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भोजपत्र को संपुट में बन्द कर राजा के अंगरक्षकों को सौंप दिया ।
कविराज को गलत साबित करने के लिए राजा ने ऊपर की छत तुडवाई और उससे बाहर निकल गया, किन्तु संपुट खुलवाकर कविराज के उत्तर को पढा तब राजा के आश्चर्य का पार न रहा ।
(२) एक दिन राजा भोज ने कविराज को देव - पूजा का आदेश दिया । कविश्वर स्नानादि से शुद्ध होकर हाथ में पूजा की सामग्री लेकर एक के बाद एक काली, विष्णु, शिव और श्री जिनेश्वर के मन्दिरों में गये । प्रथम के तीन मन्दिरों से पूजा किये बिना ही उदास लौटे और चौथे जिनमन्दिर में पूजा कर प्रसन्न वदन बहार आये ।
राजा ने गुप्तचरों द्वारा इस घटना को जानकर कविराज से पूछा- कहो किस किस की पूजा की ?
कविराज ने निःसंकोच कहा- महाराज ! मैं प्रथम महाकाली के मन्दिर में गया तो वहाँ देवी महिषासुर के वध में व्यस्त थी । उसके हाथ में कपाल (खोपडी) था और शस्त्र थे, उसका चेहरा अतीव रौद्र था । यह देखकर मुझे लगा कि देवी अभी गुस्से में है । अतः इसकी पूजा करना उचित नहीं ।
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बाद में मैं विष्णु के मन्दिर में गया तो विष्णु के साथ सत्यभामा, रुक्मिणी वगैरह बैठी थी और रास लीला चल रही थी । इसलिए मुझे लगा कि एकान्त में रहे हुए देव के पास मुझे और दूसरे किसी को भी जाना उचित नहीं । अतः पर्दा डालकर में वापिस लौट आया ।
पश्चात् मैं शिवालय में गया । यहाँ मुझे सूझ ही नहीं पडी कि शिवजी के किस अंग को पूजू, क्योंकि जहां कंठ ही नहीं है वहाँ फूलमाला कहाँ डालूँ ? नाक ही हीं वहाँ धूप देने का कुछ अर्थ नहीं, कान ही नहीं वहाँ गीत किसे सुनाऊँ ? और पाँव ही नहीं तो प्रणाम किसे करूँ ? अतः पूजा कैसे करूँ ?
बाद में जिनालय में गया । वहाँ वीतराग की सौम्य मूर्ति के दर्शन हुए, आँसे अमृत बरस रहा था, मुख प्रसन्न था, गोद स्त्रीसंग से शून्य थी और हाथ शक से राहत थे । वहाँ सच्चा देवत्व देखकर मैंने देवाधिदेव की पूजा की। मुझे वहां राय शान्ति मिली ।
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