Book Title: Jain Itihas
Author(s): Kulchandrasuri
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 91
________________ आप आज्ञा दीजिये । जिससे मैं आत्मकल्याण करूँ । इस प्रकार उसने राजा की आज्ञा ले ली । बाद में स्वजनों से भी विदा लेकर प्रस्थान करने लगा । कुछ ही कदम शीलण आगे बढा कि उसके पांचों लडकों ने लाठियाँ चलाकर मन्दिर को जमींदोज कर दिया । मन्दिर के धडाम से गिरने की आवाज सुनकर शीलण टूटे दिल से वापिस लौटा और तिरस्कारपूर्ण वाणी से पुत्रों के प्रति कहने लगा- अरे दुर्भाग्यशेखरो ! यह (अजयपाल ) कुनृप फिर भी अच्छा है, क्योंकि इसने तो अपने पिता (कुमारपाल ) की मृत्यु के बाद उसके धर्मस्थानों का नाश किया है, जब कि तुम तो उससे भी अधमकोटि के हो, क्योंकि मेरे सौ कदम जाने की भी तुमने राह नहीं देखी । अजयपाल यह नाटक देखकर अत्यन्त लज्जित हुआ । उसने मन्दिर तोडने की प्रवृत्ति सर्वथा रोक दी । इस तरह आभड की युक्ति से तारंगा तीर्थ आदि अनेक मन्दिर बाल-बाल बच गये । इसी प्रकार ग्रन्थों को जैसलमेर जैसे सुरक्षित स्थानों में भेजकर बचा लिया । आभड शेठ प्रतिदिन एक घडा घी सुपात्रदान में, साधर्मिक वात्सल्य, महापूजा याचकों को दान वगैरह तथा प्रतिवर्ष दो बार संघपूजन, आगम ग्रन्थों का लिखवाना मन्दिर-उपाश्रय बनवाना इत्यादि सुकृत की रकम अट्ठानवें लाख द्रव्य सुनकर अपनी ८४ वर्ष की उम्र में विषाद करते हुए बोले- मैं बडा कंजूस रहा, पूरा एक करोड भी खर्च न कर सका । तब आभड के पुत्रों ने उसी समय दस लाख का और व्यय कर एक करोड आठ लाख तक धार्मिक व्यय पहुँचाया तथा आठ लाख दूसरे खर्च करने को कहा । इस प्रकार स्वयं शासन के अनेक कार्य कर आभड शेठ स्वर्गवासी हुए । आचार्य श्री विजयसिंहसूरि ( बयालीसवें पट्टधर) आ० श्री देवसूरि के पट्ट पर आ० श्री विजयसिंहसूरि आये । ये समर्थ वादी और विद्वान् थे । इन्होंने वि.सं. १२०६ में आरासण में प्रतिष्ठा करवाई । (८१)

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