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मुनि बलभद्र अपरनाम आ. श्री वासुदेवसूरि
मुनि बलभद्र आ० श्री यशोभद्रसूरि के शिष्य हुए। सूर्यदेव से आपको भी कुछ विद्याएँ मिली थी । एक दिन बकरी की लिंडियों को सुवर्ण बना दिया । इसीलिए आ०श्री० यशोभद्रसूरि ने आपको अलग रहने की आज्ञा दी और आ. श्री. शालिभद्रसूरि को अपने पट्ट पर स्थापित किया । अब आप बलभद्रमुनि पर्वत की गुफाओं में रहने लगे, जहाँ अनेक विद्याएँ सिद्ध हुई। एक बार जैन संघ गिरनार तीर्थ पहुँचा। जूनागढ के बौद्ध राजा रा' खंगार ने संघ को यात्रा करने से अटका दिया । आकाश में अंबिका देवी की दिव्यवाणी हुई कि आ० श्री यशोभद्रसूरि अथवा बलभद्रमुनि यहाँ आकर अपनी विद्या के प्रभाव से इस तीर्थ को अपना बनावें, तब संघ यात्रा कर सकेगा। संघ की विनति से बलभद्रमूनि आकाशमार्ग से जूनागढ पधारे।
राजा और मंत्री ने कर्णवीर लता के घुमाने मात्र से हजारों सैनिकों का एक साथ नाश करने की तथा पुनर्जीवित करने की आपकी अद्भुत शक्ति का परिचय पाकर आपसे माफी मांगी और तीर्थ जैनों को वापिस लौटा दिया। संघ भी पूजा यात्रा कर अपने स्थान लौटा।
मेवाड का राजा अल्लटराय आपसे काफी प्रभावित था और उसने ही आपको आचार्य पद देकर आपका नाम वासुदेवसूरि रखा । कुछ समय बाद हत्थंडी के राजा विदग्धराज ने विशाल जिनालय बनवाकर वि०सं० ९७३ में आपसे भगवान् श्री आदिनाथ की प्रतिष्ठा करवाई । विदग्धराज का पुत्र मम्मटराज भी आपका उपासक रहा। 'कर्णवीरलताभ्रामक' के नाम से आप प्रसिद्ध हुए ।
खिमऋषि
चितौड के पास वडगाम में बोहा नामक का छोटा व्यापारी था, जो बहुत गरीब था । एक दिन ठोकर लगने से घी दुल गया। गांव वालों ने सहायता कर दूसरा घी दिलवाया, वह भी पहिले की तरह नष्ट हो गया । भाग्य की विचित्रता पर विचार करने से वैराग्य प्रकटा और आ० श्री यशोभद्रसूरि के पास दीक्षा ले ली। दीक्षा दिन से ज्ञान-ध्यान में लग गये ।
एक बार किसी गांव के बाहर आप ध्यान लगाये थे, तब कुछ ब्राह्मण लडकों ने उपसर्ग किया, जिसे आपने क्षमापूर्वक सहा । समीप में रहे शासनदेव ने उन लडकों को
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