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जाने की ठानी । जाते समय अपने गुरुभाई दुर्गस्वामी को आप वचन दे गये कि वहाँ मतिभ्रम से बौद्धधर्म के प्रति रुचि हो जायगी तो अवश्य एक बार आपसे मिलने के बाद ही निर्णय लूंगा।
आप गुप्तवेश से महाबोधनगर में जाकर अध्ययन करने लगे। अध्ययनकाल में बौद्ध धर्म के प्रति रुचि होने लगी, परन्तु वचनपालन हेतु दुर्गस्वामी के पास आये। गुरु भगवन्त ने आपको समझाकर स्थिर किया। दुबारा गये और वापिस आये। इस तरह इक्कीस बार जाना आना हुआ। अन्तिम बार आ० श्री हरिभद्रसूरि रचित चैत्यवंदन सूत्र पर ललितविस्तरावृत्ति को पढकर सदा के लिए स्थिर हो गये। आपकी अनेक रचनाओं में वि.सं. ९६२ की रची हुई 'उपमिति- भवप्रपञ्च कथा' विश्व का अद्वितीय रुपक ग्रन्थ है।
राजगच्छीय आचार्य श्री प्रद्युम्नसूरि
राजगच्छीय आचार्य श्री प्रद्युम्नसूरि वादी और विद्वान् थे । आपने सपादलक्ष, ग्वालियर और तलवाडा की राजसभाओं में वाद में विजय पाकर वहाँ के राजाओं को प्रभावित किया था । मेवाडा के राणा अट्टलराय की राजसभा में दिगम्बराचार्य को जीतकर अपना शिष्य बनाया था। इसी प्रसङ्ग की स्मृति में चितौड के किले में विजयस्तंभ बना, जो आज भी इस वृत्तान्त की साक्षी दे रहा है । यह प्रसङ्ग विक्रम की दशवीं शती के पूर्वार्ध का है।
तर्कपंचानन आचार्य श्री अभयदेवसूरि (राजगच्छीय)
आ.श्री प्रद्युम्नसूरि के शिष्य आचार्य श्री अभयदेवसूरि हुए। आप पूर्व पर्याय से राजकुमार थे। अत: आपको राजर्षि भी कहते थे। आपके चरणोदक से असाध्य रोग भी मिट जाते थे। आप अजेय वादी भी थे। इसीलिए आपको 'तर्कपंचानन' का बिरुद प्राप्त था । 'सम्मति-तर्क' ग्रन्थ पर आपने २५००० श्लोक प्रमाण 'वादमहार्णव' नाम का टीकाग्रन्थ रचा । उत्तराध्ययन सूत्र के बृहट्टीकाकार वादी वेताल आ.श्री शान्तिसरि आपसे न्यायशास्त्र पढे थे।
आचार्य श्रीधनेश्वसूरि (राजगच्छीय) राजगच्छीय आ.श्री धनेश्वरसूरि पूर्व पर्याय से कन्नोज राजकुमार धन थे । इनके शरीर पर जहरी फफोले हो गये थे, जो अनेक उपचार करने पर भी मिटे नहीं । आखिर आ.श्री अभयदेवसूरि के पादप्रक्षालन जल को छांटने से शान्त हो गये । बस, तुरन्त ही
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