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( ५४ ) के पाठवें राज्यवर्ष में बुद्ध ने निर्वाण प्राप्त किया था।
तिब्बती दल्य कहता है कि बुद्ध को भम्त्येष्टि क्रिया [चितादाह] बड़े समारोह के साथ की गई थी । यह उतनी ही बढ़ी चढ़ी हुई थी, जितनी किसी एक चक्रवर्ती राजा की की जाती है। उनका सब से अधिक प्रसिद्ध और योग्य शिष्य अभिधर्म का रचयिता, जिसने पहली बौद्ध महासभा में सब से अधिक काम किया था, इस समय वहां न था । वह राजगह में था। परन्तु ज्योंही उसने बुद्ध के परलोकवास का समाचार पाया त्योंहीं वह तुरन्त कुशो मगर को दौड़ा चला पाया । बुद्ध का शव उनके देहान्त के पाठ दिन पीछे तक नहीं जलाया गया था। बहुत लहाई झगड़े के बाद, जे लोहू लुहाम तक पहुंच गया था, और जो केवल उस नम्रता और शान्ति द्वारा ठण्डा पड़ा था जिसकी बुद्ध मूतिं थे, और जिसे उन्होंने अपने शिष्यों के रक्त में खब भेद दिया था, अन्त में यह ठहरा कि बुद्ध के शव के पाठ भाग किये जावें । इन में से एक कपिलवस्तु के शाक्यों को दिया गया था।
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