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भ. श्री ऋषभदेव की प्रतिमा जो 'कलिंग जिन' के नाम से प्रसिद्ध है उसे पुनः कलिंग लाकर कुमारगिरि पर मन्दिर बंधवाकर प्रतिष्ठित कराई । कलिंग की रानी ने जैन साधुओं के विहार उपाश्रय बंधवाये । श्रमणों को वस्त्र दान दिया । राजा ने आगमों का संग्रह करवाया इत्यादि ।
महाराजा खारवेल के राज्यकाल में जैन धर्म की प्रबलता थी । आगन्तुक अन्य धर्मी भी जैन धर्म के प्रभाव में आ जाता था इसलिए तत्कालीन वैदिक आचार्यों ने अपने अनुयायियों के लिए कलिंग वगैरह में जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था । वह इस तरह
"सिन्धु- सौवीर - सौराष्ट्रांस्तथा प्रत्यन्तवासिनः ।
अङग-बङ्ग-कलिङ्गांश्च गत्वा संस्कारमर्हति ॥ १ ॥ "
यह महाराजा इतिहास में तीन नामों से प्रसिद्ध है - ( १ ) निर्ग्रन्थ भिक्षुओं का अर्थात् जैन साधुओं का भक्त होने से भिक्षुराज, (२) महामेघ नाम के हाथी को सवारी करने से महामेघवाहन और (३) सागरतट पर राजधानी होने से खारवेल -
राज ।
यह महाप्रतापी भिक्षुराज जैन धर्म की प्रभावना के और अनेक कार्य कर वी.नि. ३८२ में स्वर्गवासी हुआ । इसके पुत्र और पौत्र वल्कराज और विदुहराज क्रम से राजगद्दी पर आये जो जैन धर्म के दृढ अनुरागी थे ।
आचार्य श्री सुस्थितसूरि और श्री सुप्रतिबुद्धसूरि ( नौवें पट्टधर) एवं कोटिक गण की उत्पत्ति
आर्य सुहस्ती के पट्ट पर आचार्य श्री सुस्थितसूरि और आचार्य श्री सुप्रतिबुद्ध सूरि आये । क्रमशः कोटिक और काकान्दिक इनके विशेषण थे । इन्हीं से कोटिक गण निकला ।
दूसरी आगमवाचना
कुमारगिरि पर कलिंगराज खारवेल ने कलिंग - जिन की पुनः प्रतिष्ठा इन्हीं आचार्यों से करवाई । इन्हीं आचार्यों की प्रमुखता में श्रमण - सम्मेलन बुलाया गया था, जो दूसरी आगमवाचना के नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें आर्य महागिरि के शिष्य आर्य बलिस्सह ने विद्याप्रवाद - पूर्व से 'अंगविद्या' शास्त्र की, आर्य
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