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तपस्वी हीरला आ. श्री जगच्चन्द्रसूरि (चवालीसवें पट्टधर)
आ० श्री सोमप्रभसूरि के पट्ट पर आ० श्री जगच्चन्द्रसूरि हुए । ये आ० श्री मणिरत्नसूरि के शिष्य थे । वि.सं. १२७४ में गुरुदेव के स्वर्गवास से आपने आयंबिल तप का आरंभ किया और आ० श्री सोमप्रभसूरि की सेवा में रहकर अध्ययन किया । आ० श्री सोमप्रभसूरि ने इन्हें आचार्यपद देकर गच्छनायक पद पर प्रतिष्ठित किया । आप श्री ने देवभद्रगणी (ये दोनों आगे जाकर आचार्य हुए) की सहायता से क्रियोद्धार किया । आयंबिल करते बारह वर्ष होने आये तब आप मेवाड में पधारे । आघाटपुर (आयड) में मेवाड के राणा जैत्रसिंह ने वि.सं. १२८५ में आपके तप और ध्यान से प्रभावित होकर आपको 'तपा' का बिरुद दिया । तब से 'वटगच्छ' तपागच्छ कहलाने लगा । चितौड को राजसभा में आपने अनेक दिगम्बर आचार्यों को हराया और स्वयं हीरे की तरह अभेद्य रहते हुए चमकने लगे । अतः राजाने आपको 'हीरले' का बिरुद भी दिया।
गुजरात के महामात्य वस्तुपाल और तेजपाल भी आपके उपासक रहे । इनके शत्रुञ्जय तीर्थ के 'छ' री पालित संघ में तथा आबू तीर्थ की प्रतिष्ठा में आप उपस्थित रहे । आप वि.सं. १२६५-६६ में स्वर्गवासी हुए ।
आचार्य श्री देवेन्द्रसूरि (पैंतालीसवें पट्टधर) आ० श्री जगच्चन्द्रसूरि के पट्टधर उनके शिष्य आ० श्री देवेन्द्रसूरि हुए । ये प्रकृति से शान्त, प्रकाण्ड, विद्वान्, महान् ग्रन्थकार और शासनप्रभावक थे ।
वि.सं. १२८५ में गुरुदेव ने आपको आचार्य पद प्रदान किया । आपके उपदेश से मेवाड के राणा तेजसिंह ने अमारि प्रवर्तन कराया और रानी जयतलादेवी ने चितौड के किले पर शामलिया पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया।
वि.सं. १३०७ में आप मालवा तरफ पधारे, जहाँ बारह वर्ष तक विचरे । तब तक आपके छोटे गुरुभाई आ० श्री विजयचन्द्रसूरि खंभात में चैत्यवासियों की बडी पोषधशाला में ही रहे और शिथिलाचारी बन गये । आगे बढकर इन्होंने आ० श्री देवेन्द्रसूरि की आज्ञा का भी त्याग किया और अपना स्वतंत्र गच्छ चलाया, जिसकी परम्परा लम्बी न चल सकी।
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