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आचार्य श्री जगज्जगसूरि ये अपने समय के प्रभावक आचार्य हुए । इनके उपदेश से राजा नाहड ने साचौर में महावीर स्वामी का मन्दिर बनवाया था, जिसमें प्राचीन पित्तलमयी प्रतिमा की प्रतिष्ठा वी.नि. ७३० में हुई।
आर्य रेवतिमित्र आर्य नागहस्ती के बाद आर्य रेवतिमित्र वी.नि. ६८८ से ७४७ तक युगप्रधान पद पर रहे । माथुरी वाचना के अनुसार इनका नाम रेवतिनक्षत्र है।
आचार्य श्री प्रद्योतनसूरि (अठारहवें पट्टधर) आचार्य श्री वृद्धदेवसूरि के पट्ट पर आचार्य श्री प्रद्योतनसूरि आये । वी.नि. ७४० वि.सं. २७० और शक स. १३५ में राजा नाहड के समय में जालोर के सुवर्णगिरि किले के नवनिर्मित यक्षवसति नामक मन्दिर में आपने महावीर स्वामी की प्रतिष्ठा की थी।
इसी समय का एक शिलालेख जूनागढ़ में मिला है जो गिरनार तीर्थ के श्रीनेमिनाथ भगवान् के मन्दिर के जीर्णोद्धार अथवा किसी नई प्रतिष्ठा का है। इस लेख से मालूम होता है कि उस समय सौराष्ट्र के शक वंशीय राजा महाराजा रुद्रदाम (शक सं ७२ ई.स. १५०) और उसके पुत्र (१) दामजद (शक सं. ९० ई.स. १६८) तथा (२) रुद्रसिंह (शक सं. १०२ से १२२ ई.स. १८० से २००) जैन थे । इनमें रुद्रदाम 'आप्राणोछ्वासात् पुरुषवधनिवृत्तिकृतप्रतिज्ञेन' अर्थात् जीवन पर्यन्त पुरुषवध के त्याग की प्रतिज्ञा वाले थे, ऐसा उल्लेख है ।
आचार्य श्री कालकसूरि (तीसरे) देवर्द्धिक्षमाश्रमण की गुर्वावली के २५ वें पुरुष आचार्य श्री कालकसूरि हुए। इनका समय वी.नि. ७२० है।
आचार्य श्री मानदेवसूरि (उन्नीसवें पट्टधर) आचार्य श्री प्रद्योतनसूरि के पट्ट पर श्री मानदेवसूरि आये । आचार्यपद प्रदान के समय इनके कन्धों पर सरस्वती और लक्ष्मी को साक्षात् देखकर श्री प्रद्योतनसूरि के चित्त में उदासीनता छा गई । अपने आचार्य के अशुभ की शंका के निवारण हेतु आपने जीवन पर्यन्त घी, दूध आदि सभी विकृतियों का और भक्त के घर की भिक्षा का त्याग किया।