Book Title: Jain Itihas
Author(s): Kulchandrasuri
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 123
________________ वहाँ भी कुमत के प्रचार के भय से आपने पुनः विहार शुरु करवाया । वहाँ प्रथम महोपाध्याय विद्यासागरगणि को भेजा जो अपने प्रारंभ काल से ही छट्ठ-छट्ठ के पारणे आयंबिल करते थे। उन्होंने जेसलमेर आदि स्थली-प्रदेश में खरतरों को, मेवाड में बीजा-मतियों को और सौराष्ट्र के मोरबी आदि स्थाने में लुंकामतियों को शुद्ध धर्म का उपदेश देकर उनमें सम्यक्त्व के बीज बोये । वीरमगाँव में पार्श्वचन्द को बाद में निरुत्तर कर बहुत से लोगों को धर्म में स्थिर किया । इसी प्रकार मालवा प्रदेश में भी उपदेश देकर गृहस्थों को धर्म में स्थिर किया। महो० विद्यासागर गणि की क्षमा और सहिष्णुता अद्भुत थी। तेले के पारणे में किसी विरोधी गृहस्थ ने भिक्षा में राख दी, जिसे आप पानी में घोल कर पी गये और दूसरे तेले का पच्चक्खाण किया । इससे विरोधियों के दिल द्रवित हो गये और उन्होंने शुद्ध धर्म को स्वीकार किया। आ० श्री आनन्दविमलसूरि ने क्रियोद्धार के बाद १४ वर्ष तक कम से कम छ? के पारणे छ? तप किया । अनेक विकृष्ट तप करके अन्त में नौ दिन के अनशनपूर्वक वि.सं. १५९६ में स्वर्गवासी हुए । __शाहु खीमा देदराणी देदराणी गोत्र का खीमा हडाला का निवासी था । गर्भश्रीमन्त होने पर भी इसकी सादगी, पितृभक्ति और धर्म-प्रीति असाधारण थी। वि.सं. १५३९-४० के दो वर्ष गुजरात और मालवा में भयंकर दुष्काल पड़ा। एक वर्ष किसी प्रकार बीत गया, किन्तु दूसरा वर्ष कैसे बिताया जाय, यह विकट समस्या थी। चांपानेर में गुजरात के बादशाह मुहम्मद बेगडा ने जैनों के भोजक को बुलवाकर कहा- तू हमेशा कहता है कि शाह तो (पूरे) शाह हैं और बादशाह तो पादशाह (पाव शाह) हैं अर्थात् महाजनों से हमें ओछा बताता है । अब तेरी बात की परीक्षा का समय आ गया है, क्योंकि गुजरात में दुष्काल है । मेरी प्रजा भूखी मर रही है । देखना है तेरे शाह अब क्या करते हैं ? बादशाह के इस कथन से भोजक एकबार तो घबडाया फिर भी उसने चांपानेर के महाजनों को इकट्ठा कर बादशाह की बात कही और उन्हें 'शाह' (११३)

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