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(१) रयणचूड-तिलयसुंदरी कहा, (२) उत्तराध्ययन लघुवृत्ति (३) आख्यानमणि कोश, (४) महावीरचरियं और (५) प्रवचनसारोद्धार मूल ।
अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ तीर्थ स्थापना
रामायणकालीन बाली और सुमाली द्वारा वालुका से निर्मित भगवान् पार्श्वनाथ की प्रतिमा विदर्भ के किसी सरोवर में सरोवर के अधिष्ठायक देव द्वारा पूजी जाती ..
थी।
एलिचपुर का राजा कुष्ठ रोग के कारण राज्य त्याग कर जंगल में सपरिवार रहने लगा । उसने एक संध्या को सरोवर के जल से हाथ-पाँव धोये और जलपान किया । रात्रि को बडा आराम रहा। सुबह देखा तो रोग शान्त हो गया था । उसी दिन दिव्य संकेत भी हुआ, तदनुसार राजा ने सरोवर में से प्रतिमा निकलवाई और उसे रथ में लेकर अपने नगर को चला । नियतिवश बीच रास्ते में प्रतिमा आकाश में स्थिर हो गई। वहीं मन्दिर बना, जिसकी प्रतिष्ठा मलधारी आ.श्री अभयदेवसूरि ने वि.सं. ११४२ में की।
आ. श्री जिनवल्लभ सूरि कूर्चपुरगच्छीय चैत्यवासी आ. श्री जिनेश्वरसूरि के शिष्य श्री जिनवल्लभ हुए। इन्होंने चितौड में छः कल्याणक की प्ररूपणा की । श्री देवभद्राचार्य ने इनको वि.सं ११६७ में आचार्य पद दिया । इन्होंने 'पिण्डविशुद्धिप्रकरण', गणधर सार्धशतक, षडशीति वगैरह ग्रन्थों की रचना की । नवांगी टीकाकार आ.श्री. अभयदेवसूरि के आप विद्या-शिष्य हुए । आपने वि.सं. ११२५ में आ.श्री. जिनचन्द्रसूरि द्वारा रचित 'संवेगरंगशाला' का संशोधन किया था।
आचार्य श्री मुनिचन्द्रसूरि (४0 वें पट्टधर) आ.श्री यशोभद्रसूरि और आ.श्री नेमिचन्द्रसूरि के पट्ट पर आ.श्री मुनिचन्द्रसूरि हुए । आपका जन्म डभोई (गुजरात) में हुआ । आ. श्री यशोभद्रसूरि से आपने दीक्षा ली । दीक्षा दिन से छः विगई का त्याग जीवन भर रखा । सिर्फ १२ द्रव्य आहार में रखे । सौवीर (कांजी) का पान करते थे अतः आप सौवीरपायी
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