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माथुरी वाचना में आचार्य श्रीगुप्त की युगप्रधानों में गणना नहीं है । वल्लभी पट्टावली के अनुसार आर्य वज्रस्वामी का युगप्रधान काल वी.नि. ५४७ से ५८३ है तथापि कुछ विद्वान् वी.नि. ५३४ से ५७० मानते हैं, इसका कारण पश्चात् के १३ साल आर्यरक्षित म.सा. का युगप्रधान काल है। अतः५८४ में सातवें निबव अबद्धिक गोष्ठामाहिल का काल आवश्यकवृत्ति के अनुसार संगत होता है।
आर्यरक्षितसूरि और तीसरी आगमवाचना आर्यरक्षितसूरि जन्म से ब्राह्मण थे । चौदह विद्याओं को पढकर जब ये घर आये तब माता ने आत्महितकर दृष्टिवाद पढने के लिए कहा । माता की आज्ञा से दृष्टिवाद पढने के लिए ये आचार्य श्री तोषलिपुत्र के पास दीक्षित हुए । आर्य वज्रस्वामी से साँढे नौ पूर्व पढे । पश्चात् माता, पिता, भाई वगैरह पूरे परिवार को दीक्षा दी।
आर्यरक्षितसूरि का जन्म वी.नि. ५०८, दीक्षा वी.नि. ५३०, सामान्य व्रतपर्याय ४० वर्ष तथा वी.नि. ५७० से ५८३ तक युगप्रधान पद पर अवस्थान रहा । आपने काल की विषमता, शरीरबल की हानि, मतिमन्दता वगैरह कारणों को ध्यान में रखकर आगमों को द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणकरणानुयोग और कथानुयोग में विभक्त कर दिया, जो तीसरी आगमवाचना के रूप में प्रसिद्ध है।
आचार्य श्री दुर्बलिका पुष्पमित्र आर्यरक्षितसूरि के शिष्य आचार्य दुर्बरिरका पुष्पमित्र युगप्रधान पद पर वी.नि. ५८३ से वी.नि. ६०२/६०३ तक रहे । ये बडे बुद्धिमान् थे । इनका ज्ञान साढे नौ पूर्व का था । इन्हीं के काल में वी.नि. ५४४ में अबद्धिक गोष्ठामाहिल दशपुर नगा में पारा निहव हुआ !
सप्तम निहव गोष्ठामाहिल एक बार दशपुर नगर में आचार्य श्री दुर्बलिका पुष्पमित्र आदि ठहरे हुए थे। विन्ध्य नाम के साधु कर्म का स्वरूप वर्णन कर रहे थे, तब गोष्ठामाहिल कर्म-बन्ध की व्याख्या में अपनी अरुचि प्रकट करते बोले- जैसे कंचुकीपुरुष का कंचुक स्पृष्ट होकर ही रहता है बद्ध होकर नहीं, इसी प्रकार कर्म भी जीव से बद्ध न होकर स्पृष्ट होकर ही रहता है । विन्ध्य ने कहा- गुरु ने ऐसा नहीं सिखाया है ।
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