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वि.सं. १३३४ में कहीं कहीं वि.सं. १३५३ में शास्त्र-मर्यादा के अनुसार द्वितीय कार्तिक की पूर्णिमा को चातुर्मास पूरा होता था, परन्तु उसके पहिले ही जहाँ आप ठहरे थे उस भीलडीनगर (बनासकांठा-गुजरात) के भावी भंग को निमित्तज्ञान से जानकर प्रथम कार्तिक की चतुर्दशी को चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करके दूसरे दिन आपने वहाँ से विहार कर दिया । अन्य गच्छीय जो आचार्य वगैरह वहाँ रहे उनको मुसीबत में पडना पडा ।
आप और खरतरगच्छ के आ. श्री जिनप्रभसूरि के बीच गहरा प्रेम था। ये जब पाटण पधारे तब आपके साथ ही ठहरे । परस्पर के गुणानुराग से स्नेह बढता रहा । आ.श्री जिनप्रभसूरि ने पौषधशाला में चूहों का उपद्रव था जिसे मन्त्र-बल से अटका दिया। सभी साधु आश्चर्य-चकित हो गये।
एक बार देवी पद्मावती ने आ. श्री जिनप्रभसूरि से कहा- दिन प्रतिदिन तपागच्छ का उदय होगा । अतः आप अपने स्तोत्र तपागच्छ के आ.श्री सोमप्रभसूरि को देदें । आ.श्री ने अपने सैकडों स्तोत्र आपको दे दिये । ___ 'सविस्तर यतिजीतकल्पसूत्र' अनेक आराधनासूत्र, यमकमय अट्ठाईस जिनस्तुतियाँ आदि आपकी ग्रन्थ रचनाएँ हैं ।
आचार्य श्री वर्धमानसूरि ये बडे तपस्वी थे । इनके उपदेश से महामात्य वस्तुपाल ने शंखेश्वर तीर्थ का संघ निकाला और जीर्णोद्धार करवाया था। महामात्य वस्तुपाल और तेजपाल की मृत्यु से इन्हें बडा दुःख हुआ और अखंड रीति से वर्धमान तप करने लगे जो करीब पन्द्रह वर्ष चला । वि.सं. १३१९ में आबू तीर्थ पर प्रतिष्ठा कर संघ के साथ शंखेश्वर जाते समय रास्ते में कालधर्म पाकर ये शंखेश्वर तीर्थ के अधिष्ठायक
बने ।
सेठ समराशाह और शझुंजय
महातीर्थ का पन्द्रहवां उद्धार दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी के सुबेदार अलिफ खाँ ने वि.सं. १३५१ में गुजरात में मुसलमान राज्य की स्थापना की । अनेक मन्दिरों और प्रतिमाओं का विनाश किया । पाटण के शेठ गोसल को शत्रुजय तीर्थ के भंग
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