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आबू पर्वत पर चढते समय किसी राजपुरुष को सर्प ने दंश दे दिया था जिसका विष आपके पाद-प्रक्षालन जल से उतर गया । यहीं पर अंबिका देवी ने प्रत्यक्ष होकर आपको जतलाया कि गुरुदेव आ. श्री मुनिचन्द्रसूरि का आयुष्य सिर्फ आठ महीना शेष है, अतः आप पाटण वापिस लौटें । इसी से आप वापिस लौटे । वि.सं. ११७८ के मार्गशीर्ष कृष्णा पंचमी को विधिपूर्वक अनशन कर गुरुदेव स्वर्गवासी हुए। - इसी समय देवबोधि नाम का कोई विद्वान् पाटण में आया हुआ था । उसने एक श्लोक लिखकर सिद्धराज की सभा में रखवाया, किन्तु छः महीने तक कोई विद्वान् उसका अर्थ न बता सका । राजा की प्रार्थना से आपने अर्थ बताया जिससे देवबोधि को आश्चर्य एवं राजा को आनन्द हुआ।
__ आपने पाटण की राजसभा में वि.सं. ११८१ में दिगंबराचार्य कुमुदचन्द्र को जीत कर पाटण में दिगंबरों का प्रवेश अटकाया । इस विजय से संतुष्ट होकर राजा ने बारह गाँव और एक लाख द्रव्य आपको भेंट किया परन्तु आपने स्वीकारा नहीं । अतः इस द्रव्य से राजा ने पाटण में भव्य जिनालय बनवाया जो 'राजविहार' के नाम से ख्यात हुआ । इसी विजय के उपलक्ष में सिद्धराज की प्रेरणा से आलिग मन्त्री ने सिद्धपुर में चतुर्मुख जिनप्रासाद बनवाया ।
एक बार जंगल में सिंह सामने आकर खडा हो गया । आपने रेखा खींच कर उसे रोक रखा।
वि.सं. ११९१ में आपने जीरावला तीर्थ की स्थापना की ।
आरासण (कुंभारिया) में भगवान् श्री नेमिनाथ की, फलवर्धि (मेडता) में भगवान् पार्श्वनाथ आदि की अनेक प्रतिष्ठाएँ आपने करवाई । ८४००० श्लोकप्रमाण 'स्याद्वादरत्नाकर' नामक टीकाग्रन्थ से युक्त 'प्रमाणनयतत्त्वावलोक', 'द्वादशव्रतस्वरूप', 'कुरुकुल्लादेवी स्तुति', 'जीवाजीवाभिगम लघुवृत्ति', 'यतिदिनचर्या' आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की । वि.सं. १२२६ में आप स्वर्गवासी हुए।
आपके अनेक शिष्यों में आ.श्री भद्रेश्वरसूरि और आ.श्री रत्नप्रभसूरि बडे विद्वान् हुए । इन दोनों ने 'स्याद्वादरत्नाकर' की रचना में आपको अपूर्व सहायता की थी।
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