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इसी तरह एक दिन प्रत्याख्यान का वर्णन चलता था, जैसे "प्राणातिपात का त्याग करता हूँ, यावज्जीवनपर्यन्त" तब गोष्ठामाहिल ने कहा "काल-परिमाण की सीमा बांधना अच्छा नहीं है । कालपरिमाण वाले पच्चक्खान दूषित हैं, क्योंकि उनमें आशंसा दोष होता है।"
इस पर विन्ध्य ने कहा- तुम्हारा कथन यथार्थ नहीं है । तब गोष्ठामाहिल आर्य दुर्बलिका पुष्पमित्र के पास जाकर अभिनिवेशपूर्वक कहने लगा कि स्वर्गस्थ गुरु भगवंत ने अन्यथा पढाया है और तुम अन्यथा व्याख्या कर रहे हो । इस पर आचार्य
और स्थविरों ने उसे युक्तिपूर्वक समझाया, फिर भी आचार्य का कथन उसने मान्य नहीं किया । इस पर अन्यगच्छीय स्थविरों से पूछा गया तो उन्होंने आर्य पुष्पमित्र का समर्थन किया । इतने पर भी गोष्ठामाहिल ने दुराग्रह नहीं छोडा । तब संघ इकट्ठा किया गया । संघ के कायोत्सर्ग से आकृष्ट देवता ने सीमन्धरस्वामी के पास जाकर पूछा और वापिस आकर कहा- संघ सम्यग्वादी है और गोष्ठामाहिल मिथ्यावादी । यह सप्तम निद्वव है । इस प्रकार संघ ने उन्हे बहिष्कृत कर दिया।
शालिवाहनशकसंवत्सर और
कनिष्कसंवत्सर का प्रवर्तन __ आचार्य कालकसूरि द्वारा लाये गये शकराजा का चार वर्ष के अल्प काल में ही जब अवन्ती की राजगद्दी से पतन हुआ, तब वी.नि. ४५७ के बाद उसके वंशजों का गुजरात-सौराष्ट्र में उदय हुआ । शालिवाहन नाम के राजा ने मालवा पर आक्रमण कर गर्दभिल्ल के वंशजों को हरा दिया, और वी.नि. ६०५, विक्रम सं. १३५ और ई.सं. ७८ में स्वयं मालवा की राजगद्दी पर आरूढ हुआ। तभी से अपने नाम का संवत्सर चलाया जो शक संवत्सर के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ और यह आजकल हमारा राष्ट्रिय संवत्सर भी है। ___ इसी समय कुशानवंशी राजा कनिष्क मथुरा की राजगद्दी पर आया और इसने भी अपने नाम संवत्सर चलाया ।
आर्य वज्रसेनसूरि. श्री चन्द्रसूरि और
श्री समन्तभद्रसूरि _ (चौदहवें पन्द्रहवें और सोलहवें पट्टधर) आचार्य श्री वज्रस्वामी के प्रथम पट्टधर श्री वज्रसेनसूरि, पट्टक्रम से चौदहवें
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