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कविराज धनपाल धनपाल की विद्वता से प्रभावित होकर मुंजराज ने इन्हें 'कूर्चाल- (दाढीमूछवाली) सरस्वती' का तथा भोजराज ने 'कवीश्वर' और 'सिद्धसारस्वत' का बिरुद दिया था। ये सत्यवादी और निडर वक्ता थे । इनके कुछ सुभाषितों का भावार्थ निम्न प्रकार है :
सुभाषित (१) शंकर के दर्शन को टालते हुए-हे भोजराज ! शंकर और पार्वती साथ बैठे हुए है । इसलिए इनके दर्शन में मुझे लज्जा आ रही है । मैं बालक होता तो अलग बात थी।
(२) ,गी कंकाल जैसा क्यों है ? इस प्रश्न के समाधान में कहते है- हे राजन् ! यह भंगी सोचता है कि मेरे स्वामी शंकर यदि दिगम्बर हैं तो धनुष्य की क्या जरूरत है ? शस्त्र रखते हैं तो भस्म लगाने का क्या प्रयोजन है ? भस्म लगाते हैं तो स्त्री क्यों रखते हैं ? स्त्री रखते हैं तो कामदेव पर द्वेष क्यों करते हैं ? अपने स्वामी की इन परस्पर विरोधी चेष्टाओं से चिन्ता ही चिन्ता में बिचारा भुंगी कंकाल सा हो गया हैं । __(३) याज्ञवल्क्य स्मृति के विषय में अपना अभिप्राय देते हुए- हे राजन् ! श्रुति में विष्टा खाने वाली गाय का स्पर्श, वृक्ष की पूजा, पशु-वध, पूर्वजों का तर्पण, ब्रह्मभोजन, अग्नि में बलि, मायावी को मानना इत्यादि धर्ममार्ग बताया है, जिसे सच्चा कैसे माना जाय ?
(४) गाय की वंदनीयता के विषय में- गाय पशु है, विष्टा खाती है, पतिपुत्र का भेद नहीं रखती है, खुरों से जीवहिंसा करती है और सींग मार देती है । ऐसी गाय को नमस्कार क्यों ? यह दूध देती है, इसलिए वंदनीय हो तो भैंस भी वंदनीय होनी चाहिए।
कविराज की औत्पातिकी बुद्धि के कुछ उदाहरण (१) एक बार 'सरस्वतीकंठाभरण' नामक नये महल से विद्वद्-गोष्ठी के बाद बाहर निकलते समय राजा भोज ने कहा- कविराज ! कहो कि आज मैं कौन-से दरवाजे से निकलूंगा?
कविराज ने शीघ्र एकांत में एक भोजपत्र पर 'छत तोडकर' इतना लिखा और
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