________________
कुंवरपाल के तीन पुत्र थे, जिनके नाम समरथमल, संघवी रत्नाशाह और संघवी धरणशाह था।
धरणशाह ने २१ वर्ष की उम्र में सिद्धगिरि तीर्थ का बडा छ ‘री' पालित संघ निकाला था, जिसमें बादशाह और अनेक मन्त्री शामिल थे । धरण ने अपनी अठारह वर्षीया पत्नी के साथ आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर संघ-माल पहिनी थी।
एक बार मांडवगढ के बादशाह हुसंगशाह का शाहजादा गिजनीखाँ भागकर आया जिसे धरणशाह ने शरण दी । इस प्रसंग से सिरोही का राजा नाराज हो गया। अतः धरण सिरोही राज्य को छोडकर अपने बड़े भाई रत्नाशाह के साथ मेवाड के राणा कुम्भा द्वारा नये बसाये गाँव धाणेराव में जाकर रहा और राणा का अतीव प्रीतिपात्र बना।
एक बार धरण ने स्वप्न में नलिनीगुल्म-विमान देखा और ऐसा ही भव्य जिन-प्रासाद बनवाने का मन ही मन में निर्णय लिया । कालक्रम से राणकपुर में १४४४ स्तंभों से भव्य तीन मंजिल का ४५ फुट ऊंचा जिन-प्रासाद बनकर तैयार हो गया ।
इस मन्दिर की विशेषता यह है कि मन्दिर के किसी भी दरवाजे से और ७२ देवकुलिकाओं में से किसी भी देवकुलिका के द्वार पर खड़े होकर दर्शक बिना किसी अवरोध से मूलनायक भगवान् के दर्शन कर सकते है ।
वि.सं. १४९६ में युगप्रधान आ. श्री सोमसुन्दरसूरि ने इस भव्य जिनमन्दिर की प्रतिष्ठा की । आज भी यहाँ प्रतिवर्ष लाखों यात्री मन्दिर की भव्यता एवं स्थापत्य की विशेषता के दर्शन हेतु आते हैं ।
आचार्य श्री मुनिसुन्दरसूरि (इक्यानवें पट्टधर) आ. श्री सोमसुन्दरसूरि के पट्ट पर उनके शिष्य आ. श्री मुनिसुन्दरसूरि आये। आपका जन्म वि.सं. १४३६, दीक्षा वि.सं. १४४३, आचार्यपद वि.सं. १४७८ और स्वर्गवास वि.सं. १५०३ में हुआ। ये प्रखर विद्वान् और वादी थे इन्हें 'काली सरस्वती' और 'वादिगोकुलसाँढ' और 'सहस्त्रावधानी' के बिरुद प्राप्त थे । आपसे