Book Title: Jain Itihas
Author(s): Kulchandrasuri
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 74
________________ I कहलाते थे । आप ने उपाध्याय विनयचन्द्र से आगम शास्त्र पढे । वादिवैताल आ. श्री शान्तिसूरि से आपने षड् दर्शन का अध्ययन किया । 'वि.सं. ११४९ में वड गच्छ से अलग होकर आ. चन्द्रप्रभसूरि ने वि.सं. ११५९ में 'पूनमिया' मत चलाया, जिसके सामने आपने 'आवस्स्य सत्तरि' ग्रन्थ की रचना कर संघ को सन्मार्ग बताया । अन्य ग्रन्थों की भी रचना की जिनमें से कुछ के नाम निम्नलिखित है - ( १ ) अंगुलसत्तरि स्वोपज्ञवृत्ति सहित, (२) वणस्सई सत्तरि, (३) उवएसपद टीका, (४) धर्मबिन्दु टीका, (५) ललितविस्तरा पंजिका, (६) कम्मपयडी टिप्पण (७) अनेकांतजयपताकोद्द्योतदीपिका टिप्पण वगैरह आपके पच्चीस से अधिक ग्रन्थ आज भी मिल रहे हैं । पाटण में वि.सं. १९७८ में आप स्वर्गवासी हुए । आ. श्री चन्द्रसूरि 1 नागेन्द्र गच्छ के आ. श्री रामसूरि के शिष्य आ. श्री चन्द्रसूरि हुए। ये प्रकाण्ड विद्वान् और वक्ता थे । इनके प्रवचनों से अनेक भव्य आत्माएँ प्रतिबोधित हुई । वि.सं. ११७२ से ११८० तक आपने (१) पंचाशकचूर्णि, (२) ईर्यापथिकीचूर्णि, (३) चैत्यवंदनचूर्णि (४) वंदनचूर्णि (५) पिण्डविशुद्धि ( ६ ) पक्खीसूत्रवृत्ति आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की । आ. श्री वादीदेवसूरि (४१ वें पट्टधर) आ. श्री मुनिचन्द्रसूरि के पट्टधर आ. श्री देवसूरि हुए । इनका जन्म वि.सं. ११४३ में मंडार (जि. सिरोही - राज.) में हुआ था । दीक्षा वि. सं. ११५२ में हुई । धोलका, नागौर, सांचौर, चित्तौड, ग्वालियर, धारा, पुष्करिणी, भरुच आदि अनेक स्थानों में आपने वाद में विजयी बनकर वादी की ख्याति प्राप्त की । वि.सं. ११७४ में आप आचार्य पद से अलङ्कृत हुए । वादों में सदा अजेय रहने से 'अजितदेवसूरि' के नाम से भी आप प्रसिद्ध हुए । (६४)

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