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द्धताहै वा मेरी समझ और आंखों का दोष फिर पत्र लिखा उसका जो उत्तर पाया तो जाट और खाट और मुग़ल और कोल्हकी कहावत याद आयी श्रीमत्पण्डितवर वालशास्त्री जी तो बाहर गये हैं परम पूजनीय जगतगरु श्री स्वामी विशद्धानन्दजी के चरणों में पहुंचा पत्र और उत्तरों को देखकर बहुत हँसे और पिछले उत्तर पर जिसमें इन दोनों महात्माओं का नाम है कुछ लिखवा भी दिया अब मैं महा विकट विस्मयावर्त में पड़ाहूं न तो यह कह सक्काहूं कि स्वामी दयानन्दजी संस्कृत शब्दों का अर्थ नहीं समझते और न यह अपने मन में लासक्ताहूं कि आपतो समझते हैं दूसरों के बहकाने और भुलाने को यह अर्थाभास रचाहै क्योंकि ऐसा काम सत्पुरुषों का नहीं है जो हो मैंने अपने पत्र और स्वामी दयानन्द जीके उत्तरों का इसमें छपवा देना बहुत उचित समझा कि जो सज्जन आर्य लोग उन की बनायी ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका देखते हैं अपनी बुद्धि को कुछ काममें लावें और दूसरे पण्डितोंसे भी सम्मति लेवें ऐसा न हो कि अंधेनैव नीयमाना यथान्धाःके सदृश केवल दयानन्दजीके भाष्य और भूमिका ही की लाठी थामे किसी अथाह गढ़े वा नरककुण्ड में जा गिरें क्योंकि किसी पारसी कवि ने कहा है
بنشینم گناهست
اگر بینم که نا بینا و چاه ست وگر خام ش
इत्यलम् किमधिकम् ॥
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