह ने आपको वि.सं. १६७३ में 'जहाँगीरी महातपा' और महोपाध्याय की नेमसागर गणि को 'वादि-जिपक' का बिरुद दिया।
वि.सं. १६८१ में आपने विजयसिंहसूरि को आचार्य पद देकर अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
वि.सं. १६८२ में आपका चातुर्मास सिरोही में था । सादडी के श्रावकों के आग्रह से वहाँ गीतार्थ साधुओं को भेजकर लंका के अनुयायियों को निरुत्तर करवाया । वहाँ से उदयपुर जाकर उन्हीं गीतार्थो ने राणा कर्णसिंह की राजसभा में भी लुंपकों को बुलवाकर पराजित किया ।
सूरत में सागरगच्छ वालों ने आपको राजसभा में वाद के लिए ललकारा किन्तु वे ही पराजित हुए, तथापि सभी हिल-मिल कर रहें, ऐसी आपकी भावना सदा रही।
अनेक राजा, महाराजा और मेवाड के राणा आपसे प्रभावित थे और आपके उपदेश से अपने-अपने राज्यों में उन्होंने अमारि का प्रवर्तन करवाया था ।
कर्णाटक में गोलकुण्डा के निकट भाग्यनगर में बादशाह कुतुबशाह की राजसभा में आपने बाद में तैलिंग ब्राह्मणों को पराजित कर जैनधर्म की बडी प्रभावना की थी।
आपके जीवनकाल में ही वि.सं. १७०८ में आपने पट्टधर पं० श्री सत्यविजय को पट्ट पर प्रतिष्ठित करना चाहा, किन्तु उन्होंने मना कर दिया । आ० श्री विजयसिंहसूरि कालधर्म पा गये । अतः आपने आ० श्री विजयप्रभसूरि को वि.सं. १७१० में पट्ट पर प्रतिष्ठित किया ।
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