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महल के आगे लटकवा दिया । बस, वस्तुपाल और सिंह जेठवा के दोनों सैन्य आमने सामने आ गये । अन्त में राजपुरोहित सोमेश्वर ने राजा के मामा और वस्तुपाल को शान्त किया और सिंह जेठवा से माफी मंगवाई। इस तरह जैन धर्म और मन्त्री का गौरव बढा ।
आ० श्री नरचन्द्रसूरि ने वि.सं. १२८७-८८ में अपने कालधर्म के समय कहा था- वस्तुपाल ! आज से दश वर्ष बाद तेरी मृत्यु होगी । उनके वचन को याद कर वस्तुपाल ने वि.सं. १२९७-९८ में शत्रुजय तीर्थ का संघ निकाला और रास्ते में ही आचार्य भगवन्तों के श्रीमुख से अन्तिम आराधना कर मरण पाया । सुना जाता है कि वस्तुपाल मरकर महाविदेह में किसी राजकुल में उत्पन्न हुए हैं जो राज्यसुख भोगकर संयम ग्रहण करेंगे और कैवल्य पाकर मुक्त होंगे । तेजपाल भी कुछ ही समय के बाद समाधिपूर्वक परलोक सिधार गया।
वस्तुपाल तेजपाल के सुकृत __ आबू पर लुणिगवसही इत्यादि १३०४ नूतन जिनमन्दिरों का निर्माण, २३०० मन्दिरों का जीर्णोद्धार, सवा लाख जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा, ९८४ उपाश्रय, ७०० दानशालाएँ, साढे बारह संघयात्राएँ, अनेक उद्यापन, अनेक ज्ञानभंडार, अनेक आचार्यादिपद-प्रदान महोत्सव और बहुत से अन्य लोकोपयोगी कार्य इनके हैं ।
अनुपमादेवी अनुपमा देवी महामात्य तेजपाल की धर्मपत्नी थी। यह बुद्धिमती, उदार और शान्त थी । अपने उदार स्वभाव से कुटुंब में सभी को प्रिय हो गई थी। बुद्धिमता के कारण इसकी सलाह के बिना कुटुंब में एक भी महत्त्व कार्य न होता था । लुणिगवसही के निर्माण की पूरी जिम्मेदारी इसने निभाई थी। निर्माण काल में यह अपने भाई उद्दल को साथ रखकर लम्बे समय तक आबू पर रही थी। सुना जाता है कि यह मरकर महाविदेह में जन्मी, जहाँ आठ वर्ष की वय में भगवान् सीमन्धरस्वामी के पास चारित्र ग्रहण किया और वर्तमान में केवली होकर विचर रहे है।
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