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वि.सं. १३१६ में बारह वर्ष बाद आ० श्री देवेन्द्रसूरि मालव से लौटकर पुनः खंभात पधारे आ० श्री विजयचन्द्रसूरि ने विनय, वंदन आदि का औचित्य भी नहीं पाला । अतः आ० श्री देवेन्द्रसूरि लघु पोषधशाला में ठहरे । इस तरह गच्छ में भेद पडा, जो विवेकी श्रावकों को अच्छा न लगा । इसीलिए खंभात के सोनी सांगण ने इन दो शाखाओं में कौनसी शाखा सच्ची है, इसका निर्णय पाने हेतु तप किया और स्तंभन पार्श्वनाथ की प्रतिमा के सामने ध्यान धारण किया । शासनदेवी ने प्रत्यक्ष होकर कहा- आ० श्री देवेन्द्रसूरि युगोत्तम आचार्यपंगव है और इनकी परम्परा लम्बे समय तक चलेगी। अतः इनकी उपासना करने योग्य है।
गुजरात के महामात्य वस्तुपाल और तेजपाल भी आपके उपासक रहे । अनेक ग्रन्थों की रचना वगैरह शासनहित के कार्य कर आप वि.सं. १३२७ में स्वर्गवासी हुए । खंभात के संघवी सोनी भीम ने आपके वियोग में १२ वर्ष तक अन्न का त्याग किया । आपकी ग्रन्थ-रचना निम्न प्रकार है :- भाष्यत्रय, श्राद्धविधिकृत्य, पंच नव्य कर्मग्रन्थ, स्वोपज्ञवृत्तिसहित सिद्धपंचाशिका एवं धर्मरत्नप्रकरण-छ कर्मग्रन्थ और श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र की वृत्तियाँ आपने रची ।
आ. श्री विद्यानन्दसूरि और आ. श्री धर्मघोषसूरि (छयालीसवें पट्टधर)
आ० श्री देवेन्द्रसूरि के पट्ट पर आ० श्री विद्यानन्दसूरि आये । ये पूर्व पर्याय में उज्जैन के श्रेष्ठिपुत्र वीरधवल थे । आ० श्री देवेन्द्रसूरि ने इन्हें विवाह-महोत्सव में प्रतिबोध देकर वि.सं. १३०२ में दीक्षा दी । वि.सं. १३२३ में पालनपुर में आपको आचार्य पद दिया गया । उस अवसर पर मन्दिर में केसर की वृष्टि हुई थी । ये बडे विद्वान् थे । इन्होंने 'विद्यानन्दव्याकरण' रचा जो संख्या में कम सूत्र
और बहुत अर्थ के संग्रह वाला होने से अपने समय का सर्वोत्तम व्याकरण था । ___आ० श्री देवेन्द्रसूरि के स्वर्गवास के बाद १३ दिन के अल्पकाल में ही आप भी स्वर्गवासी हो गए । संघ के लिए यह दु:खद घटना थी । अन्त में सभी ने आ० श्री विद्यानन्दसूरि के छोटे भाई और गुरुभ्राता उपाध्याय श्री धर्मकीर्ति को योग्य जानकर गच्छनायक बनाने का निर्णय लिया । एवं बडी पौषधशाला वाले आ० श्री विजयचन्द्रसूरि के शिष्य और बृहत्कल्प की 'सुबोधिका वृत्ति' को पूर्ण
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