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उक्त गाथा का अर्थ चिन्तन करने पर भी समझ में नहीं आया । तब आप याकिनी साध्वीजी के निर्देश से आचार्य महाराज के पास जाकर समझ सके । विद्वत्ता का अभिमान नष्ट हो गया और आप बोल उठे- हे भगवन् ! कृपा कर मुझे अपना शिष्य बनाएँ ।
इस प्रकार आप आचार्य श्री जिनदत्तसूरि के शिष्य हुए और याकिनी महत्तरा को माता मानने लगे।
हँस और परमहंस कुछ समय के बाद हंस और परमहंस संसारी पर्याय से आपके भाणजे भी दीक्षित हुए जो बौद्धों द्वारा मारे गये । इससे आपको काफी दुःख हुआ । अन्त में आपने शूरपाल राजा की राजसभा में १४४४ बौद्धों के आचार्यों को वाद में जीत लिया । प्रतिज्ञानुसार तपे हुए तैल की कढाई में बौद्धाचार्य को डलवाने का प्रबन्ध हुआ, परन्तु आचार्य श्री जिनदत्तसूरिने जब यह वृत्तान्त सुना तब शीघ्र समरादित्यचरित की चार गाथाएं आचार्य श्री हरिभद्रसूरि के नाम भेजी । गाथाएँ पढते ही आप शान्त हो गये और बौद्धाचार्यों को क्षमा कर दिया । इसी प्रवृत्ति के प्रायश्चित रूप में आपने १४४४ ग्रन्थों की रचना की । आपका समय विक्रम की आठवीं शती का उत्तरार्ध है।
सर्वधातु की खड्गासन में दो प्रतिमाएँ वि०सं० ७४४ में दो भव्य खड्गासन में सर्वधातु की प्रतिमाएँ बनी है, जो आज भी पिन्डवाडा (जि० सिरोही-राज०) के मन्दिर में विद्यमान हैं।
इस समय तक अन्य आचार्य, वाचक, गणी आदि भी हुए जिनका वर्णन ग्रन्थ विस्तार के भय से नहीं कर सकते हैं, फिर भी प्राप्त ग्रन्थों के अनुसार उनके कर्ताओं और समय का निर्देश निम्न प्रकार से हैकर्ता समय
ग्रन्थ श्री धरी वीर प्रभु के स्वहस्त उपदेशमाला
दीक्षित शिष्य श्री गरि ! वो, नि. ५३०
हरिवंसचरियं और
पउमचरियं (४०)