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से बडा आघात लगा । इसी समय आ.श्री सिद्धसेन से शत्रुजय तीर्थ के भूतकालीन उद्धारों की बात सुनकर शेठ गोसल ने अपने पुत्र समराशाह को आज्ञा दी कि वह शत्रुजय तीर्थ का उद्धार करावे । समराशाह ने पिता की आज्ञा सिर पर चढाई और गुरु भगवंत के पास जाकर प्रतिज्ञा की कि जब तक शत्रुजय तीर्थ का उद्धार न करा सकूँ तब तक हमेशा कम से कम बियासणा का पच्चक्खाण, भूमिसंथारा, एक विगइ का त्याग इत्यादि रखूगा।
दूसरी तरफ समराशाह को उसके शुद्ध व्यवहार से पाटण में सर्वमान्य देखकर अलिफखाँ उस पर प्रसन्न रहता था और उसकी प्रत्येक बात को बडे ध्यान से सुनता था । एक दिन समराशाह ने सूबेदार को मीठी-मीठी बातों से प्रसन्न कर शत्रुजय तीर्थ के उद्धार का फरमान लिखवा लिया। इतना ही नहीं किन्तु सौराष्ट्र के हाकिम मलिक बहराम पर आज्ञापत्र भी लिखवाया कि वह तीर्थ उद्धार के कार्य में सहयोग दे।
कुछ ही समय में समराशाह ने पर्याप्त द्रव्य-व्यय से शत्रुजय तीर्थ का उद्धार करवाया और वि.सं. १३७१ में प्रतिष्ठा करवाई जो पन्द्रहवें उद्धार के रूप में प्रसिद्ध है।
बाद में दिल्ली के बादशाह ने समराशाह को अपने पास बुलाकर व्यापारीमण्डल के प्रमुख पद पर नियुक्त किया । दिल्ली दरबार में समराशाह का बडा प्रभाव था । बादशाह ने पांडु देश के राजा वीरवल्लभ और ग्यारह लाख लोगों को कैद कर लिया था, जिन्हें समराशाह ने छुडाया और वीरवल्लभ को पुनः राजगद्दी पर बिठाया । इसीसे समराशाह को 'राजस्थापनाचार्य' का बिरुद मिला था।
आचार्य श्री रत्नाकरसूरि बृहत्पौषधशाला के ४९ वें पट्टधर आ.श्री रत्नाकरसूरि के वि.सं. १३७१ में अपने प्रवचन में अनुक्रम से पांचवें परिग्रह-विरमण व्रत को विस्तृत विवेचन से समझाने पर भी धोलका निवासी एक श्रावक समझ नहीं पा रहा था । बार-बार नहीं समझने का असंतोष व्यक्त कर रहा था । प्रवचन के बाद आचार्य श्री इसका कारण ढूंढते-ढूंढते आत्म-गवेषण में लग गये और इन्हें अपनी ही भूल नजर आई कि मैं स्वयं इस व्रत को समझ नहीं पाया हूँ और हीरा, रत्न, मणि आदि जवाहरात
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