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पायी। राजा रथ में प्रतिमाजी को बिराजमान कर कल्याणी ले जा रहा था कि बीच ही कुल्पाक नगर में रथ अटक गया । अतः प्रतिमा की यहीं प्रतिष्ठा की और अभिषेक-जल से कल्याणी नगर की मारी को शान्त किया । यह प्रसंग विक्रम संवत ६४० के आसपास का है। अब हम पट्टधर एवं ग्रन्थ प्रभावक आचार्यो के इतिहास को लेकर आगे बढ़ेंगे ।
आचार्यश्री वीर सूरि (इक्कीसवें पट्टधर) आचार्य श्री मानतुङ्गसूरि के पट्ट पर आचार्य श्री वीरसूरि पट्टधर हुए। लगभग गप्त सं. ३०० अर्थात् वि.सं. ६७६ में आपने श्री नमिनाथ भगवान् की प्रतिष्ठा करवाई थी।
आचार्य श्री जयदेवसूरि (बाईसवें पट्टधर) आचार्य श्री वीरसूरि के पट्ट पर आचार्य श्री जयदेवसूरि आये । आपने रणथम्भोर की पहाडी पर जिनालय में श्री पद्मप्रभस्वामी की प्रतिष्ठा करवाई थी और भाटी राजपूतों को उपदेश देकर जैन बनाया था ।
आचार्य श्री देवानन्दसूरि (तेईसवें पट्टधर) आचार्य श्री जयदेवसूरि के पट्टधर आचार्य श्री देवानन्दसूरि हुए । आपने कच्छसुथरी में शास्त्रार्थ कर शैवों को हराया था और प्रभास पाटण में श्री पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिष्ठा कराई थी।
आचार्य श्री विक्रमसूरि (चौबीसवें पट्टधर) आचार्य श्री देवानन्दसूरि के पट्ट पर आचार्य श्री विक्रमसूरि हुए । आपने परमार क्षत्रियों को उपदेश देकर जैन बनाया था।
आचार्य श्री नरसिंहसूरि (पच्चीसवें पट्टधर) आचार्य श्री विक्रमसूरि के पट्टधर आचार्य श्री नरसिंहसूरि हुए । आप अपने समय के अखिल श्रुत के पारगामी थे। आपने नरसिंहपुर, उमरकोट और आसपास के नगरों में नवरात्रि की अष्टमी को भैसे के बलिदान को बन्द करवाया था । खुमाण वंश के मेवाड के सूर्यवंशी राजाओं को उपदेश देकर जैन बनाया था और सर्वभक्षी यक्ष की मांस-रति छुडायी थी।
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