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एक बार आचार्य श्री ने धारा के संस्कृत-विद्यालय में जाकर भोजव्याकरण के मंगलाचरण की क्षति निकाली जिससे राजा बडा प्रभावित हुआ और राजसभा में आचार्य श्री का खूब सन्मान किया।
एक दिन भोजराजा ने अपनी सभा के पांच सौ पण्डितों से कहा कि तुम लोग सूराचार्य को पराजित कर सको तो अच्छा रहेगा, परन्तु कोई पण्डित तय्यार न हुआ । अन्त में एक चतुर पण्डित ने राजा की सम्मति से एक भोले सोलह वर्ष के विद्यार्थी को न्यायशास्त्र की कुछ पंक्तियाँ रटाकर खडा किया । जब वह बोलने लगा तो आचार्यश्री ने उसे बीच में अटका कर पूछा- तू अशुद्ध पद क्यों बोलता है ? भोले विद्यार्थी ने कहा कि मेरी पोथी में ऐसा लिखा है।
श्री सूराचार्य हँसकर बोले- जैसा भोजव्याकरण का मंगलाचरण वैसा ही भोजसभा का शास्त्रार्थ । मालवराज ! बस अब मैं जाता हूँ। इतना कह कर उपाश्रय में चले गये।
राजा के क्रोध और लज्जा का पार न रहा । उसने सूराचार्य को पकड लाने के लिए सुभटों को भेजा, किन्तु धारा में रहे आ० श्री चूड और कवि धनपाल ने पहले से ही उन्हें गुप्तवेश में उपाश्रय से निकाल कर गुजरात की तरफ भेज दिया था।
राजा भोज को जब यह वृत्तांत मालूम हुआ तब मन ही मन बोल उठा कि गुजराती साधु ने मेरी सभा को ही नहीं किन्तु मेरी चालाकी को भी जीत लिया।
श्री सूराचार्य ने वि.सं. १०८० में गद्य-पद्यमय 'नेमिनाथ-चरित' तथा बाद में 'नाभेय-नेमि-द्विसंधानकाव्य' की रचना की । अपने शिष्यों को भी बडा विद्वान् और वादी बनाया।
आ. श्री गोविन्दसूरि और आ. श्री वर्धमानसूरि
आ.श्री गोविन्दसूरि चैत्यवासी थे। इनका अपरनाम आ.श्री विष्णुसूरि था। गुजरात का राजा प्रथम कर्णदेव (११२०-११५०) आपका बालमित्र और भक्त था। भीमदेव और सिद्ध राज भी आपके भक्त थे। आपकी विद्वत्ता के कारण चैत्यवासी और संवेगी साधु आपसे पढते
थे।
आपके शिष्य आ श्री वर्धमानसूरि भी बडे विद्वान् हुए जिन्हों ने शाकटायन व्याकरण पर वि.सं. ११८७ में 'गुणरत्नमहोदधि' नामक ग्रन्थ स्वोपज्ञवृत्ति के साथ रचा।
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