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बिरुद की रक्षा के लिए उत्साहित किया । ___चांपानेर के जैनों ने पूरे वर्ष के लिए गुजरात की प्रजा की अन्न और वस्त्र की पूर्ति की योजना बनाई । प्रथम अपने नगर में चंदा इकट्ठा कर खंभात, धंधुका, अहमदाबाद, पाटण आदि शहरों की ओर जाने के लिए रवाना हुए, किन्तु उनको बीच में ही हडाला गाँव के बाहर खीमा मिला । खीमा उन्हें अपने घर ले गया और अपने पिता की आज्ञा से उन्हें कहा- आपको कहीं जाने की जरुरत नहीं । आपका यह छोटा भाई दुष्काल की समस्या हल करने के लिए पूरा द्रव्य दे देगा।
यह बात चांपानेर के अगुआओं ने बादशाह को कही और पर्याप्त द्रव्य बैलगाडियों द्वारा हडाला से चांपानेर पहुँच गया। इस प्रकार वि.सं. १५४० का दुष्काल पार हुआ और वि.सं. १५४१ में सुकाल हो गया। बादशाह न प्रसन्नता पूर्वक जैनों के शाह बिरूद को बादशाह बिरूद से ऊचा माना।
आ. श्री विजयदानसूरि (सत्तावनवें पट्टधर) आ० श्री आनन्दविमलसूरि के पट्ट पर आये आ० श्री विजयदानसूरि का जन्म वि.सं. १५५३, दीक्षा वि.सं. १५६२, आचार्य पद वि.सं. १५८७ और स्वर्गवास वि.सं. १६२२ में हुआ।
___ आपने अनेक स्थानों में सैकडों जिन-बिम्बों की प्रतिष्ठाएँ की । आपके उपदेश से बादशाह मुहम्मद के मंत्री गुलजार ने छह महीने तक श्री शत्रुजय तीर्थ का 'कर' माफ करवाया था और सर्वसंघ को गाँवों और नगरों से आमंत्रित कर उनके साथ यात्रा की थी। दोशी कमशिाह और शझुंजय तीर्थ का सोलहवां उद्धार
उदयपुर के दोशी तोलाशाह के पुत्र कर्माशाह ने आ० श्री विजयदानसूरि और उपा० श्री विनयमंडन के उपदेश से शत्रुजय तीर्थ का उद्धार करवाया और वि.सं. १५७७ में बृहत्पौषधशाला की आ० श्री विद्यामंडनसूरि ने प्रतिष्ठा की।
जगद्गुरु आ. श्री विजयहीरसूरि (अठ्ठावनवें पट्टधर)
आ० श्री विजयदानसूरि के पट्ट पर आ० श्री हीरसूरि बिराजमान हुए। आपका जन्म वि.सं. १५८३, दीक्षा वि.सं. १५९६, आचार्यपद वि.सं. १६०८ और स्वर्गवास
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