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सपरिवार जैन बनाया था और चन्द्रावती नरेश के नेत्र-तुल्य कुंकुण मन्त्री को उपदेश देकर अपना श्रमण शिष्य बनाया था । वि.सं. १०१० में आपने रामसैन्य नगर में भगवान् चन्द्रप्रभ स्वामी की प्रतिष्ठा की थी । वि.सं. १०५५ के आसपास आप स्वर्गवासी हुए ।
आचार्य श्री वर्द्धमानसूरि चैत्यवास का त्यागकर वर्धमान ने आचार्य श्री उद्योतनसूरि के पास दीक्षा ली थी और शास्त्राभ्यास किया था । वि.सं. ९९५ के बाद अजारी (जि. सिरोही-राज.) के भगवान् महावीर स्वामी के मन्दिर में आचार्य श्री ने आपको भी आचार्य पद से अलङ्कृत किया ।
आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि और
आचार्य बुद्धिसागरसूरि बनारस के पण्डित कृष्णगुप्त ब्राह्मण के श्रीधर और श्रीपति नाम के दो बुद्धिमान् पुत्र थे । इन दोनों ने आ.श्री वर्धमानसूरि का परिचय पाकर उनसे दीक्षा ली
और शास्त्राभ्यास किया । क्रम से दोनों आचार्य पद से अलङ्कृत हुए और आ.श्री जिनेश्वरसूरि और आ. श्री बुद्धिसागरसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
इस समय पाटण में चैत्यवासियों का ही वर्चस्व था । वि.सं. १०८० में राजा भीमदेव की राजसभा में आप दोनों ने संवेगी साधुओं का भी समान वर्चस्व स्थापित किया।
आ.श्री जिनेश्वरसूरि ने हारिभद्रीय अष्टक प्रकरण की वृत्ति, प्रमाणशास्त्र, प्रकरण और प्रबन्धों की रचना की। आ.श्री बुद्धिसागरसूरि ने व्याकरण ग्रन्थों की रचना की । जो 'बुद्धिसागरग्रन्थान सप्तसहस्त्रकल्पम्' 'शब्दलक्ष्यलक्ष्म' और 'पंचग्रंथी' नाम प्रसिद्ध हुए।
आचार्य श्री अभयदेवसूरि (नवांगी टीकाकार) धारा नगरी के श्रेष्ठी महीधर के पुत्र अभयकुमार ने आ.श्री जिनेश्वरसूरि से दीक्षा ली । शास्त्राभ्यास कर आप आचार्य पद से अलङ्कृत हुए । पूर्व के पापोदय से आपको कुष्ठ रोग हो गया । 'जय तिहुअणवरकप्प' स्तुति करने से भगवान् श्री
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