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कि उनसे पढे हों। श्री कालकाचार्य (दूसरे)
श्री कालकाचार्य धारावास नगर के राजकुमार थे । निर्ग्रन्थ आचार्य श्री गुणाकर का उपदेश सुनकर इन्होंने अपनी बहन सरस्वती के साथ दीक्षा ली।
उधर वी.नि. ४०५ में पुष्यमित्र के पतन के बाद अवन्ती की राजगद्दी पर दर्पण नाम का राजा आया। उसके बाद उसका पुत्र गर्दभिल्ल राजा हुआ । वह बडा दूराचारी था। अपनी सगी बहन अडोलिया के सौन्दर्य से मुग्ध होकर उसके साथ पापक्रीडा में मग्न रहने लगा।
श्री कालकाचार्य एक बार उज्जयिनी के बाहर उद्यान में पधारे हुए थे। साध्वी सरस्वती भी वहाँ अपने भाई आचार्य को वंदन करने आई।
इसी समय राजा गर्दभिल्ल भी घुडसवारी के निमित्त वहाँ जा पहुँचा। साध्वी सरस्वती के मनोहर रूप से मुग्ध होकर उसे बलात् उठाकर अपने अन्तः पुर में रख लिया।
श्री कालकाचार्य के समझाने पर भी दुर्भागी गर्दभिल्ल सरस्वती को लौटाने के लिए राजी न हुआ, तब आचार्य ने सिन्धु नदी के तटप्रदेश के शासक सामन्त नाम के शकराज को अपनी विद्याओं से प्रभावित कर प्रचंड सैन्य के साथ अवन्ती के समीप लाकर रख दिया। गर्दभिल्ल भी अपने सैन्य के साथ नगर से बाहर निकला। दोनों सैन्यों में भीषण युद्ध हुआ। गर्दभिल्ल मारा गया और नरक का अतिथि हुआ। सरस्वती को आलोचनादि प्रायश्चित से शुद्ध कर पुनः दीक्षा दी।
दक्षिण में प्रतिष्ठानपुर के राजा सातवाहन अपरनाम शालिवाहन की प्रार्थना से इन्हीं कालकाचार्य से भाद्रपद शुक्ल पंचमी के बदले चतुर्थी के दिन संवत्सरी पर्व का प्रवर्तन हुआ।
इस तरह वी.नि. ४५३ में शकवंश उज्जयिनी की राजगद्दी पर आया । चार वर्ष बाद वी.नि. ४५७ में शकराज का पतन हुआ।
शकराज के पतन के बाद वी.नि. ४५७ में महाराजा विक्रमादित्य, जो बलमित्र के नाम से भी प्रसिद्ध है, अवन्ती की राजगद्दी पर आये। आचार्य श्री वृद्धवादी
ये आर्य शाण्डिल्य के शिष्य थे । वृद्धावस्था में इन्होंने दीक्षा ली थी, फिर भी अध्ययन में अतीव उत्साह रखते थे । फलस्वरूप समर्थ वादी हुए । विहारक्रम से भरुच पधार रहे थे । प्रथम नगर के बाहर और पश्चात् भरुच की राजसभा में सिद्धसेन नाम के प्रकाण्ड विद्वान् ब्राह्मण को वाद में परास्त कर अपना शिष्य बनाया।
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