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माता-पिता के अत्यन्त आग्रह से आठ कन्याओं के साथ शादी की, तथापि उनसे मोहित न हुए । रात्रि के समय जब ये इन कन्याओं को संसार की असारता समझा रहे थे तब चोरी के लिए आये हुए ४९९ चोर और उनके सरदार प्रभव नाम के क्षत्रियपुत्र चकित रह गये । अन्त में ये सब प्रतिबोधित हुए ।
दूसरे दिन सुबह ५०० चोर, ८ पत्नी, १६ उनके माता पिता, २ अपने माता पिता के साथ स्वयं ५२७ वें जम्बूकुमार निन्यानवे करोड सुवर्ण मुद्राओं का त्याग कर दीक्षित हुए । यह प्रसंग वी. नि. सं. १ का है ।
१६ वर्ष गृहवास, २० वर्ष छद्मस्थ पर्याय और ४४ वर्ष केवली पर्याय पालकर ८० वर्ष की उम्र में वी.नि.सं. ६४ में अपने पट्ट पर प्रभवस्वामी की स्थापना कर मोक्ष पधारे ।
ये जम्बूस्वामी भरत क्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल के अन्तिम केवली और सिद्ध हुए ।
कच्छ-भद्रेश्वर तीर्थ की स्थापना
इन्हीं के समय में कच्छ देश के भद्रेश्वर तीर्थ की स्थापना हुई । वीर - निर्वाण सं. २३ का शिलालेख है । इस तीर्थ की प्रतिष्ठा श्री सुधर्मास्वामी के शिष्य कपिल केवी ने की थी ।
राजा अवन्तीवर्धन की दीक्षा
अवन्तीराज पालक के (१) अवन्तीवर्धन और (२) राष्ट्रवर्धन नामक दो पुत्र थे I पालक की वी.नि. २० में मृत्यु हुई । अवन्तीवर्धन राजगद्दी पर आया । उसने राष्ट्रवर्धन की पत्नी धारिणी को अपने वश में करने के लिए राष्ट्रवर्धन को मरवा डाला । धारिणी परिस्थिति को समझकर कोशाम्बी जा पहुँची और उसने वहाँ जैनी दीक्षा ले ली । इस तरह अवन्तीवर्धन ने भाई की हत्या का पाप किया फिर भी वह धारिणी को पा नहीं सका । अतः वैराग्य पाकर उसने भी जम्बूस्वामी के पास वी.नि. २४ के करीब दीक्षा ली ।
सांची का स्तूप
दीक्षा के समय धारिणी गर्भवती थी । उसने एक बालक को जन्म दिया, जिसे कोशाम्बी के नि:संतान राजा अजितसेन ने अपना लिया और उसका नाम मणिप्रभ रखा ।
उस तरफ अवन्तीवर्धन की दीक्षा के बाद राष्ट्रवर्धन का पुत्र अवन्तीषेण उज्जयनी की गद्दी पर आया और अजितसेन की मृत्यु के बाद मणिप्रभ कोशाम्बी की राजगद्दी पर आया ।
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