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भामाशाह ने केसरीयाजी तीर्थ का जीर्णोद्धार वि.सं. १६४३ में करवाया था। वि.सं. १६४५ से १६५३ तक भारत भर के तीर्थो की यात्रा में इसने ६९ लाख द्रव्य व्यय किया था । इतिहास में महाराणा प्रताप के साथ भामाशाह का नाम भी अमर है।
उपाध्याय सकलचन्द्रजी आ. श्री विजयदानसूरि के शिष्य उपा० श्री सकलचन्द्रजी विद्वान, कवि और उच्चकोटि के साधक थे । आप अभिग्रहपूर्वक नित्य कायोत्सर्ग ध्यान की साधना करते थे। कई दिनों से उपाश्रय के आस पास में रहे हुए कुम्भार के गधों के रेंकने की आवाज सुनाई न दे तब तक कायोत्सर्ग में रहने का अभिग्रह चलता था । एक दिन कुम्भार अपने गधों को लेकर गांव बाहर चला गया । आपका कायोत्सर्ग चलता रहा । तीन दिन बाद वह कुम्भार अपने गधों सहित लौटा । तब तक आपने कायोत्सर्ग में 'सत्तरभेदी' पूजा की अद्भुत रचना कर ली । यह पूजा विभिन्न शास्त्रीय राग-रागिणीयों के आलापों से भरपूर है । सामान्य संगीतकार तो इस पूजा को पढाने का साहस भी नहीं कर सकता है । 'एकवीशप्रकारी पूजा,' ध्यानदीपिका, प्रतिष्ठाकल्प आदि भी आपकी ही रचना है जो आ० श्री विजयहीरसूरि के समय में रची गई। शाही परिवार में विषकन्या का जन्म और शान्ति स्नान पूजन का प्रभाव
_ वि.सं. १६४८-४९में लाहोर में जहांगीर की बेगम ने विषकन्या को जन्म दीया । सभी को भय लगा कि इस कन्या के कारण शाही परिवार पर भयंकर आपति आएगी। अत: उसे मार डालने की विचारणा हुई । यह बात महोपाध्याय श्री भानुचन्द्र ने सुनी। तब सेठ थानमल और शाह मानमल द्वारा लाहोर के जैन उपाश्रय में शान्ति-स्नात्र पूजन विधि करवाई जिसमें बादशाह अकबर, शाहजादा जाहाँगीर आदि उपस्थित हुए। सभी ने सुवर्ण-पात्र में से स्नात्र-जल लेकर अपनी-अपनी आंखो पर लगाया और जनान-खाने में भी भिजवाया। यह विधि समाप्त होने पर सभी को निश्चय हुआ कि आपत्ति दूर हो गई। इस तरह सभी प्रसन्न हुए और कन्या बच गई।
उपाध्याय श्री सिद्धिचन्द्र अर्थात् दृढधर्मिता और उसका प्रभाव
बादशाह अकबर की मृत्यु के बाद जहाँगीरने अहमदाबाद में आ. श्री हीरविजय के परिवार के महोपाध्याय श्री भानुचन्द्र और उनके शिष्य उपाध्याय श्री सिद्धिचन्द्र को आगरा पधारने के लिए आमन्त्रित किया । वि.सं. १६६९ में बादशाह ने इनका बडी धूमधाम से आगरा में प्रवेश करवाया।
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