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जिनका वर्णन हम पहले कर चुके हैं; (२) आर्य धनगिरि, ये आचार्य श्री वज्रस्वामी के पिता थे, (३) आर्य वज्रस्वामी और (४) आर्य अर्हद्दत्त ।
इनमें से आर्य वज्रस्वामी पट्टधर पद पर और युगप्रधान पद पर आये । इनके पिता श्री धनगिरि जन्म से ही वैरागी थे, किन्तु माता-पिता के आग्रह से शादी की। श्रीवज्रस्वामी माता के गर्भ में आये तब श्री धनगिरि ने दीक्षा ले ली । श्री वज्रस्वामी जन्म से ही जातिस्मरण ज्ञानवाले थे। अतः माता को अपने प्रति उद्विग्न कर छ: मास की उम्र में ही आर्य धनगिरि की भिक्षाझोली में पहुँच गये । ___ साध्वीजी के उपाश्रय में तीन वर्ष की उम्र में ग्यारह अंग सीख लिये । माता की ममता इस बालक के प्रति फिर जगी। अतः वह राजसभा में मिठाई और खिलौनों का ढेर बताकर बालक को लुभाने लगी। दूसरी तरफ आचार्य श्री ने रजोहरण और मुहपत्ति दिखाई । बालक ने दौडकर वह ले ली। इस प्रसंग से माता ने भी दीक्षा ले ली।
पूर्व जन्म के मित्र देवों ने आकाशगामिनी और वैक्रिय लब्धि इन्हें दी थी, जिसके प्रभाव से ये दुष्काल में संघ को सुकाल वाले क्षेत्र में ले गये थे । दक्षिण के बौद्ध राज्य में श्री जिनपूजा निमित्त पुष्प लाकर राजा और प्रजा को जैन बनाया था एवं साध्वी के मुख से प्रशंसा सुनकर आपके प्रति अनुरागिनी बनी हुई श्रेष्ठिकन्या रुक्मिणी को आपने दीक्षा दी थी।
आचार्य श्री भद्रगुप्त से आपने दश पूर्व पढे थे जिसके प्रभाव से अद्भुत उपदेशशक्तिरूप क्षीराश्रव-लब्धि के आप स्वामी थे। आचार्य रक्षितसूरि ने आपसे ही साढे नौ पूर्व पढे थे । इनसे वज्री शाखा निकली । आजकल के श्रमण प्रायः इसी शाखा के हैं । अन्त में अनशन कर आप स्वर्ग सिधार गये।
जहाँ आपने अनशन किया उस पर्वत को इन्द्र ने आकर रथ सहित प्रदक्षिणा देकर आ का वंदन किया । संभवतः मैसूर के समीप का श्रवण-बेलगोला ही इन्द्रगिरि और थावर्त गिरि के नाम से प्रसिद्ध हुआ हो।।
आय व्रतस्वामी ने शत्रुञ्जय तीर्थ के नये अधिष्ठायक कपर्दी यक्ष की स्थापना की सगे। पो.नि. ५७० में शेठ जावड शाह ने शत्रुञ्जय पर नये प्रासाद की प्रतिष्ठा आपके करकमलों से करवाई थी।