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को अपने पास लंबे समय से छिपाकर रखे हुए है अर्थात् मैं स्वयं परिग्रहचारी हूँ तो इसे अपरिग्रहव्रत कैसे समझाऊँ ? बस ! अपने पास के जवाहरात को कूडे में फेंक दिया । इस प्रकार आपने शिथिलाचार का त्याग किया और उग्रविहारी बने । आपने आत्मनिंदागर्भित 'रत्नाकरपञ्चविंशति' की रचना की जो लोकप्रिय है । वि.सं. १३८४ में आपका स्वर्गवास हुआ।
आचार्य श्री सोमतिलकसूरि (अडतालीसवें पट्टधर) आ.श्री सोमप्रभसूरि के पट्टधर श्री सोमतिलकसूरि आये । आपका जन्म वि.सं. १३५५, दीक्षा वि.सं. १३६९, आचार्यपद वि.सं. १३७३ और स्वर्गवास वि.सं. १४२४ में हुआ।
'बृहद् नव्यक्षेत्रमास, 'सत्तरियसयठाणं' आदि आपकी ग्रन्थ-रचनाएँ है ।
शेठ जगत्सिंह सेठ जगत्सिंह देवगिरि (दौलताबाद) का करोडपति व्यापारी था । प्रकृति से उदार था । इसके घर-मन्दिर में रत्न की अद्भुत प्रतिमा थी। शेठ ने ३६० साधर्मिकों की अपने समान वैभव वाले बना दिया था । प्रतिदिन इनमें से एक की तरफ से महापूजा और साधर्मिकवात्सल्य इत्यादि धर्म-कार्य होते थे । एक साधर्मिक वात्सल्य में ७२००० द्रव्य का व्यय होता था।
प्रतिज्ञापालन शेठ की प्रतिदिन सुबह-शाम प्रतिक्रमण करने की प्रतिज्ञा थी। एक बार किसी आरोप में बादशाह ने हाथों में हथकडी और पाँवों में जंजीरों से जकड कर शेठ को कारागृह में डलवा दिया । सन्ध्या समय कारागृह के रक्षक को एक टंक प्रमाण सुवर्ण देना कबूल कर दो घडी के लिए हथकडी खुलवाई और प्रतिक्रमण किया । इसी प्रकार एक महीने में साठ टंक प्रमाण सुवर्ण प्रतिक्रमण के लिए दिया । प्रतिज्ञापालन में शेठ की. ऐसी दृढता जानकर बादशाह को संतोष हुआ और उसे कारावास से मुक्त कर दिया । इतना ही नहीं खूब धन भेंट दिया और शेठ का पूर्व से भी अधिक सन्मान करने लगा।
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