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हैं । वज्रसेनसूरि दुर्भिक्ष के समय वज्रस्वामी के वचन से सोपारक नगर गए थे । वहां जिनदत्त सेठ, ईश्वरी सेठानी और नागेन्द्र, चन्द्र, निर्वृति, विद्याधर चार पुत्रों को दीक्षा दी थी। इन चारों के नामों से चार कुलों की उत्पत्ति हुई। आचार्य श्री वज्रसेनसूरि दीर्घजीवी थे । जन्म वी.नि. ४७७ में, दीक्षा ४८६ में और युगप्रधान पद पर वी.नि. ६०२ से ६०५ तक रहे ।
आचार्य श्री वज्रसेन के पट्टधर आचार्य श्री चन्द्रसूरि हुए । इन्हीं से चान्द्र कुल की उत्पत्ति हुई । आजकल के साधु बहुधा इसी कुल के हैं।
आचार्य श्री चन्द्रसूरि के पट्टधर आचार्य श्री समन्तभद्र हुए, जो वादी और विद्वान् थे । नगर बाहर उद्यानादि में रहने की रुचि रखते थे । अतः 'वनवासी' कहलाते थे । इनका समय वी.नि. ६५० के करीब है।।
यहाँ एक बात खास ध्यान में रखने की है कि सोलहवें पट्टधर आचार्य श्री चन्द्रसूरि से लगाकर चौतीसवें पट्टधर आचार्य श्री विमलचन्द्रसूरि तक का श्रृंखलाबद्ध कालनिर्णय नहीं हो रहा है । अतः प्राप्त सामग्री के आधार पर अनुमान से ही विद्वानों ने जो संभावनाएँ की है, तदनुसार हम आगे बढ़ेंगे ।
आठवां निहव शिवभूति (दिगम्बरमतप्रवर्तक) __ वी.नि. ६०९ वर्ष के बाद मथुरा के समीप रथवीर नगर के बाहर उद्यान में आचार्य कृष्ण ठहरे हुए थे । उनका 'सहस्त्रमल्ल शिवभूति' नामक एक शिष्य था, जो गृहस्थावस्था में वहाँ के राजा का कृपापात्र था । अतः वहाँ के राजा ने उसे कम्बलरत्न का दान दिया । आर्य कृष्ण को जब इस बात का पता लगा तो उन्होंने उपालम्भ के साथ कहा- साधुओं को ऐसा बहुमूल्य वस्त्र लेना वर्जित है । इतना कहकर आचार्य ने उस कम्बल के टुकडे कर साधुओं को आसन के लिए दे दिये । शिवभूति को गुस्सा तो आया, पर कुछ बोला नहीं।
एक दिन जिनकल्प का वर्णन चल रहा था तब शिवभूति ने पूछा- इस समय उपधि अधिक क्यों रखी जाती है ? जिनकल्प क्यों नहीं किया जाता ? गुरु ने कहा- जिनकल्प करना आज शक्य नहीं है, वह विच्छिन्न हो गया है । शिवभूति ने कहा- विच्छेद कैसे हो सकता है ? मैं करता हूँ। इस विषय पर आचार्य और स्थविरों ने उसे खूब समझाया, फिर भी वह कर्मोदय के वश होकर वस्त्रों का त्याग कर चला गया। इसी से दिगम्बर मत की उत्पत्ति हुई। शिवभूति के शिष्य प्रशिष्य
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