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आचार्य श्री धनेश्वरसूरि आचार्य श्री धनेश्वरसूरि ने वल्लभी के बौद्ध राजा शिलादित्य को उपदेश देकर जैन बनाया था और गुप्त सं. ४७७ वि.सं. ८५२ में 'शत्रुञ्जयमाहात्म्य' ग्रन्थ की रचना की । आपसे धनेश्वर गच्छ निकला। आचार्य श्री रविप्रभसूरि और आचार्य श्री यशोदेवसूरि
(तीसवें और इकतीसवें पट्टधर) आ० श्री जयानन्दसूरि के पट्ट पर आ० श्री रविप्रभसूरि आये और आ० श्री रविप्रभसूरि के पट्टधर श्री यशोदेवसूरि हुए । ये ब्राह्मण विद्वान् थे । वैराग्य पाकर जैनी दीक्षा ली और शास्त्रों का अभ्यास कर महान् प्रभावक आचार्य हुए । ये निर्मल चारित्र के पालक थे । 'सरस्वती-कंठाभरण' बिरुद आपको प्राप्त था ।
आचार्य श्री प्रद्युम्नसूरि (बत्तीसवें पट्टधर) आ० श्री यशोदेवसूरि के पट्ट पर आ० श्री प्रद्युम्नसूरि आये । शंकराचार्य के समय में धर्म की जो क्षति हुई थी उसकी पूर्ति के लिए आप अनेक बार पूर्व और मगध में पधारे । आपने सात बार सम्मेतशिखर महातीर्थ की यात्रा की । आपके उपदेश से पूर्व देश में १७ नये मन्दिर बने, अनेक मन्दिरों के जीर्णोद्धार हुए और ११ ज्ञानभंडार स्थापित हुए।
आचार्य श्री मानदेवसूरि तृतीय (तेतीसवें पट्टधर) आ० श्री प्रद्युम्नसूरि के पट्टधर आचार्य श्री मानदेवसूरि हुए। आपने 'उपधानविधि' ग्रन्थ रचा।
आचार्य श्री विमलचन्द्रसूरि (चौंतीसवें पट्टधर) आ० श्री मानदेवसूरि के पट्ट पर आ० श्री विमलचन्द्रसूरि आये । चितौड में आपको सुवर्ण-सिद्धि की शक्ति प्राप्त हुई थी । गोपगिरि (ग्वालियर) की राजसभा में वाद में विजय प्राप्त कर लेने से वहाँ का राजा मिहिरभोज आपको उपासक बना था । चितौड का अल्लटराज भी आपका उपासक था । शत्रुञ्जय तीर्थ : में १०० वर्ष की वय में अनशन कर आप वि०सं० ९८० में स्वर्गवासी हुए ।
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