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आ. श्री साधुरत्नसूरि ने 'यतिजीतकल्पवृत्ति' की रचना की । इस तरह आचार्य श्री देवसुन्दरसूरि का शिष्य- समुदाय बडा विद्वान् था । इनके गच्छ में अनेक प्रावचनिक और लब्धिधर थे । महोपाध्याय जिनसुन्दर मणि, पं. उदयरत्न गणि वगैरह ग्यारह अंगों के पाठी थे । पं. सर्ववल्लभगणि अच्छे निमित्तवेत्ता थे । पं. शान्तिचन्द्र-गणिराज छ मासी तप करने वाले महातपस्वी थे ।
आ. श्री देवसुन्दरसूरि स्वयं विद्वान् थे । एक बार जैन धर्म का कट्टर विरोधी बडौदा का मन्त्री सारंग किसी देव के कहने से सिद्धपुर आया और आचार्य श्री को वेद-वेदान्त सम्बन्धी अनेक प्रश्न पूछे । आचार्य श्री ने प्रत्येक प्रश्न का जो-जो उत्तर दिया उसे सुनकर सारंग जैनधर्मी बना ।
आचार्य श्री सोमसुन्दरसूरि (पचासवें पट्टधर)
आ. श्री देवसुन्दरसूरि के पट्ट पर आ. श्री सोमसुन्दरसूरि आये । इनका जन्म वि.सं. १४३०, दीक्षा वि.सं. १४३७, आचार्य पद वि.सं. १४५७ और स्वर्गवास वि.सं. १४९९ में हुआ ।
आप विद्वान्, उग्र संयमी, सफल उपदेशक और सौभाग्यशाली थे । आपकी आज्ञा से १८०० क्रियापात्र साधु विचरते थे । आपने योगशास्त्र, उपदेशमाला, षडावश्यक, नवतत्त्वादि ग्रन्थों पर बालावबोध भाष्य लिखे तथा अनेक ग्रन्थों पर अवचूरियाँ लिखीं ।
आपने वि.सं. १४९५ में राणकपुर के श्रीधरणचतुर्मुख विहार की प्रतिष्ठा की । आपश्री के उपदेश से ईडर के संघवी गोविन्द ने तारंगा तीर्थ का जीर्णोद्धार करवाया जिसकी प्रतिष्ठा भी आपने की। आप ही के उपदेश से मोटा पोसीना और मक्षीजी (म.प्र.) विगैरह तीर्थो की स्थापना हुई ।
चितौड़ के राणा मोकलजी और कुंभा आपके भक्त थे । राणा कुंभा ने राणकपुर के मन्दिर में दो स्तम्भ बनवाये ।
आपके शिष्य आ.श्री जयचन्द्रसूरि अपरनाम जयसुन्दरसूरि ने वि.सं. १५०४ में शिवगंज (राज.) के समीप जाकोडा तीर्थ की स्थापना की ।
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