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की परम्परा में कौण्डकुन्द और वीर हुए ।
यहाँ एक उल्लेखनीय हकीकत है कि मथुरा के स्तूप में से एक जैन श्रमण की मूर्ति मिली है, जिस पर "कण्ह" नाम खुदा हुआ मिलता है । यह मूर्ति इन्हीं कृष्ण आचार्य की हो तो आश्चर्य नहीं, क्योंकि यह मूर्ति अर्धनग्न होते हुए भी उसके कटिभाग में प्राचीन निर्ग्रन्थ श्रमणों द्वारा नग्नता ढंकने के निमित्त रखे जाते 'अग्रावतार' नामक वस्त्रखण्ड की निशानी देखी जाती है। यह अग्रावतार आर्यरक्षित तक चला । बाद में श्रमण कमर में चोलपट्टक बांधने लगे । यह प्रासङ्गिक बात हुई।
वल्लभी वाचनानुगत स्थविरों का कालक्रम यद्यपि आर्य वज्र वी.नि. ५४७ से ५७३, आर्यरक्षित ५८३ से ५९६, आर्य दुर्बलिका पुष्पमित्र ५९६ से ६१६ और आर्यवज्रसेन ६१६ से ६१९ है तथापि ऊपर के लेख में कुछ परिवर्तन किया है, वह पदार्थसंगति के लिए अनिवार्य हो गया है।
आर्य नन्दिल माथुरी वाचनानुगत स्थविरक्रम से आर्य मंगु के बाद आर्य नन्दिल हुए । कब से कब तक ये युगप्रधान पद पर रहे, उसका वर्णन नहीं मिल रहा है। फिर भी वीरनिर्वाण से ४४९ वर्ष बाद का काल ही संभव है। ये साढे नौ पूर्वो के ज्ञाता थे । इन्हीं के उपदेश से कोई वैरोट्या नाम की श्रेष्ठी की पुत्रवधू दीक्षा लेकर धरणेन्द्र की देवी हुई और प्रभु पार्श्वनाथ के भक्तों को सहाय करने लगी । आप ही ने 'नमिऊण जिण पास' इत्यादि मन्त्रगर्भित वैरोट्या देवी का स्तवन बनाया, जो विष उतारने और उपद्रवों की शान्ति के लिए उत्तम मन्त्र के रूप में प्रसिद्ध है।
आर्य नागहस्ती वल्लभी वाचनानुगत स्थविरक्रम से आर्य वज्रसेन के बाद वी.नि. ६१९ से ६८८ तक आर्य नागहस्ती युगप्रधान रहे । माथुरी वाचनानुसार आर्य नन्दिल के बाद इनका क्रम है।
आचार्य श्री वृद्धदेवसूरि (सत्तरहवें पट्टधर) आचार्य श्री समन्तभद्रसूरि 'वनवासी' के पट्ट पर आचार्य श्री वृद्धदेवसूरि आये। इनके उपदेश से संभवतः शक सं. १२५ अर्थात् वी.नि. ७३० के आसपास कोरण्ट नगर में नाहड राजा के मन्त्री द्वारा निर्मापित श्री महावीर स्वामी के मन्दिर की प्रतिष्ठा हुई।
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