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आचार्य श्री देवसुन्दरसूरि (उनचासवें पट्टधर )
कोडिबारमें आ. श्री सोमतिलकसूरि ने अंबिकादेवी के सामने बैठकर 'गच्छनायक - पद' के लिए कौन योग्य है ?' यह जानने के लिए ध्यान किया । तब अंबिकादेवी ने कहा- क्षुल्लक देवसुन्दर गच्छनायक पद के लिए योग्य है । आचार्य श्री ने इन्हें गच्छनायक बनाया ।
आ. श्री देवसुन्दरसूरि का जन्म वि.सं. १३९६, दीक्षा वि.सं. १४०४ आचार्यपद वि.सं. १४२० और स्वर्गवास वि.सं. १४८२ अथवा १४९२ में हुआ ।
पाटण में ३०० योगियों के गुरु सिद्धयोगी कणयरीपा ने समाधि लेने से पूर्व अपने मुख्य शिष्य उदीयपा से कहा- जैन श्वेतांबर साधु देवसुन्दर बडा योगी है । उसके पांव में पद्म, दण्ड, चक्र आदि शुभ चिह्न हैं । वह महात्मा और देवांशी पुरुष है | अतः वंदनीय है । तुम सभी उसका सत्कार - सन्मान करना ।
बाद में एक बार उदयीपा अपने परिवार और बड़े जनसमूह के साथ पौषधशाला में आया और आचार्य भगवंत को साष्टांग नमस्कार कर उनकी खूब प्रशंसा की । अपने गुरु का अन्तिम आदेश कह सुनाया कि आप युगप्रधान हैं और मोक्षदाता हैं । इस घटना से आचार्य श्री का प्रभाव बडा और जैन धर्म की खूब प्रभावना हुई ।
आचार्य श्री के पांच शिष्य थे जिनके नाम आ. श्री ज्ञानसागरसूरि, आ. श्री कुलमण्डनसूरि, आ. श्री गुणरत्नसूरि, आ. श्री सोमसुन्दरसूरि और आ. श्री साधुरत्नसूर थे ।
आ. श्री ज्ञानसागरसूरि ने आवश्यक और ओधनिर्युक्ति पर अवचूरियाँ लिखी और अनेक स्तोत्रों की रचना की ।
आ. श्री कुलमण्डनसूरि ने 'सिद्धान्तालापकोद्धार', 'विचारामृतसंग्रह', कल्पसूत्र की अवचूरि और अनेक 'चित्रकाव्यस्तवों' की रचना की ।
आ. श्री गुणरत्नसूरि ने 'क्रियारत्नसमुच्चय' 'षड्दर्शनसमुच्चय-बृहद्वृत्ति' आदि ग्रन्थ रचे ।
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