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भर लेता था । इस तरह बडी कठिनाई से कुछ बचत की किन्तु हीरे घिसतेघिसते हीरों की परीक्षा में निष्णात बन गया ।
एक बार कलिकालसर्वज्ञ आ० श्री हेमचन्द्रसूरि के पास धर्म श्रवण कर परिग्रह-परिमाण व्रत में सात सौ सोनामोहरों का नियम मांगा । आचार्य श्री ने इसके चमकते भाग्य को देखकर इसे समझाया और नौ लाख का परिमाण एवं अधिक धन को धर्म के कार्यों में व्यय करने का नियम करवाया ।
एक बार कोई पशुपालक बकरी को बेचने के लिए बाजार ले जा रहा था। आभड ने उस बकरी के गले में नीला पत्थर देखकर बकरी उसके मालिक से खरीद ली । यह पत्थर नीलमणि था । बाद में इस पत्थर को विधिपूर्वक घिस कर आभड ने राजा सिद्धराज को एक लाख सोना मोहरों में बेच दिया । जिसे राजा ने अपने मुकुट में लगवाया।
आभड ने अब कुटुम्ब को अपने पास बुला लिया और इस द्रव्य से व्यवसाय करने लगा। भाग्ययोग से फिर करोडपति बन गया। आभड ने नये २.४ विशाल मन्दिर बनवाये, अनेक जिनप्रतिमाएँ निर्मित्त करवाई, बहुत से मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया और ८४ पौषधशालाएँ बनवाई । इस तरह सात क्षेत्रों में प्रचुर धन का व्यय किया।
युक्ति से मन्दिरों की रक्षा राजा कुमारपाल के बाद अजयपाल गुजरात की राजगद्दी पर आया तब वह मन्दिर आदि धर्मस्थानों का नाश करने लगा । आभड ने मन्दिरों की रक्षा का कार्य युक्ति से किया । उसने अजयपाल के प्रीतिपात्र नट (भाँड) शीलण को काफी द्रव्य देकर तैयार किया । शीलण ने नाटक रचा । उसने अपने घर में हल्के लकडे का मन्दिर बनाया और उसे सफेदे से धवलित कर विविध चित्रों से अधिक सुन्दर बनाया । बाद में राजा अजयपाल को अपने घर आमंत्रित कर उसके हाथ में अपने पांचों पुत्रों को और मन्दिर को सौपते हुए हाथ जोडकर प्रार्थना करने लगा- हे महाराज ! मेरे ये पुत्र हैं, उनके लिए धन आदि की सुन्दर व्यवस्था है, मैं अब वृद्ध हो गया हूँ और तीर्थयात्रा की मेरी इच्छा है । अतः
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