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आ. श्री देवसूरि ( ३७वें पट्टधर)
आप अत्यन्त
आचार्य श्री सर्वदेवसूरि के पट्टधर आ० श्री देवसूरि हुए । रूपवान् थे । इसीलिए राजा कर्णदेव ने आपको 'रूपश्री' का बिरुद दिया था । वि.सं. ११२५ के करीब आप स्वर्गवासी हुए ।
वाचनाचार्य शोभनमुनि
मध्यप्रदेश के सांकाश्यनगर के विद्वान् ब्राह्मण देवर्षि सपरिवार धारा में आकर बसे और राजमान्य बने । इन्होंने अपने कमाये धन को जमीन में स्थापित किया था, किन्तु किसी को बतलाया न था । सर्वदेव नाम का इनका पुत्र था । उसकी सोमश्री नाम की पत्नी थी तथा धनपाल और शोभन नाम के दो पुत्र थे |
सर्वदेव ने आ० श्री महेन्द्रसूरि से पिता द्वारा गाडे हुए धन के स्थान को जानकर प्रचुर धन प्राप्त किया । बदले में सर्वदेव ने आचार्य श्री को अपना छोटा पुत्र शोभन सोंप दिया, जो दीक्षा लेकर जैन मुनि बना ।
इसी प्रसंग से धनपाल ने, जो मुंजराज और भोजराज को सभा का मान्य पण्डित था, मालवा में जैन साधुओं का विहार बन्द करा दिया ।
शोभन मुनि शास्त्रों का अध्ययन कर वाचनाचार्य बने और धारा में पधारे, जहाँ अपनी विद्वत्ता से और साध्वाचार के सुन्दर पालन से धनपाल के मिथ्यात्व को नष्ट किया और उसे सच्चा जैन बनाया ।
पश्चात् इसी धनपाल ने आ० श्री महेन्द्रसूरि को बडे सन्मान के साथ धारा में लाकर पूरे मालवा में जैन साधुओं का विहार खुला करवाया ।
शोभनमुनि विद्वत्ता के साथ अद्भुत काव्यशक्ति के भी स्वामी थे । आपने यमक अलंकार में ‘चतुर्विंशतिजिनस्तुति' की रचना की, जिस पर अनेक टीकाएँ रची गई है।
सुना गया है कि शोभन मुनि ने भिक्षा - अटन करते-करते यह ग्रन्थ रचा । एक बार किसी ने आपको ग्रन्थ-रचना में मग्न जानकर भिक्षा में भोजन के स्थान पर पत्थर रख दिया । उपाश्रय में आकर आचार्य श्री को पात्र बताया तब ही आपको इस घटना का खयाल आया । ऐसी थी आपकी एकाग्रता ।
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