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Bollbllikka 116 Ibollebic le
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૩૦ ૦૪૮૪૬
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जैन और बौद्ध का भेद ..
RIMon
JAIS AND CALDES
TAKEN FROJ TIC.
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INTRODUCTION
TO THE
Chan
DHIADRABAHE'S KALPASUTRA
BY
HERMANN JACOBI
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( LEIPZIG 1379.)
BY
Patabapaciahtaacobalahabician
RAJA SIVA PRASAD C. S. I. FELLOW OF THE UNIVERSITIES OF CALCUTTA AND ALLAIIABAD.
ideobalat
PRICT
गजा शिवप्रसाद सितारहिंद कृत
लखनऊ मुन्शी नवलकिशोर (सी, आई, i) के छापेनाने में छपा ..
फरवरी सन् १८९००
__2nd edition 128G cories. । । दुसरी बार १२०. प्रनि । Shrefuicanets Nanarayanbiaangaieinara, surat ' कीमत प्रन्ति पुस्तक idar.com
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जैन और बौद का भेद
JAIS ASD BALDHS
TAKEN FROM THE
INTRODUCTION
కదంతందననందం, రంగRAKKK వందనం
TO THE
BHADRABANI'S KALPASUTRA
BY
HERMANN JACOBI
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( LEIPZIG 1879. i
BY
RAJA SIVA PRASAD C. S. I. FELLOW OF THE CRIVER. SITIES OF CALCUTTA AND ALLAHABAD).
राजा शिवप्रसाद सितारहिंद कर
అదరగ
लखनऊ मुन्शी नवमकिशोर (सी, भाई, पापनाने में पा
फरवरी सन् १८१...
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जैन और बौद्ध का भेद ॥
अक्सर फ़रंगी विद्वान जैन और बौद्ध दोनों को आरम्भ ही से अलगर न समझ कर एक को दूसरे से निकला बतलाते हैं कोल्बूक ने गौतम बुद्ध को वर्द्धमान महावीर का चेला समझा क्योंकि महावीर का एक चेला इन्द्रभूति था कि जिस को गोतम स्वामी और निरा गौतम के नाम से भी पुकारते हैं प्रिंसिप और टामस इन दोनों की भी यही राय है लेकिन बेबर कहता है कि ऐसा नहीं होसक्का क्योंकि इन्द्रभूति ब्राह्मण था और गौतम बुद्ध क्षत्री उसका गोत्र गौतम होने से वह बुद्ध नहीं होसकता अगर इन्द्रभूति वर्द्धमान महावीर का मत छोड़कर दूसरा मत अंगीकार करता तो जैन सूत्र कभी उसको अच्छा न कहते उसकी पूरी बुराई लिखते क्योंकि सूत्र साफ़ कहते हैं कि महावीर के भानजे जमालिने मतमें पहला भेद डाला और महावीर के दूसरे चेले गोसाले मक्खलि पुत्र का भी ठट्ठा किया है यह ज़ाहिरा पाली सूत्र का मक्खलि गोसाला है कि जो बुद्ध के छः अनुमती आचार्यवादियों में से एक था ॥
विलसन जैनियों को बौद्धों की एक शाखा बतलाता है और उस को दसवींसदी में यहां बौद्धों के
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(३)
नाश होनेपर निकला समझता है वेवर जैन को इस से पुराना जानता है लेकिन बौद्धों को उस से भी आगे लासन वेबर का साथी है बिलसन के अनुसार यह कहा जासक्ताहै कि जैन सूत्र महावीर को केवल विहार का रहनेवालाही नहीं बतलाते कि जहां बुद्ध रहा और उपदेश दिया बल्कि बुद्धका सहकाली और उन्हीं राजाओं की सहाय में उसे लिखते हैं जो बुद्ध के सहकाली थे अगर्चि श्रेणिक और कूणिक या कोणिक वह नहीं हैं जिनका नाम अक्सर बौद्ध ग्रन्थोंमें पाया जाता है तो भी श्रेण्य या श्रेणिक बिम्बिसार का विरुद मालूम होता है और उस के बेटे कुणिक का नाम औपपात्तिक सूत्र में बिम्बिसार पुत्र लिखा है हेमचन्द्र बम्भसार लिखता है यह बिम्बिसार का बेटा अजातशत्रु मालूम होता है क्योंकि जैन और बौद्ध दोनों उन दोनों को लिखते हैं कि अपने पाप को मारडाला था कूणिक का बेटा उदायिन जिसने जैनियों के मुताबिक पाटलिपुत्र बसाया था वही उदयि अजातशत्रु का बेटा है जिसको बौद्ध पाटलिपुत्र का बसानेवाला मानते हैं इस में किसी तरह का सं. देह नहीं कि बुद्धके सहकाली बिम्बिसार और मजा. तशत्रु श्रेणिक और कुणिक के नाम से जैन अंगों में महावीर के सहकाली लिखे हैं इन से छोटों पर भी यह बात ठीक ठहरती है जैसे गोसाल मंखलिय
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( ४ )
मक्खलि मंखलि या मक्खलि का बेटा बिम्बिसार या विभिसार और लिच्छवि या लेच्छई राजा विलसन के मुवाफिक यह दलील ठहरती है कि शाक्यसिंह और वर्द्धमान के लकब और नाम वही बुद्ध जिन और महावीर दोनों दर्जकरते हैं और स्त्री दोनों की यशोदा लिखी है लेकिन इसके सिवाय और कोई बात जो बुद्ध के लिये लिखीगई है वर्द्धमान के सुवाफ़िक नहीं पड़ती है मसलन दोनों के रिश्तादारों के नाम और जन्मभूमि चेले उमर और उनके वाक़िआत और दोनों के चाल चलन जहांतक कि वे उन के उपदेश से मालूम होते हैं बिल्कुल जुदा २ हैं निदान महाबीर और बुद्ध दो आदमी थे परन्तु एकही समय में और इसीलिये दोनों का मत एकसा मालूम होता है क्योंकि दोनों की जड़ एक थी और दोनों ब्राह्मयों के बख़िलाफ़ कि जैसी उस समय के लोगों की तबीअत ही होगई थी क्योंकि सामन्नफलसूत्र में छओं वादियों का हाल पढ़ने से जो बुद्ध के समयमें थे ज़ाहिर होता है कि सब नये नये मत निकालना चाहते थे. बुद्ध बढ़गया तो क्या अचरज है कि महावीर का सत भी जड़ पकड़ गया अब हमको उनकी भी सुननी चाहिये जो बौद्ध को जैन से पहले मानते हैं वह कहते हैं कि जैनियों में जात्तिभेद है अर्थात् ब्राहाण का बौद्धों को निकालने लगे बौद्ध जाति भेद
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मानकर जेनी होगये पर यह वाहियात है जैनियों में दोही भेद हैं साधु (यति) और श्रावक और अगर । वह जातिभेद मानते हैं तो लंका के बौद्ध भी मानते हैं इस्से मत से कुछ इलाका नहीं यह तो आपस का ब्यौहार है यहबात भी कि बौद्धों की पाली भाषा जैनियों की प्राकृत से पुरानी है लिहाज़ के लाइक नहीं क्योंकि जैनियों के सूत्र जैसे अब हैं महावीर के निर्वाण से प्रायः एक हज़ार बरस पीछे लिखेगये इस अर्से में ज़रूर बोली बदली होगी सिवाय इसके जैनियों के १४ पूर्व नाश होगये ॥
जैनियों के शास्त्र से साबित है कि महावीर बिम्बिसार और अजातशत्रु के समय में थे सूत्रों में
जैन साधुओं को निग्रंथ और साध्विओं को निग्रंथी लिखा है बराहमिहिर और हेमचंद्र उनको निग्रंथ लिखते हैं शंकर और आनंदगिरि इत्यादि और २ लिखनेवाले उसके बदल उनको विबसन और मुक्तांवर के नाम से लिखते हैं अशोक के शिलास्तंभों पर बौद्ध श्रमणों से जुदा साधुओं को निगंठ कहा है कि जिसको डाक्टर बुहलर जैनियों का निग्रंथ समझता है बौद्धों के पीटकों में अक्सर निगंठों को बुद्ध और बौद्धों का वादी लिखा है निदान इन बातों से साबित होताहै कि जैनी और बौद्ध बराबर के मत वाले थे और आरंभही से इस बगवरी का प्रमाण
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उनके कई पुराने इतिहासों से हाथ लगता है जैसे बौद्ध लोग साफ़ कहते हैं कि अजातशत्रु ने अपने बापको मारडाला और वह बौद्ध होनेसे पहले बहुत बद और ख़राब था जैनी लोग कूणिक अर्थात् उसी अजातशत्रु को जानी बूझी पितृहत्या के दाग से बचाने की कोशिश करते हैं क्योंकि निरयावलि सू. त्र के अनुसार कुणिक ने अपने बापको अपने लिये अन्याई समझ के कैद कर दिया था परंतु जब अपनी मा से सुना कि उसका बाप तो उसे सदा प्यार करता रहा है और कोई बात ऐसी नहीं की कि जिस से कैद के योग्य हो कुणिक अपनी माकी बात मान के एक कुठार लेके अपने बाप की बेड़ियां काटने को चला उसके बाप श्रेणिक अर्थात् बिम्बिसार ने यह समझके कि कुठार से मुझे मारने को आता है उसे इस पाप से बचाने के लिये अपने तई आप मारडाला अर्थात् आत्मघात किया कूणिक बहुत पछताया और बाप का मरा देख के बड़ा दुखा हुआ इस से मालूम होता है कि अजातशत्रु ने बौद्धों
को मदद देने से पहले जैनियों पर कृपादृष्टि की थी॥ ___ मथुरा में कंकली टीले से जेनरल कनिंघम ने एक नंगी खड़ी मूरत निकाली है उस पर खुदाहुआ है “नमो अर्हत महावीर देवनास" इस से ज़ाहिर है कि यहां महावीर से मुराद वर्द्धमान है बुद्ध नहीं
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( ७ )
और उस मूरत पर संवत्सर ९८ खुदा है और उसी जगह से निकले हुए दूसरे पत्थरों पर हविश्क और कनिश्क के नाम रहने से साबित है कि वह विक्रमही का संवत्सर है सिवाय इसके बौद्धों के शास्त्रों में जैन मत स्थापन करनेवाले अथवा उसे दुरुस्त करनेवाले का चरचा हैं कुछ जैनियों के नाम से नहीं किन्तु निगंठनाथ या निगंठनात पुत्त के नाम से निगंठ तो जैनी साधुओं का नाम मालूम ही है नातपुत्त हम नायपुत्त जो कल्पसूत्र और उत्तराध्ययन सूत्र में महावीर का विरुद लिखा है समझते हैं नयपाल के बौद्ध पुस्तकों में निगंठनाथ को ज्ञाति का पुत्र लिखा है और जैन लोग महावीर को ज्ञात पुत्र कहते हैं हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व का यह श्लोक है "कल्याणपादपरमं श्रुतगङ्गीहिमाचलम् । विश्वां भोजरविं देवं वन्दे श्रीज्ञातनन्दनम् ॥, महावीर को ज्ञातनन्दन इसवास्ते कहा कि कल्पसूत्र में उनके बाप को ज्ञात चत्रिय लिखा है सामन्नफल सूत्र में निगंठनाथ पुत्र को अग्नि वैश्यायन लिखा है यह बौद्धों की भूल मालूम होती है उन्होंने शायद महावीर को उस के मुख्य शिख्य सुधर्मा से मिलाकर एक कर दिया क्योंकि सुधर्मा अग्नि वैश्यायन था अफ़सोस सामन्नफल सूत्र में जहां निगंठनात पुत का मत वर्णन किया है शाका और संवत् नहीं लिखा
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तो भी उस में कोई बात ऐसी नहीं है कि जिस से निगंठनात पुत्त और महावीर दोनों एक न होसकें आत्मावतार और वैश्यन्तर इत्यादि बौद्ध पुस्तकों में लिखाहै कि अपने पहले शिष्य उपालि से कि जो बौद्ध होगया था लड़कर निगंठनात पावा में मरे कल्पसूत्र महावीर का निर्वाण पावा में बतलाता है और जैन जती निगंठ कहलाते थे पस इसमें कुछ संदेह नहीं कि निगंठनाथसे मतलब महावीरहीसे है ॥
सिवाय इसके इस बात का कि बुद्ध और महा. वीर दोनों जुदा जुदा थे पर एकही समय में जैनकी तारीखों से पक्का पता लग जाता है बुद्ध का निर्वाण सन् ईसवी से ४७७ बरस पहले हुआ और महावीर का निर्वाणस्वेताम्बरी जैनियों के कहने बमूजिब विक्रमके संवत्से ४७० बरस पहले और दिगम्बरियों के बमुजिब ६०५ बरस पहले हुआ यह १३५ बरस का फर्क जो दोनों आमनायवालों के बीच में पड़ा है विक्रम संवत् और शालिवाहनकेशाके का है विक्रम के संवत् से ४७० बरस पहले निर्वाण हुआ यह स्वे. ताम्बरियों की बहुत पुस्तकों में लिखा है सब से पुराना प्रमाण वह है जो मेरुतुंगके विचार श्रेणी की जड़ है और निर्वाण का संवत् राजाओं के काल से निर्णय किया है।
"जंस्यणि काल गओ अरिहा तित्थं करो महावी
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( ९ )
रो तं रयणि अवंति वई अहिसितो पालगोराया ॥ १ ॥ सट्टी पालग रण्णोपणवरण सयं तु होइनं दाण असयं मुरियाणं तीसं चित्र समित्तस्स ॥ २ ॥ वलमित्त भानुमित्ता सट्टीवारिसाणि चत्तनहवहणे तहगद्दाभिल्ललारज्जं तेरसवरिसा सगस्सचौ ॥ ३ ॥,, अर्थात् पालक अवन्ती के राजा का उस रात को राज्याभिषेक हुआ कि जिस रात को अर्हत तीर्थकर महावीर का निर्वाण हुआ ॥ १ ॥ साठ बरस राजा पालक के लेकिन १५५ बरस नन्दों के १०८ मौर्यो के और ३० पृसमित्त अर्थात् पुष्पमित्र के ॥ २ ॥ ६० बरस बलमित्र और भानुमित्र ने राज किया ४० नभोवाहन ने १३ बरस इसी तरह गर्दभिल्ल का सज रहा और शाका ४ है ॥ ३ ॥ यह श्लोक बहुत पोथियों में लिखे हैं और पुराने जैनियों ने इसी के अनुसार महावीर और विक्रम के संवत् ठहराये हैं पर इन की असल नहीं मालूम होती ४ शाके का १३ गर्दभिल्ल का ४० नभोवाहन का ६० वलमित्र और भानुमित्र का ३० पुष्पमित्र का और १०८ मौर्यो का जोड़ने से २५५ होता है और उस में विक्रम के संवत् का ५७ बरस मिलाने से चन्द्रगुप्त का अभिषेक ३१२ बरस सन् ईसवी से पहले ठहरता है और यूनानियों के संवत् से इस संवत के पास पास मिलजाने से साबित होता है कि विक्रम
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(१०) जो तीसरे श्लोक में लिखा है वही विक्रम है जिसने सन् ईसवी से ५७ बरस पहले संवत् चलाया और सन् ईसवी ७८ का शाका चलानेवाला शालिवाहन ही है ६० बरस पालक के राज के और १०५ नवनन्दी के अथात् २१५ बरस चंद्रगुप्त के अभिषेक में अर्थात् सन् ईसवी से पहले ३१२ में मिलाने से महावीर का निर्वाण सन् ईसवी से ५२७ बरस पहले ठहरता है सिंहल अर्थात् लंकावाले बुद्ध का निर्वाण सन् ईसवी से ५४३ बरस पहले मानते हैं पस कुल १६ बरस का फर्क रह जाता है।
हेमचन्द्र अपने परिशिष्टापर्व में लिखता है "एवं च श्रीमहावीरे मुक्ने वर्ष शते गते। पंच पंचाशदधिके चंद्रगुप्तो भवन्नृपः॥१॥” इससे यह बात निकलती है कि महावीर के निर्वाण से १५५ बरस पीछे चंद्रगुप्त का अभिषेक हुआ हेमचंद्र पालक के राज का ६० बरसें नहीं लेता इस कारन महावीर का निर्वाण हेमवेद्र के अनुसार ४६७ बरस सन् ईसवी से पहले पड़ता है और सिंहलवालों की भूल जो अजे सही की गई है उस के अनुसार बुद्ध का निर्वाण भी ४७७ बरस सन् ईसवी से पहले पड़ता है कि जिस से कुल १० बरस का फर्क रह जाता है और यही शुद्धतर 'मालूम होता है । इति
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PARAN
निवेदन (अर्थात् दयानंदीमत का खंडन)
राजा शिवप्रसाद सितारैहिन्द इलाहाबाद और कलकत्ते की यूनिव
र्सिटी के फेलो का सज्जन आर्य पुरुषों से NIVEDAN
BY
RAJA SIVA PRASAD, C. Sal., FELLOW OF THE UNIVERSITIES OF
ALLAHABAD AND CALCUTTA.
लखनऊ मुन्शी नवलकिशोर (नी,भाई,ई) के छापखानेमें छापा गया
नवम्बर सन् १८९७६०
2nderlition 600 copier. ' Price or cal:: Anna S
दूमरीबार ६०० पुस्तके पोल प्रतिपुस्तक )
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निवेदन
मैंने श्रीमत्स्वामि दयानन्दसरस्वतीजीका जो कुछ चर्चा देश देशान्तरों में सुना मन में आया कि जैसे किसी समय में विष्णु भगवान् ने वेदोद्धार किया बतलाते हैं कदाचित् फिर भी इस कलिकाल में उसी लिये दयानन्द जी ने अवतार लियाहो देव संयोग से एक दिन में किसी मेम (१) और साहिव के देखने को गया था तो वहां उस बारा में पहले दयानन्दजी महाराजही का दर्शन हुआ मैंने जिज्ञासा की कुछ उपदेश चाहा प्रश्नोत्तर पूरे नहीं भये साहिब आगये और और बातें होनेलगी मैं घर आया पर जितना महाराजजी के मुखारविन्द से सुना था बड़े सन्देहका कारण हुआ निवृत्यर्थ पत्रलिखा महाराज जी ने कृपा करके उत्तर दिया उसे देख मेरा सन्देह और भी बढ़ा महाराजजीके लिखने अनुसार ऋग्वे. दादि भाष्य भूमिका मँगा के पृष्ठ ६ से ८८ तक देखा विचित्र लीला दिखाई दी आधे आधे बचन जो अपने अनुकल पाये ग्रहण किये हैं और शेपार्धका जो प्रतिकूल पाये परित्याग उन आधे अनुकूल में भी जो कोई शब्द अपने भावसे विरुद्ध देखे उनके अर्थ पलटदिये मनमाने लगालिये घबराया कि छापेकी अशु(१) जगन् विख्यान मादम ब्लवनम्की और कनन पोल्काट ।।
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द्धताहै वा मेरी समझ और आंखों का दोष फिर पत्र लिखा उसका जो उत्तर पाया तो जाट और खाट और मुग़ल और कोल्हकी कहावत याद आयी श्रीमत्पण्डितवर वालशास्त्री जी तो बाहर गये हैं परम पूजनीय जगतगरु श्री स्वामी विशद्धानन्दजी के चरणों में पहुंचा पत्र और उत्तरों को देखकर बहुत हँसे और पिछले उत्तर पर जिसमें इन दोनों महात्माओं का नाम है कुछ लिखवा भी दिया अब मैं महा विकट विस्मयावर्त में पड़ाहूं न तो यह कह सक्काहूं कि स्वामी दयानन्दजी संस्कृत शब्दों का अर्थ नहीं समझते और न यह अपने मन में लासक्ताहूं कि आपतो समझते हैं दूसरों के बहकाने और भुलाने को यह अर्थाभास रचाहै क्योंकि ऐसा काम सत्पुरुषों का नहीं है जो हो मैंने अपने पत्र और स्वामी दयानन्द जीके उत्तरों का इसमें छपवा देना बहुत उचित समझा कि जो सज्जन आर्य लोग उन की बनायी ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका देखते हैं अपनी बुद्धि को कुछ काममें लावें और दूसरे पण्डितोंसे भी सम्मति लेवें ऐसा न हो कि अंधेनैव नीयमाना यथान्धाःके सदृश केवल दयानन्दजीके भाष्य और भूमिका ही की लाठी थामे किसी अथाह गढ़े वा नरककुण्ड में जा गिरें क्योंकि किसी पारसी कवि ने कहा है
بنشینم گناهست
اگر بینم که نا بینا و چاه ست وگر خام ش
इत्यलम् किमधिकम् ॥
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मेरा पहलापत्र।
काशी सम्बत् १९३७ चैत्र शुक्ला ११ श्री ५ मत्स्वामि दयानन्द सरस्वतीभ्यो नमोनमः ___ जब दर्शन पाया कुछ बात हुई अधूरी रह गयी इच्छा थी फिर दर्शन करूं बन नहीं पड़ा अब सुना आप बाहर पधारने वाले हैं इसलिये उस दिन के अपनेप्रश्न और आपके उत्तर अपने स्मरणानुसार नीचे लिखताहूं यदि भूल हो आप सुधार दें आगे भी कृपा करके इसी पत्र पर कुछ उत्तर लिख भेजें मेरा प्रश्न स्वामीजी महाराजकाउत्तर
१ हम केवल वेदकी संहिता मात्र मानते हैं एक ईशावास्य उपनिषद संहिता है
और सब उपनिषद ब्राह्मण हैं ब्राह्मण हम कोई नहीं मानते सिवाय संहिता के
हम और कुछ नहीं मानते । २ यदि वादी कहे किं २ संहिता स्वयं प्रकाश है आप वेद के ब्राह्मण नहीं अनुभव सिद्ध है। मानते तो हम वेद की संहिता नहीं मानते तो आप संहिता के मण्डन और
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( ४ ) ब्राह्मण के खंडन का ऐसा प्रमाण दीजिये जिस से ब्राह्मण का मंडन और संहिता का खंडन न होसके वादी को आप अपना प्रतिध्वनि समझिये प्रमाण चाहे ४ मानिये चाहे ६ चाहे ८ चाहे सहस्रों सिवाय शाब्दके और सब का सहारा प्रत्यक्षहै सो इसमें प्रत्यक्ष होसकेगा नहीं और शाब्द जोआपने ब्राह्मणही को नहीं माना तो दूसरा कहां से लाइयेगा केवल आपके कहने से कोई कुछ क्यों मान लेगा?
३ वादी कहता है कि ब्राह्मण स्वयं प्रकाश और . अनुभव सिद्ध हैं ?
आपका दास शिवप्रसाद
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( ५ )
स्वामीदयानन्दजीकाउत्तर
॥ ओ३म् ॥ सम्वत् १६३७ चैत शुदी १२ गुरुवार । राजा शिवप्रशादजी आनन्दित रहो आप का चैत शुक्ला ११ बुधवार का लिखा पत्र मेरे पास आया देखि के आप का अभिप्राय विदित हुआ उस दिन आप से और मुझ से परस्पर जो २ बातें हुई थीं तब आप को अवकाश कम होने से मैं न पूरी बात कह सका और न आप पूरी बात सुन सके क्योंकि आप उन साहबों से मिलने को आये थे आप का वही मुख्य प्रयोजन था पश्चात् मेरा और आप का कभी समागमन हुआ जो कि मेरी और आप की बातें उस विषय में परस्पर होतीं अब मैं आठ दश दिनों में पश्चिमको जाने वाला हूं इतने समय में जो आप को अवकाश होसके तो मुझ से मिलिये फिर भी बात होसकी है और में भी आप को मिलता परन्तु अब मुझ को अवकाश कुछ भी नहीं है इस से में आप से नहीं मिलि सकूंगा क्योंकि जैसा सन्मुख में परस्पर बातें होकर शीघ्र सिद्धान्त होसका है वैसा लेख से नहीं इसमें बहुत काल की अपेक्षा है । मेरा उत्तर
१ वैदिक
आपका प्रश्न
१ आप का मत क्या है
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( ६ ) २ आप वेद किसको २ संहिताओं को मानते हैं
३ क्या उपनिषदों को ३ मैं वेदों में एक ईशावेद नहीं मानते वास्य को छोड़के अन्य उ
पनिषदों को नहीं मानता किन्तु अन्य सब उपनिपद ब्राह्मण ग्रन्थों में हैं वे ईश्व
रोक्त नहीं हैं ४ क्या आप ब्राह्मण ४ नहीं क्योंकि जो ईपुस्तकोंको वेदनहीं मानते श्वरोक्त है वही वेद होताहै
जीवोक्त नहीं जितनेब्राह्मण ग्रन्थ हैं वै सब ऋषि मुनि प्रणीत और संहिता ईश्वर प्रणीत है जैसा ईश्वरके सर्वज्ञ होनेसे तदुक्त निभ्रान्त सत्य और मतके साथ स्वीकार करने के योग्य होताहै वैसा जीवोक नहीं होसक्ता क्योंकि वे सर्वज्ञ नहीं परन्तु जो २ वेदानुकूल ब्राह्मण ग्रन्थ हैं उनको मैं मानता और विरुद्धार्थों को नहीं मानता
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हूं वेद स्वतः प्रमाण और ब्राह्मण परतः प्रमाण हैं इससे जैसे वेदविरुद्ध ब्राह्मण ग्रन्थोंका त्यागहोता है वैसे ब्राह्मण ग्रन्थों से वि. रुद्धार्थ होनेपर भी वेदोंका परित्याग कभी नहीं होसका क्योंकि वेद सर्वथा स
बको माननीयही हैं अब रहगया यह विचार कि जैसा संहिताही को ईश्वररोक्न निभ्रान्त सत्य वेद मानना होता है वैसा ब्राह्मण ग्रन्थों को नहीं इसका उत्तर मेरी वनाई ऋ. ग्वेदादि भाष्य भूमिकाके नवमें पृष्ठ से ६ लेके घर अटलासी के पष्ट तक वेदोत्पत्ति. वेदों का नित्यत्व. और वेद संज्ञाविचार विषयों को देख लीजिये वहां मैं जिसको जैसा मानता हूं सब लिखरक्खाहै इसी को बिचारपूर्वक देखनेसे सब निश्चय आपको होगा कि इन विषयों में जैता मेरा सिद्धान्त है वैसाही जानि लीजियेगा।
(दयानन्दसरस्वती)
काशी।
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( ८ )
मेरा दूसरा पत्र श्री काशी वाराणसी सम्वत् १९३७ चैत्रशुक्ला पूर्णिमा श्री ५ मत्स्वामि दयानन्द सरस्वतीभ्यो नमो नमः
आप का कृपापत्र चैत्र शुक्ला १२ का पा अत्यन्त कृतार्थ हुआ ग्रीष्म का प्रचंड उत्ताप अवकाश नहीं देता कि आपके दर्शनानन्द से मन ठंढा करूं तब तक आप कृपा करके पत्र द्वारा मेरे मनको सन्देह के ताप से बचावें ॥
आपने लिखा "ब्राह्मण ग्रन्थ+सब ऋषि मुनि प्रणीत और संहिता ईश्वर प्रणीतहै” वादीकहताहै जो "संहिता ईश्वर प्रणीतहै"तो ब्राह्मणभी ईश्वर प्रणीतहै और जो "ब्राह्मण ग्रन्थ+सब ऋषि मुनि प्रणीत" है तो संहिता भी ऋषि मुनि प्रणीत है आपने लिखा "वेद (संहिता) स्वतः प्रमाण और ब्राह्मण परतः प्रमाण हैं" वादी कहताहै जो ऐसा तो बाह्मणही स्वतः प्रमाण है आपका संहिता परतः प्रमाण होगा (२) आपने प्रमाण ऐसा कोई दिया नहीं (३) जिस्से जिज्ञासू की तुष्टि
(२) मैं अपने पहले पत्रमें लिखचुका हूं कि “वादी को आप अपना प्रतिध्वनि समझिये" ॥
(३) स्वामीजी महाराज प्रमाण कुछ भी नहीं देते जो आप अपने मनमानी कह देते हैं उसी को चाहते हैं कि लोग विधाता का लेख जानें ।।
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( ९ )
प्रश्न की पूर्ति और सिद्धान्त की आशा हो आपने लिखा कि " मेरी बनायी हुई ऋग्वेदादि भाष्य भूमि - का के नवमें पृष्ठ से ( ६ लेके ) अट्ठासीके पृष्ठ तक वेदोत्पत्ति वेदोंका नित्यत्व और वेद संज्ञा विचौर विषयों को देख लीजिये" "निश्चय + होगा" सो महाराज "निश्चय" के पलटे में तो और भी भ्रान्ति में पड़गया मुझे तो इतनाही प्रमाण चाहिये कि आपने संहिता को " माननीय" मानकर ब्राह्मण का क्यों " परित्याग" किया और वादी तो संहिता जैसा ब्राह्मणको वेद मान जो आपने "वेद" के अनुकूल लिखा अपने अनुकूल और जो कुछ ब्राह्मण के प्रतिकूल लिखा उसे संहिता के भी प्रतिकूल समझता है तो भी मैंने आपकी "भाप्य भूमिका" मँगा के देखी पर उसमें क्या देखता हूं कि पहलेही ( पृष्ठ ह पंक्ति = ) लिखा है " तस्माद्यज्ञात् + + + अजायत” अर्थात् उस यज्ञसे (वेद) उत्पन्न हुए पृष्ठ १० पां २६ में आप शतपथ आदि ब्राह्मणका प्रमाण देकर यह सिद्ध करते हैं कि यज्ञ विष्णु और विष्णु परमेश्वर ( ४ ) और फिर पृष्ठ ११ पंक्ति १२ में आप यह लिखतेहैं कि " याज्ञवल्क्य महाविद्वान् जो महर्षि हुए हैं अपनी पंडिता मैत्रेयी स्त्री को उपदेश करते हैं
( 8 ) कैसा आश्चर्य है कि भापही तो संहिताको “स्वतः प्रमाण” और त्राह्मण को "परतः ममाण" लिखते हैं और फिर आपही
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( १० ) कि हे मैत्रेयि जो आकाशादि से भी बड़ा सर्व व्यापक परमेश्वर है उससे ही ऋक् यजुः साम और अथर्व ये चारों वेद उत्पन्न हुए हैं" परन्तु आपने याज्ञवल्क्यजी का यह वाक्य आधाही अपना उपयोगी समझ क्यों लिखा क्या इसीलिये कि शेषार्द्ध वादी का उपयोगी है? वाक्य तो यही है:--एवंवा अरेऽस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो ऽथर्वागिरस इतिहासः पुराण वि. या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानीष्टगं हुतमाशितं पायितमयंच लोकः परश्च लोकः सर्वाणिच भूतान्यस्यैवै तौनि सर्वाणि निश्वसितानि अर्थात् अरी मैत्रेयि इस महाभूत के यह
ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद अथर्ववेद इतिहास पुराण विद्या उपनिषद् श्लोक सूत्र अनुव्याख्या व्याख्या ; इष्ट हुत खाया पीया यह लोक परलोक सब भूत
सब निश्वसित हैं (५) मुझे इस समय और कुछ
• मंहिता के "ईश्वरमणीत" होने के लिये "परतःप्रमाण" शतपथ
ब्राह्मा का प्रमाण देते हैं जैसे किसी मुद्दई का गवाह गवाही दे कि मुद्दई का तमस्सुक सहा है पर मुद्दालेह की रसीद भी सच्ची है रुपमा चुक. गया और गुदई कड़े कि. गवाह झूठा है. भरोसे के योग्य नहीं परन्तु अपना-तपस्सुक दीक होने के प्रमाण में उसी
ग्रवार को प्रामे लाचे प्रमालिस प्रमाण (सवूत ) मांगे ...तो कहे मैं कहता न हूं. मेरादाबा.साहे ..
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( ११ ) . तर्क वितर्क आवश्यक नहीं इतना कहना अलम् कि आपके इस प्रमाण से तो कि जो बृहदारण्यक ब्राह्मण का है जैसे वेद ईश्वर प्रणीत हैं वैसे ही उपनिषदादि सब ईश्वर प्रणीत हैं यदि इसका अर्थ यह कीजियेगा कि उपनिषद् जीव प्रणीत है तो आपका चारों वेद भी वैसाही जीव प्रणीत ठहर जायगा आपने संहिता स्वतः प्रमाण और ब्राह्मण को परतः प्रमाण लिखा और फिर संहिताके स्वतः प्रमाण सिद्ध करने को उन्हीं परतः प्रमाण ब्राह्मणों का आप प्रमाण लातेहैं सो इस व्याघात से छुटने के लिये यदि कुछ उत्तर हो आप रुपा करके शीघ्र लिख भेजें तब तक में आप की भाष्य भूमिका आगे नहीं देखंगा पृष्ठों को कुछ उलट पुलट किया तो विचित्र लीला दिखाई देती है आप पृष्ठ ८१ पनि ३ में लिखते हैं “कात्यायन ऋपि ने कहा है कि मंत्र और बाह्मण ग्रन्थों का नाम वेद है” पृष्ठ ५२ में लि. खतेहैं प्रमाण ८ हैं और फिर पृष्ठ ५३ में लिखते हैं
(५)यह तो बड़ी हँसीकी बात है कि स्वामीजी महाराजने जिस वचन को संहिता "ईश्वर प्रणीत" होने के लिये प्रमाण दिया है उसमें से चारों वेद का नाम तो लेलिया और वेदों के आगे जो उपनिषदादि का नाम लिखा है उसे सम्पूर्ण छोड़ दिया मानो यह समझा कि हमारे सिवाय किसी ने वृहदारण्यक उपनिपद् देखाही नहीं है।
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( १२ ) चौथा शाब्द प्रमाण "प्राप्तों के उपदेश” पांचवां ऐतिह्य "सत्यवादी विद्वानों के कहे वा लिखे उपदेश” तो आपके निकट कात्यायन ऋषि "प्राप्त" और "सत्यवादी विद्वान्” नहीं थे (६) पृष्ठ ८२ में आप लिखते हैं कि बाह्मण में जमदाग्न कश्यप इत्यादि जो लिखे हैं सो देहधारी हैं अतएव वह वेद 'नहीं और संहिता में शतपथ बाह्मण (!) के अनुसार 'जमदग्नि का अर्थ चक्षु और कश्यप का अर्थ प्राण है अतएव वेदहै (!!)फिर आप उसी पृष्ठ में लिखते हैं कि "ब्राह्मणानीतिहासान्पुराणानिकल्पान् गाथानाराशंसीः” (७) “इस वचन में ब्राह्मणानिसंज्ञी और इतिहासादि संज्ञा है” तो इसयुक्तिसे बृहदारण्यक का वचन जो मैंने ऊपर लिखा है उसमें भी क्या उपनिषद संज्ञी और इतिहास पुराणादि संज्ञाहै अथवा ऋग्वेदादि क्रमानुसार उनका संज्ञी वा संज्ञा है ? पृष्ट ८८ पंकि १२ में आप लिखते हैं कि “बाह्मण+++
(६) भाई ! आपही कहो कि कात्यायन ऋषिजी को झूठबोलने का क्या प्रयोजन था क्या कोई उनका भी मुकदमा किसी अंगरेजी अदालत वा कचहरी में पेश था भला वह झूट लिखते तो समको महकाली लोग उसे कब चलने देते पर जो हो दयानन्दजी लेखात्यायवजी को झूठा बनाया तो में पूंछताहूं कि जब कात्यायनजी
झडे छहरे तो अब दयानन्दनी की बातयोंही कौन मान लेगा? 10)इस का अर्थ बहुत स मर्थन ब्राह्मण (और ) इतिहास (और) पुराण (और)
क र ) गाथा ( और ) नाराशंसी
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( १३ ) वेदोंके अनुकूल होनेसे प्रमाण के योग्य तो हैं" यदि आप इतना और मान लें कि सम्पूर्ण ब्राह्मणों का प्रमाण संहिता के प्रमाण के तुल्य है अथवा पृष्ठ ४२ पंक्रि ७ में आप लिखतेहैं "तत्रापरा ऋग्वेदो यजु. र्वेदः सामवेदो ऽथर्ववेद शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते” इसका अर्थ सीधा सीधा यह मान लेवें कि आप के चारों वेद और उनके छों अंग "अपरा” हैं जो “परा" उससे अक्षर में अधिगमन होताहै अपना फिरवटका अर्थ वा अर्थाभास छोड़दें (८) तो बड़ा अनुग्रह हो मेरा सारा परिश्रम सफल होजावे और आपके दर्शन का उत्साह बढ़े किमपिकमित्यलम् । आप का दास शिवप्रसाद परन्तु स्वामीजी महाराज ने पहले ( और ) की जगह ( अर्थात् ) कल्पना कर लिया अर्थात् ब्राह्मण अर्थात् इतिहास पुराणादि !
(८) स्वामीजी महाराज अपनी भाप्य भूमिका में पृष्ठ ४२ पंक्ति ७ , इस के अर्थ यों लिखते हैं "(तत्रापरा० ) वेदों में दो विद्या हैं एक अपरा दूसरी परा इन में से अपरा यह है कि जिससे पृथिवी और तृण से लेके प्रकृति पर्यन्न पदार्थों के गुणों के शान से ठीक ठीक कार्य सिद्ध करना होता है और दूसरी पण कि जिस से सर्वशक्तिमान् ब्रम की यथावत् प्राप्ति होती है यह परा विद्या अपरा विद्यासे अत्यन्त उत्तम है क्योंकि अपगकाही उत्तम फल परा विद्या है" निदान स्वामीजी महाराज ने इतना तो लिखा परन्तु सीधा मर्य वा पाय नहीं लिखा कि चारोवेद ( संहिता ) और उनके छओं अंग अपराहै परा उनके मिवाय अर्थान उपनिषद् है ।
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( १४ ) स्वामी दयानन्दजी का पिछला उत्तर ।।
राजा शिवप्रसादजी आनन्दित रहो आप का पत्र मेरे पास आया देख कर अभिप्राय जान लिया इस से मुझ को निश्चित हुआ कि आप ने वेदों से लेके पर्व मीमांसा (8) पर्यन्त विद्या पुस्तकों के मध्य मेंसे किसी भी पुस्तक के शब्दार्थ सम्बन्धों को जाना नहीं है इसलिये आप को मेरी बनाई भूमिका का अर्थ भी ठीक २ विदित न हुआ जो आप मेरे पास आके समझते तो कुछ समझ सकते परन्त जो आप को अपने प्रश्नों के प्रत्युत्तर सुननेकी इच्छा हो तो स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती वा बालशास्त्री जी को खड़ा करके (१०) सुनियेगा तोभी आप कुछ २ समझलेंगे क्योंकि वे आपको समझावेंगे तो कुछ आशा है समझ जायँगे भला विचार तो कीजिये कि आप उन पुस्तकों के पढ़े विना वेद और ब्राह्मण पुस्तकों का
(९) जान पड़ताहै कि स्वामीजी महाराजने पूर्वमीमांसाही तक देखा है उत्तर मीमांसा नहीं देखा नहीं तो ऐसा न लिखते ।।
(१०) तो जहां जा जिसके जिसके पास भाष्य भूमिका जाता है भपके पास स्वामी विशुद्धानन्दजी और पंडित बालशास्त्रीजी को जाना चाहिये अथवा उनसबको समझने के लिये दयानन्दजी के पापाना चाहिये ।। . ..
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( १५ ) कैसा आपस में संबन्ध क्या २ उनमें हैं और स्वतः प्रमाण तथा ईश्वरोक्त वेद और परतः प्रमाण और ऋपि मुनि कृत ब्राह्मण पुस्तकहैं इन हेतुओं से क्या २ सिद्धान्त सिद्ध होते और ऐसे हुए विना क्या २ हानि होती है इन विद्यारहस्यकी बातों को जाने विना आप कभी नहीं समझ सक्ने ॥ सं० १६३७ मि. वै० ब० सप्तमी शनिवार (दयानन्दसरस्वती)
(स्वामी विशुद्धानन्दजी का लिखवाया ) राजा साहिब के प्रश्नों का उत्तर दयानन्द से नहीं बना !॥
इति ॥
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दूसरा वा पिछला
निवेदन (अब इस विषय में आगे कुछ नहीं लिखा जायगा )
एक पुस्तक भ्रमोच्छेदन नाम मेरे “निवेदन के उत्तर में" श्रीमत्स्वामि दयानन्द सरस्वतीजी का निमर्माण किया हुआ आया समझा कि अब अवश्य स्वामी जी महाराज ने यथा नाम तथा गुणः दया करके मेरे प्रश्न का उत्तर भेजा होगा बड़े उत्साह से खोल के देखा तो शिवप्रसाद कम समझ, आलस्यी, उसको संस्कृत विद्या में शब्दार्थ सम्बन्धों के समझने की सामर्थ्य नहीं, वह अयोग्य, उसकी समझ अति छोटी, वह अविद्वान्, अधर्म कर्मसे युक्त, अनधिकारी, उसके नेत्र फूट गये हैं, उसकी अल्प समझ, वह इवानके समान, जैसी उसकी समझ वैसी किसी छोटे विद्यार्थी की भी नहीं, उसकी उलटी समझ, वह प्रमत्त अर्थात् पागल, उसको वाक्य का बोध नहीं, वह अन्धानां मध्ये काणो राजा, तात्पर्यार्थ ज्ञानशून्य, पक्षपातान्धकार से बिचार शून्य, अशाखवित्, अव्युत्पन्न, व्यर्थ वैतपिटक, अन्धा, उसकी सिय्या आडम्बर युक्त लड़कपनकी बात, वह वादके लक्षण युक्त नहीं उसकी बुद्धि और आँखें अंधकारा
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( १७ ) वृत्त, वह सन्निपाती, वह कोदों देके पढ़ा, वह अविद्यायुक्त, बालक, बधिर, बिचारा संस्कृत विद्या पढ़ाही नहीं, ऐसे ऐसे शब्द और वाक्यों से परिपूर्ण पाया खेदकी बात है क्यों वृथा इतना कागज़ बिगाड़ा में तो आपही अपने को बड़ा बेसमझ बड़ा अविद्वान् बड़ा अधर्मी बड़ा अशास्त्रवित् बड़ा अव्युत्पन्न बड़ा अंधा पहलेसे मानेहुये हूं यदि इनकी जगह राम नाम लिखा होता कदाचित् कुछ पुण्यभी होसकता ( राम राम) मेरे शिरपर जाट खाट और कोल्हू चढ़ाया है (भ्रमोच्छदन पृष्ठ १०) (Thanks ) पर मैं तो पहाड़ का भी बोझ सहसकता हूं हां मुझको छली और कपटी जो लिखा है उसका कारण कुछ समझमें नहीं आया यदि कहेंकि जो जैसाहोताहै वैसाही दूसरोंकोभी समझता है तो ऐसी बात मनमें लाने के भी पापका भागी मैं नहीं हुआ चाहता जो हो मैं तो अपने प्रश्नका उत्तर देखनेको विह्वल था प्रश्न मेरा एकही इतना कि "आपने लिखा 'ब्राह्मण ग्रंथ सब ऋषि मनि प्रणीत
और संहिता ईश्वर प्रणीत है' वादी कहताहै जो 'संहिता ईश्वर प्रणीत है' तो गदाण भी ईश्वर प्रणीत है और जो 'ब्राह्मण ग्रन्थ सब ऋपि मुनि प्रणीत' है तो संहिताभी ऋपि मुनि प्रणीत है आप ने लिखा वेद ( संहिता मात्र ) स्वतः प्रमाण और ब्राह्मण परतः प्रमाण हैं, वादी कहता है जो ऐसा तो वाह्मण
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(१८) ही स्वतः प्रमाण है आप का संहिता परतः प्रमाण होगा ( निवेदन पृष्ठ ८ ) "आप संहिता के मण्डन और बाह्मण के खण्डन का ऐसा प्रमाण दीजिये जिस से बाह्मण का मंडन और संहिता का खण्डन न होसके केवल आप के कहने से कोई कुछ क्यों मान लेगा” (नि० पृष्ठ ५) निदान भ्रमोच्छेदन की बाईसों पृष्ठे बाईस बार उलट डालीं इसके सिवाय उसमें और कुछ उत्तर नहीं पाया कि "देखिये राजाजी की मिथ्या आडम्बर युक्त लड़कपन की बात को जैसे कोई कहे कि जो पृथिवी और सूर्य ईश्वर के बनाये हैं तो घड़ा और दीप भी ईश्वर ने रचे हैं" और “जो सूर्य और दीप स्वतः प्रकाशमान हैं तो घटपटादि भी स्वतः प्रकाशमान हैं” (भ्र० पृष्ठ १२ और १३) भला सूर्य और घड़े की उपमा संहिता और ब्राह्मण में क्योंकर घट सकेगी उधर सूर्य के सामने कोई आध घंटे भी आंख खोल के देखता रहे अंधा नहीं तो चक्षु रोग से अवश्य पीड़ित होवे जेठ की धूप में नंगे शिर बैठे सन्निपाती नहीं तो ज्वरग्रस्त अवश्य होजावे यदि युत्तेजक काच सामने धर दे कपड़ा लत्ताही जल जावे जनम भर उछले कूदे कैसे ही बलून पर चढ़े कभी सूर्य तक न पहुंचे इधर कु. महार से यदि चाक डंडा और कछ मिट्टी लेग्रावे चाहे जितने घड़े आप अपने हाथ बना लेवे और फिर जब
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(१९) चाहे तोड़ डाले संहिता और ब्राह्मण दोनों ग्रन्थ हैं एक से काराज़ पर एक सी सियाही से लिखे हुए वा छपे हुए और एक से कपड़ों में बंधे हुए जब तक बतलाया न जावे जानना भी कठिन कि कौन संहिता है और कौन ब्राह्मण पर हां उस काल से लेकर कि जिससे पहले किसी को कछ विदित नहीं आजतक सब वैदिक हिन्दू अर्थात् जो हिन्दू वेद को मानते हैं संहिता और बाह्मण दोनोंको बराबर माननीय मानते चले आये स्वामीजी महाराज को अपने ही इस न्याय से कि "जो सैकड़ों प्राप्त ऋपियों को छोड़ कर एक ही को प्राप्त मान कर, संतुष्ट रहता है वह कभी विद्वान नहीं कहा जा सका" ( भ्र० पृष्ठ १५ ) ब्राह्मण का परित्याग न करना चाहिये आपस्तम्बादि मुनि प्रणीत सूत्रों के परिभाषा सूत्र में भी “ मंत्र बा. ह्मणयोर्वेद नामधेयम्" ऐसाही लिखा है और स्वामी जी महाराज नो यह कहते हैं कि "क्या आप जैसा कात्यायन को प्राप्त मानते हैं वैसा पाणिनि आदि ऋपियों को प्राप्त नहीं मानते +++ जो उन को भी प्राप्त मानते हो तो मंत्र संहिता ही वेद है उन के इस वचन को मान कर तबिरुद्ध बाह्मण को वेद सं. ज्ञा के प्रतिपादक वचन को क्यों नहीं छोड़ देते" (भ्र० पृष्ठ १५) सा पहल तो स्वामी जी महाराज यह बतलावें कि पाणिनि आदि ऋषियों ने कहां ऐसा
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( २० लिखा है कि "मन्त्र संहिता ही वेद है" ब्राह्मण वेद नहीं है बरन पाणिनि ने तो जहां मन्त्र और ब्राह्मण दोनों के लेने का प्रयोजन देखा स्पष्ट "छंदसि” कहा अर्थात् वेद में अर्थात् मन्त्र और ब्राह्मण दोनों में और जहां केवल मन्त्र वा बाह्मण का देखा “मन्त्रे” वा "बाह्मणे” कहा और जहां मन्त्र और बाह्मण अर्थात् वेद के सिवाय देखा वहां “भाषायाम” कहा भला जैमिनि महर्षि के पूर्व मीमांसा को तो स्वामी जी महाराज मानते हैं उस में इन सूत्रोंका अर्थ क्यों कर लगावेंगे "तच्चोदकेषु मन्त्राख्या" "शेषे बाह्मणशब्दः" (अ०२ पा० १ सू०३३) इस का अर्थ बहुत स्पष्ट है कि वेद का मन्त्रों से अवशिष्ट जो भाग सो ब्राह्मण निदान जब मैंने गौतम और कणाद के तर्क और न्याय से न अपने प्रश्न का प्रामाणिक उत्तर पाया और न स्वामी जी महाराज की वाक्य रचना का उस से कुछ सम्बन्ध देखा डरा कि कहीं स्वामी जी महाराज ने किसी मेम अथवा साहिब से कोई नया तर्क
और न्याय रूस अमरिका अथवा और किसी दूसरी विलायत का न सीख लिया हो फरंगिस्तान के विद्वज्जनमण्डलीभूषण काशिराजस्थापितपाठशाला. ध्यक्ष डाक्टर टीबो साहिब बहादुर को दिखलाया बहुत अचरज में आये और कहने लगे कि हम तो स्वामी जी महाराज को बड़ा पण्डित जानते थे पर
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(??) अब उन के मनुष्य होने में भी संदेह होता है (तब तो भ्रमोच्छेदन को भ्रमोत्पादन कहना चाहिये!) और अंगरेजी में कुछ लिख भी दिया नीचे उस की 7791 Aita 3191 grat
The question at issue between Raja Siraprasad and Dayanand Sarassvari is the authoritativeness of the several parts of what is commonly comprised under the name "l'eda." Daranand Sirassyati rejects the Brahmanas and Upnishads (with one exception) and acknowledges the authority of the Sanhitas only. As this procedure is not in agreement with the religious belief of the Hindus of the present day as well as of past age 6 of which we have records, Dayanand Sarassvati is bound to produce convincing proofs for the validity of the distinction he makes. He mentions that the Sanhitas are
facts while the Brahmanas and Upnisbads are merely "Tai"'; but low does he prove this assertion ? (for as it stands it cannot be called anything but a mere assertion). The assertion of the Sanhitas being Fa:MATUT while the Brabmanas and Upnishads are merely ra:HTUT can likewise not be admitted before it is supported by arguments stronger than those which Dayanand Sarassvati has brought forward up to the present. Raja Sivaprasad is right to ask "why should not both be FA: HTG if one is so ? ” or ngain "why should not boi h beaa:gary if one is so ?" and ibis reasoning could certainly not be employed by any one for prosing that other non-redic books as well are to be considered equal to the Veda ; for tlie Veda alone' [including Brahmanas and Upnishads) enjoss the privilege of having-since immemorial tines-been acknowledged by all Hindus as sacred and revealed books.
With regard to the passage quoted by Dayanand Sarasavat from the Satapatha Brahmans (Brihadarang. aka Upanishad) it must be admitted that the objection of Raja Sivaprasad is well-founded; if one part of the
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( २२ ) passage is authoritative, the other part is so likerise. The aseertion whether the whole passage is a alt or a वाक्य समूह is wholly irrelevant to the point at issue.
l'ayanind Sarassvati has certainly no right to dec. lare the passage from Katyayana--according to which the Veda consists of Mantra and Bralımana-oninterpolaiion. Acting in this way anybody might declare any passage contrary to his pre-conceived opinions an interpolation.
Dayanand Sarassvati rejects the authority of the Brahmanas. How then does he prepare to denl with Brahmana portions of the Taittiriya Sanhita, which in character nowise differ from other Brahmanas, like the Satapatha, Panchavins:, &c. And on the other hand does he reject all the mantras contained in the Taittiriya Brahmana ?
G. THIBAUT. (भाषा ) "राजा शिवप्रसाद औं दयानन्द सरस्वती में जो विवाद उपस्थित है उसका निचोड़ यह है कि "वेद" नाम से प्रसिद्ध ग्रन्थों के कौन भाग प्रमाण और कौन अप्रमाण हैं । दयानन्दसरस्वती सिवाय एक उपनिषद् के बाह्मण औ उपनिषद् ग्रन्थों को छोड़ देते हैं और केवल संहिताओं
को प्रमाण मानते हैं । यह रीति न आज कलके हिन्दुओं के मतानुसार है, न अतीतकालों के आर्यों के मत से, जिनका लेख हमको मिलता है, अनुकूल है। इस कारणसे दयानन्द सरस्वती को अवश्य उचित है कि बलवत् प्रमाण देवें जिस से उन के अभिमत भेद की सिद्धि हो । वे कहते हैं कि संहिता" ईश्वरोक्त ” हैं और ब्राह्मण और उपनिषद्
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( २३ ) केवल "जीवोक्त”। परन्तु इस बात का प्रमाण क्या देते हैं ? अब तक उन्होंने दन्तकथा ही केवल कह रक्खी है, संहिता मात्र का स्वतः प्रमाण होना और ब्राह्मण औ उपनिषद् वाक्यों का निरा परतः प्रमाण होना तभी माना जासका है जब दयानन्द सरस्वती दृढ़तर युक्ति देवें । आज तक जो युक्तियां दी हैं उनसे कुछ भी सिद्ध नहीं हो. ता है । राजा शिवप्रसाद का यह पूछना न्याय्य है कि “यदि एक स्वतः प्रमाण है तो दोनों क्यों न हों” अथवा “यदि एक परतः प्रमाण है तो दोनों क्यों न हों” और यह तो कभी युक्ति युक्त हो ही नहीं सक्ता कि वेदभिन्न पुस्तकों को भी कोई इसी रीति से कह दे कि वे भी वेद के समान हैं क्योंकि केवल वेदही को (ब्राह्मण औ उपनिषदों के सहित ) अनादि काल से ( since immemorial times अर्थात् इतने प्राचीन काल से कि जिसका ठिकाना कोई नहीं बता सक्ता ) सब आर्य लोग अपने धर्म का मूल ग्रन्थ और परमेश्वर की वाणी मानते रहे हैं।
दयानन्द सरस्वती ने शतपथ ब्राह्मण (वृहदारण्यक उपनिषद् ) से जो वचन उद्धार किया है उस पर तो इस बात का अवश्य स्वीकार करना उचित है कि राजा शिवप्रसाद की विरतिपत्ति अर्थात् दूप. ण सयुक्तिक है उस वाक्य का एक भाग यदि प्रमा
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( २४ ) ण हो दूसरा भाग भी अवश्य प्रमाण है। वह वाक्य एक है अथवा वाक्य समूह है इस की चर्चा प्रकृत विषय से कुछ सम्बन्ध नहीं रखती।
निःसन्देह दयानन्द सरस्वती को अधिकार नहीं कि कात्यायन के उस वाक्य को प्रक्षिप्त बतावें जिस के अनुसार मन्त्र औ ब्राह्मण का नाम वेद सिद्ध होता है। ऐसे तो जो जिस किसी वचन को चाहे अपने अविवेक कल्पित मत से विरुद्ध पाकर प्रक्षिप्त कहदे।
दयानन्द सरस्वती बाह्मण ग्रन्थों की प्रमाणता नहीं मानते तो तैतिरीय संहिता के ब्राह्मण भागों को क्या कहेंगे.। इन बाह्मण भागों में और शतपथ पञ्चविंश आदि बाह्मण में कुछ भी अन्तर नहीं है। और फिर तैतिरीय बाह्मण के जो मन्त्र हैं क्या उन सब को भी
यहां इस के लिखने की आवश्यकता नहीं कि स्वामीजी महाराज जो लिखते हैं कि “वेदों (संहिता) में इतिहास होते तो वेद आदि और सब से प्राचीन नहीं होसक्ते ++ इस लिये++ जमदग्नि आदि शब्दों से चक्षु आदि ही अर्थों का ग्रहण करना योग्य है” (भ्र० पृष्ठ.१६ ) सो मेरा अभिप्राय तो इतना ही है कि यदि बाह्मण ग्रन्थों के अनुसार जमदग्नि आदि का अर्थ योंही माना जावे तो संहि
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(२५) ता के समान ब्राह्मणको भी वेद भाग अथवा माननीय मानने में उन्हीं ब्राह्मण ग्रंथों की युक्तियां क्यों न मानी जावें और स्वामीजी महाराज यह जो लिखते हैं कि वेदों में "परा विद्या न होती केन आदि उपनिषदों में कहां से आती” (भ्र० पृष्ठ १८ ) सो यहां भी मेरा अभिप्राय तो इतना ही है कि वेद के नाम से मंत्र भाग अर्थात् संहिता और ब्राह्मणों को मान कर जहां वेदों को अपरा कहा जाय वहां मंत्र
और ब्राह्मणों का कर्म काण्ड और जहां वेदों को परा कहा जाय वहां मंत्र और ब्राह्मणों का ज्ञान का. ण्ड मानना चाहिये और ऐसाही आज तक वैदिक हिन्दू परम्परा से मानते चले आये हैं अधिक जो कुछ स्वामीजी महाराज ने लिखा है वा आगे लिखें उस का तत्व पंडित लोग आप बूझ लेंगे हम फिर भी हाथ जोड़ कर स्वामीजी महाराज के चरणों में विनय पूर्वक विनती करते हैं कि आप एक क्षणमात्र पक्षपात और क्रोध रहित होकर सोचिये और सत्य को हाथ से न दीजिये सत्यमेव जयति नानृतं और मुझे तो यदि एक भी दयानन्दी के चित्त में यह बात जम जायगी कि स्वामीजी महाराज का मादेश विधाता का लेख अर्थात् पोप की तरह इनफेलिब्ल (infallible) नहीं है अपनी बुद्धि काम में लानी चाहिये और दूसरे पंडितों की भी सुननी चा
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( २६ ) हिये सनातन धर्म को अथवा जो बात परम्परा से चली आयी है एकाकी किसी एक के कहने सुनने से बेसमझे बूझे न छोड़ देनी चाहिये मैं कृतकृत्य और अपना सारा परिश्रम सफल समझंगा॥
निदान अब मैं इन सब बातों को एक ओर रख कर जो इस २२ पृष्ठ के भ्रमोच्छेदन में स्वामीजी महाराज का अभीष्ट खोजता हूं तो आदि से अंत तक यही अभीष्ट पाता हूं--यही अभीष्ट है यही अभिप्राय है यही कामना है यही इच्छा है यही ईप्सा है यही लालसा है-कि एक बार श्रीमत् पंडितवर धुरन्धर अज्ञानतिमिरनाशनकभास्कर बाल शास्त्री जी महाराज स्वामीजी महाराज के साथ शास्त्रार्थ स्वीकार करलें सज्जन पुरुषों का स्वभावही है कि याचकों की याचना पूरी करने में उद्योग करें मैं शास्त्रीजी महाराज के चरणों में पहुंचा और भ्रमोच्छेदन दिखलाया आज्ञाकी:-.
कि “भला आप के (शिवप्रसाद के) एक सहज से प्रश्न का तो उत्तर श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती जी से कुछ बना ही नहीं उत्तर के बदले दुर्वचनों की वृष्टि की यदि काशी के पण्डित उनसे शास्त्रार्थ करने को उद्यत भी हों उत्तर के स्थान में उन्हें वैसीही दुर्वचन पुष्पाञ्जलि का लाभ होगा इस से अतिरिक्त और कुछ भी सार उस में से नहीं निकलेगा सिवाय
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( २७ ) इस के संवत् १९२६ में यहां दुर्गाजी पर आनन्दबारा में श्रीमन्महाराजाधिराज द्विजराज श्री ५ का. शीनरेश महाराज प्रभृति प्रायः सब काशी के मान्य प्रतिष्ठित और विद्वज्जनों के समाज में जो कुछ शास्वार्थ हुवा था उसी को उक्त स्वामीजी नहीं मानते तो अब आगे उन से क्या प्राशा है" ॥
निदान स्वामीजी महाराज से तो अब काशी के पंडित लोग फिर शास्त्रार्थ करते नहीं दिखलायी देते किन्तु स्वामीजी महाराज यदि अपने किसी गुरु को आगे खड़ा करके शास्त्रार्थ करना चाहें तो क्या प्राश्चर्य है कि फिर भी यहां के पंडित लोग बद्धपरिकर हो जावें हां बाबू रामकृष्णजी ने जो प्रबोध निवारण ग्रंथ छपवाया है ऐसे ऐसे ग्रंथ स्वामीजी महाराज अपना जी बहलाने को चाहे जितने ले लेवें।
॥ इति ॥
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ओ३म्
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जानियदर्शन जिस्को चौधरी नवल सिंह वर्मा प्रधानं आर्य | समाज मुजफराबाद जिला महारंन पुरने
देशोपकारके.वास्लेबनाया
पहिलेसन् १८८४.मे __ अक्षगबनायाथा
अबउमकानागरीअक्षरोमें ' उल्था कर दिया मन् १८८७ मे अवकार्तिकसम्बनट४४मैलाला किदारनाथा| सभासदमार्यसमाजमेरठने छपवाया
निवेदन यहपुस्तकबहुनसुखकरके हरहार
मोरमणी सभाकी माज्ञानुसारछपवाई गईहै कोई महाशयविनायाजाग्रन्थ कर्मवा!
___. उत्तमभाकेनछापे प्रथमबार१०..
कीमन ।। रुपयेकेख़री दारको रुपये सैंकड़ाकमी|| शनमिलेगा औरकमीशन किनावें मिलेंगी। सकिनाचौधरीनवनसिंहकीवनाई नानागरीलालाकिदारनायकेपासमिलेंगी
संममेरंटमेरूपी
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TIMINIMUim
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SET३मनत्मन
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| श्मबिश्वानिदेवसवितरिनानि
परा सुवायनासुवः॥
रोमान्निः शानि:शान्तिः। (देव) देसूर्यादिसर्व विद्या प्रकाशक (मविनः) हे सर्व जगदुत्पादकरना हमारे बिश्वानि) संपूर डरिनानि) दुःखाको(परासुब) नुमदूरकरो | नः) हमारे लिये यन् जो(भद्र) मुखहैं नन्न ने kधासुब) नुम प्राप्त करो हेपरमात्मन(आध्यात्मिक
ऐग,शोक शरीर पीड़ा आदिप्राधिभौनिक)श सिंह. सर्प आदिसे पराजय धौर पराम्नादियाधि दिविका अनि शीतोषा वर्षा आदि होना वान होना भारिजोये तीन प्रकारके वेश और संतापहैं उनकोनुम दूर करो। परमेश्वर की प्रार्थना म्नुनि के पीछे हम अपने देशीमा इयों की सेवा में निवेदन करने कि पाप कब तक
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(२) घोर निद्रामें सोते रहोगे अब सूर्य निकल पाया ग़फ़ल न की सजा को त्याग उठ बैठो बड़ा शोक है विद्यारु पी सूर्य के निकलने परभी उगों का समूह दिनधीले हमको लूट रहाहै चैनन हो कर देखोतो यह क्या धों कल गदी मच रही हैं हमने शुमार किया है कि हमारे देश बासी एक चौथाई लोग कुछ भी पुरषार्थनहीं करते भालसी और स्वार्थियोंने भीख माग करखाना या कपट छलसे लूट करखाना अपना पेशा टहरा एकवाहै भला जब एक चौथाई हमारे बीच मेंसेस्वाथी पालसी होकर हमारी कमाई को उग कर रवाजावें तो हमारा देश कब उन्नति को प्राप्ति हो सकताहै अब हम उनकी एक छोटी सी उगई को बर्णन कर निहैं हमको आशाहै कि पाठक गए इसको पढ़कर उनके धोके से अपने दसों नरवों की कमाई को बचाकर देशोन्ननिमें लगावेंगे और अपने वाला क्चों के पालन और माता पिता आदि की सेवामें अपना कमाया धन रखर्च करके अपनाइसलो क और परलोक का सुधार करेंगे पाठकगण, वह एक अदना सी ठगई मंठी ज्योतिष जि सने यहाँ के लोगों को बैल की तरह ऐसाजोन रकबाहै कि जिधर ज्योनयीजी हाँके उधर चलना दोनाहै भागे चाहै कये में गिरना पड़े परन्तु क्या
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(३)
मजाल बछिया के बाबा कान हिलावें अब हम इस ऊंटी ज्योतिष का अन्धेरा प्रश्नोत्तर के तौर लिखक र दूर करते हैं
(प्रश्न) क्या ज्योतिष सत्य शास्त्र है या ऊंटी बानहै (उत्तर) ज्योतिष सत्य शास्त्रों में से एक सन्य शास्त्र और वेद का अंग है परन्तु सूर्य सिद्धान्त आदि ग्रन्थ नोव शिष्ट प्रादि ऋषि मुनियों के रचे हुए हैं वे सत्य हैं उन मिं गणित बिद्या नक्षत्रों के घूमने आदि का वर्णन है और यह जो मुहूर्त चिन्ता मरिण और जन्म पत्र फ तादेशादि ग्रन्थहै यह स्वाथी मनुष्यों ने बनाकर उन पर ऋषि मुनियों के नाम लिख मारे इनको कभी नमा नना चाहिये क्योंकि वह वेद बिरुद्ध होने से माननीयनही (( प्रश्न) वाहजी वाह सूर्य सिद्धान्त आदिको कोई भी नहीं जानता आज कल तो जो लोग काशीजी परकर • प्राते है बह भी उनहीं ग्रन्थों को पढ़ कर आते हैं जिन को तुम ऊंठे कहते हो फिर वह ज्योतिष और वह ज्योतिषी ऊंठे किस तरह हो सकते हैं (उत्तर) काशी के पढ़ने हीसे कोई ज्योतिषी नहीं हो सकता सत्यशास्त्र सत्य विद्या के पढ़ने से सच्ची | विद्या आसकती है चाहे वह कही भी किसी वि द्वान से पढ़े भला जो कोई काशी में पढ़ने को जावे और पादरियों के मिशन स्कूल में इनजील
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पटवावे नो क्या वह उस शहर के पनापसेशाख बता हो जायगा सो कभी नहीं (प्रन) नुम अपनी दी होकने हो हमने सोवर परीक्षा कर देखी कि हमको इन्हीं हमारे भाजक ल ज्योतिषियों ने सब बान अगली पिछली ठीक ठीक ज्योतिष के बल से बनली दरी चोरजो बानाह मारे मन मेंथी वहभी प्रकट करदी यहाँतकबना दिया कितुम पिछले जन्म में फलाजूनी मेंथे
उजर) भाई ज़राबहिसे कामलोभला ऐसामि पायउसवन्नामीपरमेश्वर के और कौनहै जो किसी कि पिछले जन्मों का हाल जाने जबजन्म लेने वाला ही नहीं जानता कि मैं कहोसे चोला बदल करा याहूं नोफिर दूसरा क्या जानेवारनएसीगप्यसप्य ज्यो निय के ग्रन्थ मेंहै रहायह कितुमको बना दिया . कि तुम फलां योनी मेंथेसो ऐसागपोड़ातोहम भी होकरें कि तुम पहलेजन्ममें फतवा धोबीके कन्नेथे उस समय एक बासण अपने कपड़े लेने धोबीके घर मायाथा तुमने उसके पैर पर काटलि याथा अब उस ब्राह्मण ने कन्ना बन कर तुम्हारे पैर मिकाट लिया है बस प्रव नुम वाहने फिरो कि हम पीले करें की योनी में थे परन्तु बुद्धिमान कभी न ही मानेंगे क्योंकिजो पिछले जन्म में बालण था।
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(1)
उसको ईश्वर बदला दिलाने को उत्तम धाम छुड़ा कर कुन्ना बना देना क्या वह आप दंड नहीं देशक्ता या रहा अब अगला पिछला दाल बताना सो यहभी ज्योतिष विद्या नहीं यह तो एक अनु मान कर लेना है जैसे कोई किसी कुपथ्याहारी को अनुमानसे कहदे कि नू बिमार हो जावेगा या असाध्य रोगीको कहदें कि यह मर जावेगा या किसीका दुर्बल श रोर देख कर कहदें कि तूने बड़ा देह कष्ट उठाया जाहै सो कर कर के किसीका रथा धन व्यय करते जान कर कहदें कि थोड़ोही काल में तुम पर ऐसा क्रूर ग्रह यावेगा कि तू कंगाल होजावेगा और फिर उसका रहा सहा धन पूजा पाठ जप अनुष्ठान का धोका दे कर आप यह मूर्ति बन कर ग्रहण करलें और उस को कंगाल दास बना कर और स चे ज्योतषी बन कर कहने लगे कि देखो हमने प वले बता दिया था कि तू कंगाल हो जावेगा परन्तु निरा कोई पूर्व संस्कार अच्छा था जो उस समय पर हम प्रानिकले और जप पाठ करके भला तेरी जानतो बचाली ऐसेही किसी की टूटी हवेली देख कर उस को कहा कि तेरे पुरष धन वानथे परन्तु तेरा भाग मदहै किसी की नई दबेली देखी तो कह दिया कि निरे पुरषा तो मंद भागी ये तेरा नविश्ता चमन कारी है।
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६)
जो बसनी के आस पास नालाव देखा तो कहा कि बाल अवस्था में तुमने एक बार जल में भी गोता खाया था परन्तु उस समय एक पूर्व जन्म का मित्र वहाँ खडा था उसने तुमको बचा लिया था जो का स्त कार देखा तो कहा कि एक बार पशूने नुमप र चोट चलाई थी उसके एक सींग पर क्रूर ग्रह चढ़ गया था पर तुम को एक शुभ ग्रहभी उसदि ना मिलाथा उसने दूसरे सींग पर उस पशुके वैठ कर तुम्हारी रक्षा करली थी किसी अमीरके घर घोड़ा देखा तो कहा कि एक समय तुरंगने भी धोका दिया था पढ़ा लिखा फटे कपड़े पह नि देखा तो कहा कि तेरी नौकरी की इच्छा है कई बार कारज जच्चा भी परन्तु एक मनुष्यने भौजी मार कर काम डिगा दिया किसी कोख चने खाते देखा तो कह दिया कि तेरे दौलत इस हाथ आती है और उस हाथ निकल जाती है और बहुत बातें ऐसी होती हैं कि उनको मूर्ख आपदी स्वीकार कर लेते हैं जैसे किसी से कहा कि तेरे मित्र कम हैं और शत्रु अधिक हैं जिस को तूं चाह करताहै वह तेरी जड़ काटनें लगना है तू सुन लेता है सबकी परन्तु करना है अपने मन की तेरा मन चंचल है स्थिर नहीं रहता
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(
७
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नुम को शत्रु का बड़ा डर रहताहै किसी को सर कारी नौकर देखातो कहा नेरी राज दरबार में एक आसा लग रही है परन्तु तुमको लाभ हो गा किसी के घरमें घुसगये भोर बुदिया सेकहा कि तेरी बहु कपात्रहै नेरी सन्नान नेरी थाना कारी नहीं रही इत्यादि मन लगती बातें कहकहा करपागेको आठवें बारहवें सूर्य चांद आदिग्रहों का भय दिखा कर अपना लेलेने का पंजाजमा लेनेहैं बहुत से परदेश में गुप्त क्रिया से मालूम कर लेते हैं कि अमुकने अमुक मनुष्य कीभा ठ हजार रुपये की नालिश अदालत में दायर कररकवी, वसएफ ज्योतषी वीस गज की पग डी बाँध नीची धोती बगल में पोथी पोपदेवके गाती मुद्दई के घर पहुंचा और दूसरे उसीकेसा थीने बहीरुप बना मुद्दाले के दरवाजे कोजा घरा दोनों ने दोचारगुप्त क्रिया की पूंछीगछी दुई बातें कह कहाकर कट कह दिया कि एक मनुष्यने राज दरवार में नमपर द्रव्य की नालिश कर दीहै और उसका ग्रह तुमसे प्रबल पड़ा हुवाहै उसकी जीत होगी परन्तु तुम घबरानो मनि हम ऐसा जप करदेंगे कि श्रीगंगाजी करे गी देवता के प्रताप से तुम्हारी जीत होगी और
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१९)
एक यंत्र भी हम तुमको लिख देंगे उसको गूगल की धूनी देकर पगड़ी में बाँध लेना राजा तेरी ही बाणी बोलेगा और एक और भी हम बतलाते हैं किसीसे इन बातों को प्रकट न करना कभी पीछे पछता ओ और हम को दोष दो परन्तु यजमान रुपये डे ढ़ सो लूंगा और लूंगा कारज सिद्ध होने से दो दिन पीछे जब तू प्रसन्न हो कर देगा और जो समग्री अनुष्ठान में खर्च होगी वह हम अभी लिख कर देते हैं गुपचुप प्रापही जाकर बाज़ार से ले आओ और हाँ भूल गये एक कष्ठ तुमको भी उठाना पड़े गा वह यह है कि तुमको प्रतिदिन पीपल सीचना होगा और हम ऐसे वैसे पण्डिन नहीं कि योंही मांगने फिरने हों हमारी प्रतिज्ञा यह है कि कार
सिद्ध न होतो देवता को उलटा बाँधकरलटका दं चलो इन्होंने डेढ़ सौ की साई यहाँ चबाई औ र दूसरे से दो सौ की चिप्पी जमाई दोनों मेंसेए क कोजीत तो होनी हीथी, जो जीना उसने तो ज्यो नयी जीकोथैली मुका दी और आगे को इस घरमें और घरके मित्र आदि में रोज रोज को ज्योती नी की मानता हो गई चलो दिशा बाधा भीज्योत बी जीको पूंछ कर ही जाने लगे रहे अब हार न वाले के ज्योती बोले कि महा राज शास्त्रतो
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दर्पनरैजैसादो वैसा ही उसमें दीख पड़नाहै देखो हम नि पत्रा खोलनेही कह दिया था कि तुम्हारी हारहो गी इतने उपाय करने से भी यह चाल नस्लीपर वहतो महा राजभवभीनमम्मपने दिनभलेडीजा ना लिखानो ऐसाथा कि उस मनुष्य के हाथ से तुम्हा रा प्रारण घात होनाथा पर देवनाने सहायता करीउ ससमय हम तुम्हारे भय मान होने के कारण इस लिख को अपने मन ही मेंथाम लियाथा चलो अच्छा हवाधन पर पड़े भागवानकारजान परपडे निर भागी के महा गज यह बड़ा करूर ग्रहथा लिखाभी है किधनधान्य हिरन्य विनाश करारबिराह शनि श्वर भूमि सुना) अच्छा महाराज बहुत मन सोचमें संतोयही बड़ी बात है वह कैदिन तुम्हारा धनसा यगा तुमको परमात्मा और देगा अच्छा महाराज हमनो जाने हैं और भापकीजय मनाते हैं हमारातो यही मनोर्थहै कि तुम फूलो फलो चलो इनकोभी चलने समय दश पोच मिलही गये फिर दोनोंने पसमें जा गटे महीना बीस दिन फिर खूबभैरवी चक्र के पवित्र उत्सवाड़ायेवदाशोकहै बाजेचांडा लतो शहरोंमें जाकरविज्ञापन देते हैं कि नमुन ज्योनयी प्रमुक स्थान पर पाकर उतरे हैं धोरदो |
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चार गुनदूत उसी शहर के पोषोंसे सबसमाचारश हर कालेने रहते हैं फिर किसी प्रनिष्ठित पुरुषके पुत्र का किसी तिथिमें मृत्युका होना बनाने लगने हैं और फिर किसी दूनसे उसको बिष दिवाकरघा न कर देते हैं और अनर्यामी बनकर वर्षों शहरोंको लूटने रहने पस्नुमूर्ख लोग कभी विचार नहीं कर नि किजो यह ऐसे अन्तर्यामीज्योनसी हैं तो हजारों कोश द्रव्य के एथवीमें गुप्त दवे पड़ेहै यह ज्योनिय सि देख कर उनहीं को क्यों नहीं निकाल लेनेशहर
शहर और गाँव गाँवपेमेरकोक्योमारे फिरने हैं देह रिदूनमैएक किस्म के लोग उनको लोग बाकीक हतेहैं उनके ज्योनिय की ऐसी प्रशंसा करते हैं कि वह मानो नीन काल के लाना हमारे जिले सहा रन पुरमें लोउनका ऐसा निश्चय मूर्योकोहै किनिस के चोरी होतीहैया घरमें कोई रोगी होताहै नोस वारुपया बाकी की भेटका ले कर फट पचासकोस पहाइपर दौड़जाने और वाकी उनमूझे कोक छ गप्या सप्या बना देते हैं फिर वहमूर्ख सवारुपया उसे भेटदेकर पचास कोस सफ़र उराकराकर पड़ोसी पड़ोसीसे लड़ने बैटजाने हैं कि बाकी देव जाने बनायाहैकिनेरी बनु नेरे पड़ोसीनेचुराईहै |
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और एयवी में गाड़ीहेयस उस मूवक कहनेतेषा|| पसमें लड़ने लगते हैंहमने अाजनक कहीं नहींदे वाकियाकी की बनाई चोरी प्रकरहईहाँकभी एसा तो हवाकि किसीचालाक ने यहाकर कहदि| याकि मुमको बाकीने चोरकोभी मौरजहाँ मेरीब स्नु छिपाईधरीहै सब बताई है परमैं चाहताकि किसी का रोष प्रकट नहो बस मेरीचीजगनकोमे रिघागन आदिमें फैंक दोनहीं कल अपने हाथसे निकाल लूंगा इस धोकेमें पाकरवाजानेचीजफेंक भीदी परन्नु यहठहै कि बाकी चोरको ज्योनिय से बनादे मला जो ऐसा होतोतोसार पुलिसक्योरय नी वसदो चार की ही काफीथे मेरेसामने देहरेदू नमें बाकी कीस्वी को कोई साफाउडाले गया बाकीनी सारे टकरमारकर ओर थानेपुलिसमें भी रपोट करके बैठरहे कहीं पता नहीं चला जब उसका ज्योतिष नहीं मालूम होगया होगा भलाजवषय नी ही चोरी का हाल नमिला तो दूसरों कोसाधूल वतानाहोगा- भाइयों इन ठगज्योतिषियों केधोके में कोई मन जावो ऐमी ऐसीधोकेकी बानेमुग को सहस्त्रयादहैं जोकोई सुनकर कहै किहोय ह पूरा ज्योतीपरन्तु ऐसी कपरकी बात लिखने
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(१२)
और छापने से देश में बड़ी हानी होती है कोकि कोई पोपउन्हें देख पढ़ कर लोगों को धोका देता फिरेगा और जो किसी को परीक्षा करना हो मुझसे देख सुन लेपर में उससे ऐसी बान बताउंगा जोज्योनिय पेशान हो और निसके ऐसे मंठे ज्योनिय फ़लाने का आगे कोभी हमको सदेह नहो(प्रन) या ग्रहभी ठहैं
उत्तर) हम सिनारे और नक्षत्रों के होने से इनकार नहींकरते परतु उनका संबन्धमनुष्यों से इसप्रकार नहीं है जैसे आजकल पत्रा देख करस्वाथी लोग राह केनू मंगल बुध भादिकी करुरना मनुष्यों पर बनला देने हैं हमको बड़ा आश्चर्य है कि करोड़ों सिनारे में पांचयासान ी की क्यों करुरदृष्टी मनुष्यों परहोतीहै औरबहभी, मनुष्यों दीपर घोड़े हाथी भादि देह धारियोपरक भी कोई नहीं बनलाना और मनुष्यों में भी सिरफद्धि न्दुओं पर और देखो हजारों मुसाफिर प्रति दिनरेल परसवार होकर पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण को जाते हैं| उनको दशा शूलजोगती सादिकभी अमुभन हीं होने बलके यह आनन्दपूर्वक अपने ठिकाने पर पहुंच जाते हैं उनमेंसे कोईलग्न विचारकर
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९९३)
सवार नहीं होना है
मुसल मान अंग्रे देवना करूरनहींहोने
(प्रश्न) घोड़ा हाथी देह धारी तो हैं परन्तु ग्रहनाम पर जाता है और वह पशुदैं उनका क्या बिचार बिचार नि। मनुष्य की भलाई के वास्ते है रहै ज आदि जो हैं सो 'प्लेस हैं इन पर (उत्तर) बाहजी वाह जो एक बूढ़ा मनुष्य मूर्ख जिस को कोई तीन रुपया मासिक भी नदे उसकी खातिर जो निष का विचार हो और एक जवान पशु गौ प्रादि जिस के शरीरसे लाखों मनुष्यों का पालन हो उसके कष्ट और गले कट जाने के उपाय के वास्ने ज्योतषी एकभी जप -प्रतुष्टान न करें यहाँ तक पत्रा खोलकर इतना भीन बतादें कि गोपर अमुक ग्रह या देवता क्रूरहैं बस जो कोई पूछे भीतो उसको कहदें कि यहते। ईश्वर कीमर जी से और अपने पिछले कर्मके फल से मारी जातीहैं इन के उपाय करने में ईश्वर की मरज़ी को रोकना है औ र यह कि उनके नाम नहीं सोनामतो सब हाथी घोड़े लिगो आदि के होते हैं किसी का मोती किसीका टीकू किसीका चोरा किसी का खेरी आदि और यहजोक हाकि मुसलमान आदि म्लेक्ष हैं इसलिये देवनाउन पर कुछ दुख दाई नहीं होता सो धन्य आपके ज्यो तिष और देवताओं को कि श्रेष्टों को दण्ड और म्लेक्ष
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बरी कर दिये बहं देवनो होनहीं सकते उनकोचाण्डा |ल कहोतो ठीक भीहै और पुजारियों कोजोकदोसो थोड़ा भला यह कोई बुद्धिमताहै कि एक मनुय्यया एक फिरके को सूर्य करहोजाये और सबपरशान्ति हो हमनो देखते हैं जेष्टमास मैसूर्यसबकोगरम-धोरमा
पूषमें सबको नरम किसी ने इसके विरुद्ध एकको नरम बागरम होने दयेनदेने होंगे और यहभीजोमा नाजावे किपिन्त प्रकृति वाले को गरम और बातलस भाव के मनुष्य या पशुकोसूर्य नरम होतोउसकाय नशीनल ओषधियों से करना उचितहै औरयहतो कछ समझमें ही नहीं माना किज्योनिषयों कोलोहा नाबा सोना चौदी कपड़ा अनाज भैंस बकरी सनराई निल आदि पदार्थ भेट करनेसे सूर्यादिग्रह क्योंझटन म होजाने हैं क्या यह पोपवाडकौतडकेत श्रादिउन ग्रहों के नहसील के सिपाहीहैजोइन को टैक्स देने सि यह ग्रह शान्नि होजाते हैं क्या यह उनकी विरादरी कि हैं याउन के रिशने दार औरसबप्रजाके शत्रु हैं। भाईलोगसूर्यचन्द्रमा किसी को कुछ नहीं कहनेय हितो यही ज्योनयी ग्रहकीमूनी बन कर पाने है और तुम्हाराधनयहीग्रहण और हरण करलेने हैं प्रनासबको चन्द्रमादि करनहीं होसकतेजिम
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की नाम रामी परजैसा असर होगा उसी के अनुक॥ ल दुख मुग्व होगा. उत्तर) यहबान केटीहै एकहीनाम के लाखोमा दमी होनेहैं हजारों इससमय बिमार हजारों भानन्दमे हैं और नामके उपरदुःख सुख पाया करेनो संसारमें कोई कभीभी दुरवीनहोने वाचे म्यांकि नामनो मावाप
आदिसंबन्धियों का कलपनाकियाहुवा उसके पका रने शादि कारणों के वाले एक चिन्हहै फिर यहनो दुःख दूर करने का और सुख भोगनेकासहज उपाव हुवा सजब किसीने देखा कि मेरापुत्रगङ्गाराम विमार होगया और तोता राम मोटाताना घूमताहै। सगङ्गाराम का नाम बदल करताना राम रख दिया वह भी इनका कल्पना कियाहवाथा पोरयहभीड़ न्ही की कल्पनाहै फिर ज्योनियी जीके पत्र में क्याशे खचिली के मकबरेका नशा देखनाहै प्यारोंयहतो सबरकोसले बनो दारव मंगल से दोन बुधसे दुःख मुखनो मनुष्य को अपने कियेकर्म इस जन्म प्रयापू जन्म के अनुसार परमात्मा सबकोषपने म्यायन
की सफलतासेभीभगवानाहै (प्रश्न ऐसा नहीं इसकी विधजन्मराशिपरमिलती है। उत्तर) यहभी इंटी बानहै एक क्षण संसार में |
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नरखूखा मनुष्य काजन्म होना है और हमने ज्योनियि| यों कोदेखाहै कि वह कमसे कम प्रदाईघड़ीकामु इन लगाया करने हैं इसने समय में नजाने कितनम नुष्यका जन्म होना होगा किर उनमेंसे नमालमकिन निनो उसी समयमरनाते हैं कितने कछ दिन के पीछे कितने प्रबरोगी होंगे कितने आनन्द करने फिरने होंगे किनने ठग कितने धार्मिक साहूकार किनने कंगाल | और मूर्व बहन बुद्दिमान होंगे प्रश्न) एकही समय में दोकाजन्म नहीं होसन्ना यह बहुन बारीक हिसाबहै तुम्हारी मोटी बुद्धिमेंएक समय दीखनाहै इसमें दृष्टानहैजैसे कोई सौपनेउपर नीचे नह बांधकर धरदेशोर फिर ऊपरसे उसनहमेंसु ई मारेनोऐसाजान पड़ेगा कि सारेपनों में एक हीसाथ सुई कैदगई परन्तु बालवमें कलसूक्ष्मसमयमेंएक पत्र सि दूसरे पत्रके छेदने में अन्नरहुवाहै। (उत्तर) यहमीनुमकोभ्रमहैकिएक समय में दोका म एक साथ नहीं होमकते देखो दोनों नेत्र एकसाथम बिकते हैं इनमें कितने समयमा अन्नर बताओगेजवण ण लोग गान करते हैं नबमृदंग मरचंग वीणां मजीरा आदिसान औरगवीश्वरकाएकसाथएनाहीसमय मेंना लपड़ाकरनाहैजोननकभी मिन्न भिन्न होजावेतोबा
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कहा करने कि समय नहीं बंधादेखा होतीहै किन नीबूदेंएक हीसाथ एथवी पर गिरा करती हैं होजो हम यह कहैं कि एक हीभरामे एकक्षणमेलाबाज न्मने हैं तो आपका पनेसुईका दृष्टान हमारीबान को काट सक्ताजबहमकरोड़ौजन्मका होनासंमाग में समाकर लाखो योनियों से एक साथ घोरएक समयमें हमारे पिछले दृष्टान्तोंसे सिइहोताहे बुद्धिमान विचारलेंगे प्रश्न) नोबस जन्मपत्रीबनानाभीनियोजन ठहरा औरलाग्वां सेटसाहकार अपनी सन्तानांका रिजजन्मपत्रबनवाते हैं औरलाख बिहानोंकी जीवका इमी परहे क्यावहसारे ही निर्बुद्धिह एक आज तुम्ही बुद्धिमानपैदाहुये होजोसमीबानोंप रपानीफेरने जानेहोयाहमईवाह दमनोसमाई करनेजाने हैं यह अपनी करतेहीचलेजाते हैं। उत्तर यह कछलड़ाईनहींयहतोसत्यासत्यका विचारहैलाखांजन्मपत्र बनाने की पौरवनमाने कोतोयहबानरैकिजब अन्धेरीरान होनी हैतब संसारमें लाखों के घर लाखों फोड़करमालउडार लने हैं और जब मर्यका प्रकाश होताहैदिनधीले कोन प्रपना घर अपनाशहर अपने देशकोचोरों
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(१८)
से लुटने देता है और जो चोर यह पुकारें कि हमारा टुकड़ा तो लाखों का चोरी ही से चलताहै तुम हमको चोरी करने ढोला वहभी कोई बड़ाही मूर्ख होगा जो अपने या दूसरे के घर चोरी करने की प्रज्ञादेगा सो महाराज प्रविद्या अन्धकार दूर हो कर विद्या रुपी सूर्य की कि हृदयांमें प्रकाश कर रही हैं - प्रब | इस पाखंड को छोड़ कर देश उपकार का मार्गपक डा जो तुम्हारी शाख बधे नहीं तो कुत्ते की तरह मारे मारे फिरोगे गिल्ले की बात नहीं अभी अपनी दशा देखे क्या लानती की वर्षों से न्हा रहे हो रहा जन्मपत्र बनाना उसको हम बुरा नहीं कहते परन्तु उसमेंइत ना हीलिखना ठीक है कि आज अमुक घड़ी अमुक दिन प्रमुक मांस अमुक संबत में यह लड़का जिस का यह नाम सुन्दर बिचार कर रखा अमुक मातापि ता के घर अमुक शहर वा गाँव में हुवा और जो कुछ उसके जन्म उत्सव आदि संस्कार आदि का व्यतीन प्रवस्था हाल चाहे जो लिख दो जिसको कभी अवश्य कता होतो उस जन्म पत्रमे यह पता मिल जायगा कि आज दिन इस लड़के की प्रायू इतनी हुई या और कोईरान उसके जन्मके दिन की देखनी दी वहभी जो लिखी दो देखलें और जैसा जन्म आज वाल
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९१६ )
मठे जोनी जी बनाते हैं उसको जन्म पत्रके बदले |शोक पत्र कहना उचित है क्योंकि उसमें बहुधाय ही जोतषी जी पूजा पाठ अनुष्ठान करके माल उड़ाने का पहले ही ढंग रख छोड़ते हैं कहीं लिख दिया कि यह हाथी की सवारी करेगा कहीं लिखा कि इमकाछ साल अमुक ग्रह आवेगा और प्राण हरण करले गा इत्यादिक २ ऐसे भयानक और रोचक समाचार डालते हैं कि माता पिता का सन्तान के पैदा होनेकासा रा आनन्द हर लेते हैं जब छटे साल का आरंभ होता है तबते। इनके हृदय बड़े ही दुखी होने फिर जोनघी जी या उसके भाई बन्धु उस बिचारे के घर परजप -अनुष्ठान का पोना फेरते हैं हमरोज़ अपनी और से दिखते हैं कि जहां कोई बीमार पड़ा और इन जोखि यांने जन्मपत्र दिखाया अपना संवत् ३८ का पत्र संब तू ४० में देग्व कुछ मुंह ही मुहमें मीन मेघ कुंभबुड़ बुड़ा क: और छः बारा और तीन पन्द्राह कहकहा कर कह दिया कि इसको तो प्रारवें सूर्य या चन्द्रमा हैं या यह कह बैटे कि इसकी मरे हुये पितरों की खोड्याऊ परी काया या अमुक देवी देवकी क्रूरता है बस बैद्य की औषधी कदापि नहीं देने देने हजारों मनुष्यदेवी धामड़ी के भगेम में महा कष्ट भोगते हैं हमनेहींस
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(२)
मऊ सक्ने कि इनके बारह पत्रके पत्रमें उन सबदेव ताओं के नाम जिनकी संख्या नेतीस करोड बनाते हैं कैसे अक्षरों में लिखी हुइहै हमको तोकिसी बड़ेपत्रों के ग्रन्थमें तेनीस करोड़ अक्षर भी नहीं दीखते नाम स्थान के लिखने को तो बड़ा भारी एक दफ्तर चाहिये और देखो कि जब किसी की गाय या भैंस माहमें या भादों में व्या जावेतो यह उसको प्रभुभवातब ताकर आप उसको मालिक से लेलेते हैं सावन कीव्य ई घोड़ी बुरी बना आपही छीन लेते पशुही नहीं बलके उसके साथ और भी अन्नादिसामग्री दानक गते हैं वह सब आप प्रपनी जातिको लेते औरदि वाते हैं भोले भाले लोग इतनी बुद्धि नहीं दौड़ाने कि उस परमेश्वर ने माघके महीने सदी की ऋतु में हम को भैसका गाढा दूध दिया गरम गरम च्याप पीकर प्रानन्दकरेंगे और हमारे बच्चे पीवेंगे याकिसीमाता पिता दिया अतिथि की सेवा इस दुग्ध से करेंगे भग बान ने एक पशु के दो पशु कर दिये दिनमें घोडी ब्याई हमारे अहोभाग्यरात्रिके ब्यानेमें बच्चाही घोड़ी के पैरों में कुचला जानाभादांमें गोउ व्याई ईश्वरकी बड़ी ही कृपा हुई इस क्रतुमें घास वहुन है हमको बिना परिश्रमकिये ही माना के समान
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दिग्ध मिलेगामलाएकसाथीक बहकानेसे उस्कोप भमानकर उसको मुक्तकोंदेदें औरजोइसमें कक्षा ई हैनोयहस्वाथीही इसकोक्योलेनाहै और सुनिये किजबखेनजोनतेहैं तबदैवयोगसे नीचेटथवीमें सांप कचल मरजाताहे तो किसानलोग गियों के उपदेशानुकल हल बैलभी धारफालीपाथा
और हालियानीदलजोतने बालेकोभीगुजरातीका देदेने हैं औरभीबहुत सीसामग्री भन्नादि उसके साथ देकरपराछत करतेहैं औरफिर उस दान किये हालीकोकछ श्रद्धापूर्वक मोलदेकर लोटानेही र फिरभीब!नक डरतेरहते हैं किकभी हमारेघर भिकुछविधनहोजायेगोरजोनसंख्यान औरजीव प्रतिदिन हलमे दले जानेहैं उनकाकोईभीपार्याश्च न जादिनहीं करता क्या वह जीवजान नहीं रखते प्रश्न सोपदेवता था इसलिये उसकेमरने से परा | छन करना लिबाहे उत्तर धन्यहै आपकीमोर मापके स्वार्थकन शास्त्रको जिसमें सर्पकोदेवतालिवाहे धोरपान होबिय लकड़ी देवता जिसके पुजारी ठगयेदेवता भाईसर्पका देवता होना किसी मन्य शारत्र नहीं है मां प्रागण काहेयना नोशास्त्र सभी प्रत्यक्षमें ।
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(२२)
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वियभीजानने भागों दिन धोले क्या अन्धेर मचारकवाहै कोईरम्माल नालिबमतलूबकीश कल निकाल कर अपना मतलबघडलेते हैं कोई निलया राजा बन कर त्रिलोकी का हाल नेल में ही देखना कहकरम की औख बचाकरजेष्टके दोपहरमें स्त्रियों के हाथमें छल्ला अंगूठीनकनहीं छोड़ने कोई डकौतसवामहरदिनचत्तकसरस्वती का बाक्यसिद्धबन कर घरामें कपड़ातक नहीं छो डनाकोईअड़पड़पोपोरंगास्वामीरंगास्वामीकह कर और एक पट्टीपरलाल काले रंगका हाथ
का पंजालिया करफिरस्त्रियों के हाथ पकड़मच्छ रिखाकाकरेवाबता ओरगड़गड़बड़बड़करघरों में बरनन भाडा नहीं छोड़तेजैसेकोई निर्बुद्धिवा लककी गुड़कीरली दिखाकरयाकानकाटनेका डर दिखाका रोचक पौरभयानक वानेसुना कर धूर्त बालकका गहना उतारलेजानेहैं इसीप्रकार यहथूनीनन्ददिनधौलेवालक समान निर्बुद्धिस्त्री ओरपुरुषों की बुद्धिपरकपट धूल डालरात दिन लूटते रहने हमनहीं जानते कि हमारी सरकार नाइन ठगोंकेवास्नेकोई दंडएकोनहींजारीकि या हमको अपने गवर्नमेंट कीन्यायनीतीकीबोर
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(२३)
दिस्यनेसे यही जानाजाना है कि उनके कान नकएसी प्रदाधुन्दी की कुछखबर नहीं पहुंची हमको साहै किरान अधिकारी अब ज़रूर इस ग़दरकी खवर सरकारको करके प्रजाको इन लुटेरों के हाथ से बचावंगेदखोइनन्योतिषियोंकभरोसे यहाँके राजपाटनर होगये जबकिसी शत्रुने हमारे देश के राजामापर चढाईकी उसी समयज्योतिषियोंने पत्राउथलपथन कर राजासेकहदिया कि महाराज आज अमुक लग्नहै जोतुमन्माजशत्रुकेसन्मुख युड्को गयेतो तुम्हारी आवश्य मेव हार होगी परसों पोने पढ़ाई घडीदिनचदे ऐसावेष्टलग्न साकरपड़ेगा कियह शत्रु प्रापसे जाप धूदके बादन के नुल्य क्षय हो जावेगाजोहैमोकरकरके बस राजासादिव लग्न किभरोसे मग्नरहै दूसरोने नलवार पकडलान
पादिमबइखट्टेकरदियेजोनयी जीने अपनेमन मियहसिद्धान्त बिचारा किजोरानाकोयुडकीस मनी दोनो राजाजीकेसाथ युद्ध समय हमको भी जाना होण सचकहा है कि पाप गलत पांडेयन मानभीपाले इन लोगोनें देशमें बड़ीबड़ीहानी पोहंचाई और पोहंचारहे हैं गांवमेजहां किसी
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(28)
बिपत्ती के मारे जमी दारने इनसे पूछा कि महाराज हम रे तो अति नंगी आ गई बस इन्होंने रुट साफे से प त्रा खोल कह दिया कि अभी पढ़ाई बर्ष का और कष्ट रहा है और इस देवता का जप आदि कारा दो तो अभी इसका बल घटजावेगा बस यह सुनकर वह मूर्ख जो कुछ तली नपड़ी घरमें होती है वह भी इन धूर्तो को देकर और भी दारिद्री हो जाताहैजे कभी फिर पोपजी से कहा कि महाराज जो तुमने कहाथा वहमी हमने पुण्य दान आपको दिया नो भी कुछ उन्नति हुई तब पोपजी वोले कि महारा ज धर्मकरते हो वे हान जब भी न छोड़े धर्मकी बान और परमेश्वर अपने भक्तों को कसाही करता है लोग कुछभी बिचार नहीं करने भेडिया धसान के तुल्य एक एक के पीछे कये में गिरते जाते है किसी दूसरे के पाठ करने से अपनी क्या उन्नतिले गीहां उसके पाठ करने वाले कीतो प्रत्यक्ष उन्नतिहो गई मुल धन मिलगया और जो कोई प्राप दीकि मी पुस्तक का पाठ करे तो इतनाही फायदा होग किवह पाठ उसको कंठस्थ हो जावेगा और जो पाठ पूजा करने कराने से पदार्थ आपड़े तो पोप जी प्रायही राजा न होबैठें भीक मांगने क्यों फिरं
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१२५
पदार्थनो पुरुषार्थ मे मिला करनेमो पुरु वार्य सेही उन्ननिसबको समझनाचाहिये और परमेश्वर पने मनकोकभीनहींकसना उसकी आज्ञापाल्न न कीजोकोईभक्तीकरेगा वह कभीनकसाजायेगा क्योंकिवहतोपरमपिताहैजोकोई शत्रुकोभी शरणजाताहै और उसकी पानाकोपाले गातोय हभीशत्रु भावकोत्यागकरशरण आयेकी रक्षा दीकरताहेजोकोईऐसा कहेकिनहीं परमेश्वर मीभक्तकीश्वद्धाऔर धीरजताकीपरीक्षा किया| करताहैसोयहमीभ्रममात्र परीक्षाकरनाका मअल्पन्न काहोताहैसर्बज्ञका नहीजो सबका अन्नरयामीहे वह किसकीपरीक्षाकया करताधोर जोयह कहते हैं किधर्मकरते होवेहानवहभी महामूर्ख धर्मसेसदासुखहीहवाकरताहै। चोरधधर्मसेदुख नपाखंडीलोगों के उपदेश निदेशकामत्यानाशकरादिया हम देखते हैं कि गावमेंजमीदारदाथपरहाथधरेपूजा पाठहीके भरोसे पुरुषार्थकोत्याग चौपालमै दिनभरबैठे || टटड बेवजनिरहते हैं नखेत देखने हैन क्यगरदेखते हैं और जोकोई कुरकरनाभीहैनो उनकोभीपोपजी हानीही पोहंचानेरहने
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भरीभरीपूरीपूरी बर्या में गाँवगांव धनवानों को रोक दिया कि भाषादसावन धादिमें कबूंद वर्षानहीबसलोगोनेधानोकी क्यारियों में मकीहीबीजदीचारकेचारमासपड़ीजोमूस| लथारपोपजीकाघरभीधारोधारहुवा और सबखेतीमकी आदि गलगईलोगों को मरवीतो जीदेनीपड़ीपोपजीकहबैठेकिनापजानते हैं किशास्त्रोफादायेनहीं सकाऔरऐसाक हनाभीपापहै इसदेशम नहींनोकिसीपोरदेश मिवर्या कम हुई होगीहोयशोकलोगइतनाभी नदी सोचने किजो पोपजीइतनाजानते होने | कि इसबर्यधान कसपैदा होंगेतोभापहीदोसो चारमोके चावल नरवरीदडालने भोरफिरमहंगे भावमें बेचकरनफ़ाउठालेने प्रश्न) देखोजोज्योनियसत्यनहोतानोएथ वीपरकोईसूर्यचन्द्रमाकाहालग्रह कानवन लासक्ताप्रबकहो (उत्तर) हमजोनियकोअसत्य नहीं बताने हमने पहलेहीलिखदियाहै कि जोनियसत्य शास्ववेदकाअंगहै और उसमें ऐसेहीहिसाब लिखे चमुक निथिकोचन्द्रमा अमुक स्थान
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परजोरटथवी समकस्थानएर घूमतीदई सूर्य चन्द्रमाके बीच भाजावेगी औरऐथीकामाय चन्द्रमाके ऊपरइननी देररहेगा फिरवहथूमते| त्येप्रलगहोनेसेसूर्य की खुली किरण चन्द्र मापैपड्रैगीनवग्रहायानी सायाहट जावेगा। जैसे कोई हिसाबलगाकरबतादेकि कल पडवा हसायंकाल के समय पश्चिम दिशामें चन्द्रमाए क लकीरकेसाकारदिखाई देगामेरेपास एक यीहैमेरेयाबदतों के पास दोगी उसमेंएकदि साबलिखाहै उससे चाहेजिससालकाधागेका हाल ग्रह काठीक टीकमालूमकरलो भला जोकोई उसयंत्रीको देख करविसी मोटेनाने अरोग्यमनुस्य कोयह कहने लगेरितूसाठ दिनमें मरजावेगातोसिवाधूनके इसकोक्पाकहैं। (प्रश्नाभाईजोनिय तो ठीक है और उसमें मनुष्य कासमन्त्रशुभकाहालभीजानपडनाहै परन्तु कोई विचारनेगलाहीनहीहैनहीनो पूरीविध मिलजावे । उत्तर) अच्छाऐसाकहनेसेनोकुछ ऐसी हा नी नहीं परन्तु इतनी छपाकरोकिजवनककोई पूराजोतिषीपैदानहोनवनकडून ठेजोनि यके ग्रन्योको टोशाले में लपेटकर पोरशुभ
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(25)
| लग्न देख कर ताक में रखदो की डा कांटा लगनेसे सांप की काचली उसमें रखदो और परमेश्वर से तुमभी और हमभीप्रार्थना करें कि हेसन्स्वरू पसनविद्या प्रकाशक तू हमारे आर्यावर्त देशमें फिर ऐसे बिहान सत्य बादी चार बेदों का ज्ञाता जैसा शरीर श्री मद्दयानन्द सरस्वती स्वामी का प्र घट कियाथा कर जो इन झूठे ग्रन्थों को स्वाहा करदे और हमारे राजा की भी ऐसी नीति प्रचलित कर कि जो ऐसे जाली ग्रन्थ छापे वा रखे या ऐसे धो के से किसी का धन हरे उसको दरयाय शोरके दर्शन कराये
(प्रश्न ) मला विवाह भी मुफाना चाहिये यान हीं यह काम बिना जोतिष कैसे चलेगा (उत्तर)
विवाहना अवश्य सुकाना चाहिये और कामकी सूज पीछे परन्तु बिवाह की सूम पहले करनी चाहिये पर बिवादके सुमाने वाले विद्वान होने चाहियें विवाहकी सूफ वेदोंमें लिखी है जो कोई वेिदनहीं पद्मक्ता वह मनुस्मृति से सुगाले जो उसको भी नहीं पढ़ सका वह श्री स्वामी दया नन्दसरस्वती जी महाराज के बनाये हुये ग्रन्थ
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(रही
सत्यार्थ प्रकाशा से सुमाले सो यहां भी कुछ लिख नि हैं क्योंकि इस बिवाह कारज के सूमकी बड़ी आवश्यकता है जो इसमें ब्याख्या बदे भीनो चिन्तानहीं अथ बिवाह की सूम अथ विद्या अनुकूल वेदानधीत्य वेदौवा वेदंवापि यथाक्रमम् अविश्रुतवस चर्ये महस्थाश्रम माविशेत्र यह मनु महाराज के धर्म शास्त्र का बचनहै इसका अर्थ यह है कि जययथावत ब्रह्मचर्य प्राचार्यानु कूल वर्ज कर धर्म से चारों तीन वा दो अथवा एक वेदको साङ्गोपाङ्ग पढ़के जिसका ब्रह्मचर्य खंडित | नहुवा हो वह पुरुष वा स्त्रीग्रहा श्रममें प्रवेश करें मनुः॥ तंप्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदाय हरं पितुः
खम्बिरंग नव्य प्रासीने महयत्प्रथमं गवा २ यहभी मनुका बचन है इसका अर्थ है कि जोस्वधर्म अर्थात् यथा वन-प्राचार्य और शिष्यका धर्म है उस से युक्त पिता जनक वा प्रध्यापक से ब्रह्म दाय-अ अर्थात् बिद्यारूपभागका ग्रहणा और माला का धार सा करने वाला अपने पलंग पर बैठे हुए प्राचार्य को प्रथम गोदान से सत्कार ऐसे लक्षण युक्तवि द्याथी को भी कन्या का पिता गोदान से सत्कार करे
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| मनुः॥ गुरुग्णानुमतःस्नानासमादत्तोयथाविधिः ।
उहहेनहिनोभार्यामवलक्षणन्किाम यहभीमनुस्मुनिकाश्लोकहै किगुरुकीसानाले लानकरगुरुकुलसे अनुक्रम पूर्वक धाके वासरण क्षत्रीयवैश्य अपनेवर्णानुकूलसुन्दरलक्षणयुक्त कन्या बिवाहकरे मर्नु असपिडाचयामानुरसगोत्राचया पितः। साप्रशस्लाहिजानीनादारकमणिमेथुने।। जोकन्यामाताकेकुलकीछःपीदियोमैन होनौर पिनाकेगोत्रकीनहोउसकन्यासे विवाह करना उचि नहै इसकायहप्रयोजन हैकि | परोक्षप्रियाइवहिदेवाः प्रत्यक्षद्वियः
यहानपत्रानणग्रंथकावचनहै यहकिमीपरोक्षपदार्थमें प्रीतिहोती हैवैसीप न्यसमें नहीं होतीजेसेकिसीने मित्रीक गुणसुने
हो औरण्याईनहोउसकामनउसीमेलगारहता हिजैसे किसीपरोक्षबस्लुकी प्रशंसा सुनकरमि, लनेकी उत्कट इच्छा होती है वैसीहीदूरस्थत्र र्थात् जो अपने गोत्रवामानाके कुल में निकट । सम्बन्धकीनहो उसी कन्यासेबरकाविवाहहो नाचाहिये निकट और दूरबिवाहकरनेके गुण
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यहहै) एकनोजोबालकलवस्था निकटरह निहेपरस्परक्रीडालडाई औरप्रेमकरते एकदूस रिके गुण दोष भाववाबाल्यावस्थाकेविपरीत लाचरणाजानने औरनगेभीएक दूसरे को देखते हैंनकापरस्पर विवाह होनेसे प्रेमकभीनहींहो। सक्ता(२) दूसराजेसापानी पानीमिलनेसेबिल क्षणगुण नहीं होनविसे एक गोत्रपितृवामानकुल मिविवाहहोनेसेधातुओंके अदलबदल नहीं हो नसे उन्नतिनहींहोनी(३) तीसराजैसे दुग्धमें मि श्रीवा शुंब्यादिधौषधियों केयोग होनेसेउत्तम होनी हवसेहीभिन्न गोत्रमान पित कुलमेएषक बर्नमानस्त्रीपुरुषांका विवाह होनास्तमदै .. (४) धोयेजैमेएकदेश में रोमीहो वह दूसरे देश में वायुसोरम्बानपान के बदलनेसे रोगरहिनहोता है वैमेही दरदेशस्यों के विवाह होने में मुखका मान औरविरोधहानासम्भवपांचवें निकर सबन्ध करने एक दूसरे के मिकर होने में सुख दुस्ख काभान और विरोधदोना भी सम्भव है दूरदे| शस्यों में नहीं दूरस्यों के विवाहमें दूरदूरप्रेमकील म्बाई बढ़ती जानी है निकट विवाहमैनहीं ६) छटे दूरदूरदेशकेयर्नमानघोरपदार्थोकीमा
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१२)
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निभीदूरसंबंध होने सहजनासे हो सकनीदैनिकट बिबाह होनेमेनहीं इसलिये | दुरिनादुर्हितादूरेहिनाभवतीतिनिरु.। कन्याकानाम दुहिता इसकारणसेहैकि इसकाबि याह दूरदेशमें होनेसे हितकारी होतीहैनिकटकानेमनहीं
मानवेंकन्याकिपिट कुलमेंदारिद्र होने काभीसं भवहै कयाकिजबजबकन्यापिटकुलमें मावेगीतब नब इसको कुछ नकछदेनाहीहोगा .. (e) प्राठवेंकोई निकट होनेसे एक दूसरे को अपने अपने पितृ कुलके सहायका घमण्ड और जब कभी दोनोमैं वैमनस्यहोगास्त्री करही पिताके कुलमेंचलीजायगी एक दूसरेकी निन्दा-अधिक होगी और विरोधभीक्योकिप्राय:स्त्रियका स्वभाव तीक्ष्ण भोरमृददाताहै इत्यादिकारगसे पिता कि एक गोत्रमानाकी छापीटीओरसमीपदेशमें विवाहकरनापच्छानहीं
महान्यपिसमृहानिगोऽजाविधनधान्यनः | स्वीसंबन्धेदशेनानिकुलानिपरिवर्जयेत चाहेकिननेहीधन धान्य गाय मजा हाथों घोड़े राजश्रीआदिसेसमृद्धियेकल होतोभीविवाहसे बन्धमें निम्नलिवनदशकुलोकान्यागकरदे॥१॥
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होमक्रियनिथुरुषं निश्छन्दोरोमशार्यसम । क्षय्यामयाव्यपस्मारिश्चितृकुष्टिकलानिचर जो कुलसनक्रियासे हीनसत्पुरुषोंसेरहिनवेराध्ययन सेविमुखशरीर पर बड़े बड़े लोमअथवा बवासीरम यी वासीधामाशयमिरगी स्वेत कुष्ठ पोरगलितकुष्ट युक्त कुलोंकी कन्यायाबरके साथ विवाहनहोना चाहिये क्योकियहसबदर्पण औररोगबिवाहकर नियाले के कुल भी प्रविष्ट होजाते हैं इस वालेउ नम कुलके लड़के लड़कियोंकाअापसमें विवाह होना चाहिये॥२॥ नोहहेकपिलांकन्यानाऽधिकांगीनरोगिरणम् नालोमिकांनातिलोमानवाचावात्रपिंगलामध्यन नगेले वर्गा मालाना अधिकाडीपर्थान् पुरुयसेल म्ची चौड़ी अधिक बलवालीनरोगयुक्तानलोमरहिन नबहुनालोम वालीनयकवादकरनेवारीचौरभूरे । नित्रवालीनहो॥३॥ नरक्षनदीनाम्नींनान्स्यपर्वन नामिकाम् निपक्ष्यविप्रेष्यनाम्नीनचाभीषणनामिकाम निरक्ष अर्थात् अश्विनीभरती रोहणीदेई रेवती बाई चिनारि प्रादिनक्षत्रनाम वालीनुलसीगेंदागुलागे पाचमेली श्रादिरसनामवालीगंगायमुनानादि।
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नदी नामवालीचाडाली सादिअन्यनामावालीवि ध्याहिमा लियापार्वतीलादिपरखतनामवालीको किलामैना प्रादिपक्षीनाम वाली नागी भुजंगीआदि सर्प नामवालीमाधोदासी मीरादासी आदिप्रेष्यनाम वालीभीमकमरिचण्डिकाकालीमादिभीषणनाम वाली कन्या के साथ विवाहनकरनाचाहिये क्योकियेह नामकृसिनोर अन्यपदार्थोकेभीमाना पिता को पहलेहीध्यानरखनाचाहिये किशोर पदार्थो केनाम परसन्तानों के नामरखें॥४॥ .
यव्यङ्गाडगीसौम्यनाम्नी हंसवारणागामिमीम ननुलोमकेशदशनांमुहङगीमुहहेनियमपमनुः जिसके सरलमधे अङ्गहोंविरुद्धमजिसकानामसुन्दर प्रात्यशोदासुखदासादिदोहंसम्भोर हथनीकेतुल्य जिसकीचालोसुक्षमलोमकेश औरदान्तयुक्त और जिसके सबसड़कोमलही बैसी स्त्री किसाथ विवाद करना चाहिये। प्रश्नाविवाहकासमय ओरप्रकारकौनसा अच्छाहै k ) सोलहवेवर्षसेलेकेपच्चीसवेंबर्यनककन्या ओरपञ्चीसवर्षसेलेकेश्वबर्यनकपुरुषकाबिवा हकासमय उत्तमहै इसमेंजोसोलह औरपच्चीसमें विवाहकरतो निकृष्ठ पाठारहवीसक्रीस्त्रीनीसपैनीस
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___१७ गगालीमवर्यकै पुर्य कामध्यम चौबीसबर्षकीस्त्री और अड़तालीसवर्षकपुरुर्व और कन्याका विवाह उत्तमहै जिसदेशमें इसीप्रकारबिगहकी विधिश्रेष्ट औरत्रलचर्य विद्याभ्यास अधिक होताहैवाल्यावस्या और अयोग्योंकाबिवाल होताहैवोहदेशदुःखमेंडून जाताहैकमोकिनसचर्यवियाके ग्रहयापूर्बकबिवाही किसुधारहीसेमब यानांकासुधास्त्रारबिगड़नेसेबिगा ड होजाताहै। प्रश्न) अष्टवर्याभवगौरीनववर्याचरोहणी
दशवर्याभवेत्कन्यानत उर्घरजस्वला' मानाचैवपिनानस्याज्यष्टोधानानथेवच
त्रयस्लेनरकंयान्निष्टाकन्यारजस्वलार अर्थ)यदलोकपाराशरीचारशीवोध लिवाहै अर्थइनकायेदेवकन्या कीनाठवेंबर्ष गौरीनवौर्य शहीदशवें वर्षकन्यामशादोजानीहादशवर्य विवारनकरकेस्जखलाकन्याकोमाता पिता ओउस का बड़ाभाईयेतीनदेखकेनरकमैगिरतेहैं (उत्तर) बलोवाच एकक्षणामवेगोरीहिसणेयन्तुरोोहसी त्रिक्षणासाभवेत्कन्या तारजस्वलार मातापितातथाभ्रातामानुलोभगिनीखका
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सर्वेनेनरकंयान्निदृष्टाकन्यारजस्वलार यहसयोनिर्मित ब्रह्मपुराणकाबचनहै अर्थनिननेसमयमैपस्माणुऐकपलगवावे उननेसम यकोक्षाकदतेजवकन्याजन्मेंतवएकक्षणमेंगो से दूसरे में रोहिणी तीसरेमें कन्या पोरचौथे रजस्व लामोजानीहै उमरजस्वलाकोदेखके उसीकीमानापि नाभाईबहन सबनरक में जाने (प्रश्न)यहलोकप्रमाणनहीं
उत्तरगंप्रमाणनहींक्यापलाजीके लोकप्रमाण नहींनोतुम्हारेभीप्रमाणनही होसक्ने . (प्रश्नावाहवाहपाराशरोरकाशीनाथकाभीप्रमाण नहीकरने
उत्तर)वाहजीवाहतुमब्रह्माजीकाप्रमाणनहीं कर निसाबह्माजीपराशरस्त्रीरकाशीनाथसे बड़ेनहीं हैंजोतु मलानी केवलोकांकोमहीमाननेनोहमभीकाशीनाथ पराशरके श्लोकोंकोनहींमानने प्रश्नानुसार लोकसंभवहोनेमेप्रमाणनहीं क्योंकि सहलाक्षणजन्मसमयमेहीहोजाते हैं विवाहकैसेहो सकलाहोरउमसमयविवाहकरनेका कुछफलभी || नोंदीरखना उत्तर जोहमारेश्लोक-प्रसंभवहैं नोनुसारेश्लोकभी ।
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असंभव हैकगकिचाउनवदशवें बर्षभीविवाहकरना निम्फल है कोकिसोलबर्यकेपश्चानचौबीसवेंचर्य पर्यन्त विवाहहोनेसे पुरुर्षकावीर्यपरिपक्वशरीरब लिएस्त्रीका गर्भाश्य पूराभोरशरीर भी बलयुक्त होने सेसन्तान उत्तमहोते हैं जैसेघाटबर्षकी कन्यामें सन्नानान्यनिकाहीना असंभव है ऐसेतीगौरीरोहणीं नाम देनाभी प्रयुक्त है यदिगोरी कन्यानहोकिन्नुका ली होनी उसकागोरी नाम रखना व्यर्थहै मोरगोरीम हादेवकीस्वीरोहसीवलदेवकीस्वीथी उसकोतुमपुरा शिलोगमावसमानमानने होअबकन्यामात्रमें गोरा भादिकीभावना करने दोनोफिर उनसे बिवाहकरना किसेसंभवचोरधर्मयुक्तहोसलाहै इमलियनुम्हारे
और हमारे दोश्लोक मिथ्याहोंगेक्योंकिजैसे हमने वसोवाच करनेभोक बना लिया हैवैसेवेभीपरा शरमादिकेनाममेकालिये इसलिये इनसबकाप्न माणकोड़ने वेदोंजेप्रमाणसेमवकामकियाकरो दिग्बोमनमे क्या लिखाहै
त्रीणिबर्याएयुदीक्षेनकमार्यनुमनीसनी उर्वनुकालादेनस्मादिदनमापनिम अर्थगकन्यारजस्वलाहुयेपीछनीनवयपर्यनपनीकीबो जकरके अपनेतुल्यपतीकोप्रान होवेजयप्रतिमाम
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स्जोदर्शन होताहैतोतीनवर्ष छत्तीसजारस्जम्बना त्येपश्चात् बिवाहकरनायोग्यहैइसलियेपूर्वनहीं उचित समयसे थोड़ी आयु बाली स्त्रीपुरुष कोगीधा नमें मुनीवरधन्वलरीजीमुश्वनमेंनिषेधकरते हैं उनका बचनहै ऊनयोडशबर्यायामप्राप्त पञ्चविंशनिम् यद्याधनेपुमानगर्भकक्षिस्थासविपद्यते। जातोवानचिरन्चीवेजीवहादुर्बलेन्द्रियः
तस्मादत्यन्नवालायोगर्भाधाननकारयेन अर्थासोलहबर्षसन्यूनवालीस्त्रीपच्चीसवर्षकमा युवालापुरुष जोगर्भकास्थापनकरेतो वोहकुक्षिस्थ दुवागर्भ बिपत्तिकोप्राप्त होना अर्थात्पूरणकालनका गर्भाश्यमें रहकर उत्पन्न नहीं होताअथवा उत्पन्नहो नो चिरकालनकनजीवे और जोजीवेभानोदर्बलेन्द्र यही इसकारणासन्ननिवाल अवस्थावालीस्त्रीमंग भिस्थापननकरे ऐसेऐसे शास्त्रोक्तनियम औरसृष्टी क्रमकोदेखने और बुद्धि और२५वर्ष से कम आयुवा लापुरुर्षकभीगर्माधान करने के योग्यनहीं होनाइन नियमांसे बिपरीजोकरनेहेहदुखभोगने हैं। पोरवयंवरकीरीनिसेवरकन्या आप विवाहकीम क करेंनो अनिउनमोरमातापिनादिकोभी अपनी
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सन्तानों की सूम बूम भले प्रकार करनी चाहिये क्योकि आजकल प्रविद्याकै कारण स्वयंबर की रीतितोकुरू कालपाकर प्रचलित होती दीखती है. परन्तु कन्या मा दि केमाना पितादिको तो बश्यवर कन्या के गुणक्र म विचारकर बिवाह पूर्वोक्त रीति करना चाहिये और जैसे हमारे जोनशी जी बिवाह सुमाते हैं इसका नाम सूरु तो नहीं जो तशी जी को उन्माद रोग समझना चाहिये "देखो बरकन्या का योग मिलाना थानोतशी जी राहुके तु आकाश के तारोंका योग मिलाने लगे भला देखो जो दम किसीसे कहैं कि हमारे पास एक घोड़ा है तुम इस को देखे लो और इसी के योग का दुसरा घोड़ा मिलाकर मोल लाड़ो जो गाडी में नोड़ी लगाई जावे और वोहम् र्ख घोड़े के मिलान की तो परीक्षा करे नहीं और विन्ध्या चल और हिमालय पहाड़ के फ़ासले देख दास्य कर और प्रयोग्य घोड़ा ले आवेतो यह सूमहै या अनम बस जोनशी जीनेनतो यह देखाकि लड़का लड़की पूरी विद्या भी पढ़चुकेया नहीं और लड़के लड़की ने सीतला आदि भयंकर रोगों से भी छुट्टी पाली वा नहीं बस अन्धों की तुल्य मंगल बुद्ध विचार अनुराधाधनि । ष्ठा चुकार थाली में गुड़ आदिमंगा गंगाजल उज्जल और जमताजलनिर्मल चिठ्ठीमे लिख पत्री
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कि हलदीलामृतकाकादेलापुजाचिट्ठीदेनाईको | जलदपमबिवाहरचालेलिवा-अलगहोनेहैं इतनाभी दिशकालका विचारनहीकरनेकिएकमाथसाहातु गानेसेदेशमेंगदरहोजावेगाोरप्रत्येकपदार्थविवाह वालोंको अनिमहमा मिलेगा बसस्वार्थियोंकोक्याट्टा मिरयाजवान अपनी हत्याकरनेसेकामफसनसीएक हीसाथ लूटलेनेहैं इसबीचमारोंके कुलबिवाहने | ष्ट और मायाकेमहीने में बना दिया और उनकोयह मयदेदिया किफिरने.दिनोंमेंसाहाहीनहीं हैरहस्य ती डूब जावेगी कुल चमारोंने तीनतीन ओरचारचार | बर्षके लड़के लड़कियों के विवाहछेड़दियजेष्टक भारंभसेसायाद के अन्ननकहमारेहालीपालियोंको दोलकेनाचसे एकलहमाभी फरसननमिलीओरय ही खेनी क्रममासमय और दोनोफसलोकासिरथाब समारीजमीननप्पड़पोरबंजडपड़ी रहगईअवक होभाईकाश्तकारों जमीदा यह हमारीतुम्हारीखे नीड्वीयाकिपोपजीकीरहस्पतीड्बीजोइनजोनषि यां केघर खाने कोनहीथानोहमहीसेकहातोना नाहमहीमिरमाथामारकेऐकसेरवाटा औरगुडकी डली औरएकमनसरी पैसानो चमारोंसे मिलाहैथा। लीमेंयहसामग्रीलेजाकरपोयनी कीभेटकरने ।
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अधरमचा दिया यह नसमाकिन हाली पालीचमारों कि विवाहमाघफागुणमें बनायें नौभी एक घंसौम्म कहा जाय क्योंकि जबखेती क्रम वालों को सुविता और शकर चावलभीसम्नाहोताहै औरगमन करनेकोऔर नाचने कूदने कोभीयहऋतुमीतल और उत्तम होती है नीसरे एक पंथ दोकानबिवाहका विवाह पोरफाग यसन होली की होली पोरजोसमझाने परभीनमानेगे नोलाचारइनजोतशियांकाप्रवन्धसरकारसे फरयाद करने करायाजावेण क्योंकि हमकोनो सरकारीमालदेना है। (प्रश्न भलायहनो दुबाजबदमकिसी का विवाहजो निधीसेनसुगावेगेनो विना जोनियकरासीकैसे मिलेगी
औरजबनकरासियों में मित्रनानहौवनोमदेवकोपुरु सखीमें दंगा बखेड़ारहेण उत्तर) दोहा
ऊंटकेगलमेंटोलबंधातकीडीकेगलपंगा विनापरीक्षाजोगमिलावरहैरानदिनरंटा यहकिसीभुगनेद्येमहात्माकाबचना सोसत्यापिस का माननाचाहिये क्योंकिजन्मकि नमिता | परतीमविरोधनहीं होता किनुखभावकेनामिलनेसे दोना है जब दोनों के स्वभावगुगाजहानक एक तुल्य शिंगे उतनी ही पीनी परस्पर दोनो में होगीनोरासलिन
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नसे प्रीती होतीनोएक घड़ी में लाखों पदार्थफलादिउत्प न होते हैं कोई मीठाकोईखट्टाकोईकड़वानीमन्नादि औररासीकीनोयपागणनाहैजोसयादिनरहतीहै घोर प्रत्यक्षदेखो तोमुसलमानईसाईनोरासनहीं मिलाने | उनमें प्रीनिक्यों होतीहैजबहमारेदेशमें गुण क्रमस्वभा|| घमनुकूल मिलाकरविवाह होताथा तबऐसीप्रीनिपुरु यस्त्री होतीथी कि एक दूसरेकेविकोवेसे पाणनक न्यागकरदेनेथे औरन व्यभिचारयहाथाक्योकिएकदूसरे के मियाय दोनोंके औरकोनमच्छामालूम होता | प्रश्नादूसरेमनी मेंजहांकहींप्रीतीदेखीनोअनुमान मि जानलोकियातोदई योगसेरासीमिल गई होगीया जामिलालेननो औरभीविशेषप्रीती होजानी उत्तर) आपके कहेकाप्रमाणभीयायेकिजो कछहम कहैवाही मत्यजान.लोऐसे तोहमभीकहदेंकिजहां कहीप्रीतीदेखीवदां अनुमानकरलोकियहोरासीनहीं मिलीओरामोमिलजातीतोप्रीतीनहोनीस्वभावही एक साहोगानवही प्रीती होगी ग्रहोकबीचमें डालकरयों मगड़ाडालनेहो प्रश्नांवाविधवा योगभीनदेखनाचाहियकोगहमीद है उत्तर) दौफयहोर्नियापकजोनशमेंबहुनसेबि शिवायोगकिसीवालविधवायोगकन्याक्षेत्राप्त या
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..
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(४३)
नीमिलाकर जिस पुरुष के प्रच्छे ग्रहह। बिवाह किया जाय जो स्त्री पहले मरीनो बिधवा योग झूठा जो पुर्ष पह ल मरातो प्राप्ति टी यह दोनो एक ही जोनश केसंगे हैं (प्रश्न) जो उसकी रासही किसीसेन मिलेगी उत्तर) यह नहीं हो सकता पहले कह दिया है कि एम घड़ी में लाखों उत्पन्न होते हैं एक गसके होने से प्राशि के सब दोषनाश हो जाते हैं
(प्रश्न) जो उस विधवा योग स्त्री का विवाह हीन किया नावेगा तब तो फिर जोनश सखहोगा
(उत्तर) बलहारी ऐसी नीघ्र बुद्धि के फिर वोह वि धवाही कैसी हुई और विधवा योग और तुम्हारा जोनश झूठा हवा
प्रश्न) इसका विवास हम ऐसे पुर्ब में करेंगे जिसके स्त्री ग्रह क्रूर लें (उत्तर) जो पुरुष पहला मरानो उसके ग्रहमठेजो स्त्री पहले मरीतो विधवा योग रूठा जो दोनो एक ही समय मरेतो दोनों योग झूठे नवोह विधवा हुई। बाहरंड या हवा (प्रधून) ऐसे विधवा योग का विवाह पहले किसी पत्थराक्षसे करके फिर किसी पुर्वमे किया जावेगा
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९४४)
(उत्तर) मनुष्य का विवाह पत्थर वृक्षसे कैसा और फिर पत्थर बृक्षके होते उसकी स्त्री का दूसरे के साथ विवाह करदें परन्तु सच्चे पत्ती के मरने पर भी दूसरा विवाह न करने दे बाहरे जोतिशफलन गुडे गुडीके बिवाह में भव्वा दोनेो एकसे तोडुग्ने हैं बादजी तुम्हारी भीवोही बानवे गीदड़ी आपतो कुत्तों से फड़चाई ह परन्तु औरों को शकुन वेनावे इनसे कोई पूछे कि तुम्ह रही घरोमें जिनके घुर्की मोरुसी जोतिश विद्याहै
सहस्त्र। बाल बिधवा बैठी हैं तुमने तो बिचारने में कोई भी कसर नरखी होगी हठको छोड़ कर देखे बाल बिधवा बाल्य बिवाह करनके कारण होती हैं जो वेद धर्म शास्त्रों के बिरुद्ध है देखो चैत्र मासमें जितने फल आंबट पर होते हैं आयांद मासमें उससे सोचा संस भी नहीं रहते इससे यह जानना कि बालक जन्मसे बीस बर्ष तक बोहत मरते हैं और बीस से तीस तक थोड़े मरते हैं यहबान मरदम शुमारी और देशके फोनी नामोंमें भले प्रका र मालुम हो गई है भला विचार तो करो परसोंको न भूख लगे और आज रोटी बना कर घरदेंतो सुना नहीं तो क्या है कुत्ता बिल्ली - प्रादिकी से कडों चिंता है देखा जो भारत की जीती राज प्रनादि
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(४५)
नमसा अवस्था में विवाह करते हैं उनके यहां थोडीही बिधवाहै औरजो हैं भी उनके कुछ सन्तान भी अवश्य ही होगी औरजो कहीं कोई बाल बिधवा भी होगी तो वो ह इन्ही महाराज जोनिशियों की करतूत और इनके का शी नाथके शीघ्र नाशका प्रताप होगया होगा प्यारे भाइयों चेतो अब नादर शादी नहीं जो कोई नरुण का रियों को मुसलमान छीन ले अबतो अंग्रेजी राजका दौर देशमें शान्ती के कारण सब बिगडे व्यवहारों को सुधाराना चाहिये अब काशी नाथके तीनसे बीके नवीन शीघ्र बोध की ढ़पडी मत पीटो अब तो बेदके नक़ारे की घोर हि विद्याका दिन ब दिन जोर है जहाँ तहाँ समाजों और सभाओं का शोर है यह सब सनातन धर्मके फैलने का तौर है ९ प्रश्न ) भाई सुनो तुम नहीं जानने जिसके भाग में बि थवा होना लिखा है उसमेंक्यात जोनश करे और क्या बिचार करने वाला करे सारी बात तो ये है
(उत्तर) जब नुमयह निश्वेरखने हो कि सारी बान अ च्छी बुरी भागमे होती हैं फिर तुम रात दिन क्यों लुटते फिस्ने हो कि हम अपने पूजा पाठ से तुम्हारे बिगडे कारज सुधा रदेंगे घरही भागका आसरा लेकर नहीं बैठने और भाग प्राप कहते हो किसको प्रश्न ) भाग हम उसको कहते हैं जो मनुष्य के जन्मसम
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य बेमाना उसकेमस्तकमेपछेयुरेभोगकेषक्षपहलेही लिखदेतीहै (उत्तर) फिरल्यायोहवेमाना उसकेभागकीनकलनाहा रिपासभीभेजदेनी होगीजिससेतुमभागकाहालबतानेलग नहोघोरवोहमलककीरेखाकिन-अक्षरोंमें लिखनी है फा रसीमेंयामागरी आदिमेंया अंग्रेजी भादिमें (प्रश्नाइन प्रक्षरोमेनहीहैवोहतो अनूठेही प्रशारजैसे नुमने कभीकिसीमुरदेकीसवीखोपरीमें देखे होंगे उत्तर वोहननूठेप्रक्षरतुमनेफिरकिसनरहजानाकियह विमानाकालेखहैहमनेतोयोहतरवोपरीदेखी चौरउसमें अग्रेजीकेसीलिखनकीएकपंगतीभी देखीपरीक्षाकरनसे ओरडाकटरोकेपूछनेसेमालूम हुवाकिवोहखोपडी | काजोडदेवोही नेसीमालमहोतीहसोयहसबतुम्हारा अन्धकारहैइसीअन्धकारलेचारचारपांचबर्षकीकन्या विधवाकरके बिठाईहैं
प्रश्न)कुछसंदेहनहीं कन्याहीरोडहोतीहैंकोईगाय भैंसरांडनहीं हुवाकरती उत्तर)संदेहव्यानहींसंदेहहेगर्भपान करने का संदेह हे खनत्रकेसारटीफिकटहासलकरनेका ... सन्देहहै चकलेमेंघरबांधनेकासंदेहहै घरका प्रसदा बजेवरलेकरकिसीभंगीचमारकेसाथभागजानेका
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संदेहहैमाबापकीमावरुधन्वालानेकासन्द वसन्त नरहजानेकासन्देहहैबदकारदोकरगौवमहल्लेकीस्त्रि योको विगाड़देनेकासन्देहैनसलकमटोजाने कासन्देह सिननारायणकीकथासुननेरकालेमेंधौलेहोजाने | का सन्देह हैरानदिमघरमै लडाईरखनेका पोरवोहन सन्देहहैजिनकोसबजाननेलिस्पनाकहनानोमनाहीचानक (प्रश्न)भाईमुनोभीहोगाननोसबठीकतुमनेकही धोरया हमोहमभीजाननेहैं कि ईश्वरकी गनीकोईभीनहींजान सकताउसकीगनीनोपर्जुनकोभीमालमनहीं हुईचीजो पाठपहरभगवानकारथ हांकनाथापरन्तु इननाहेकि आजकली कालमेंदानपुन्यऐसे कोईनहीं करनाभला इनना नोहैकि ग्रहमादिकडरसैयारपेसेदाथसेछोडही दिनाहै पापजानतेपुन्यकेप्रनापसेउसकाभीकल्याण है| बहानेसेहीलोगपुन्यदानकले हैं (उत्तर)हमपुन्यदानकरनेकोपुरानहींकहतेपरन्द्र एसेधोकेसैपुन्य करनेवालेचिोरकरवाने वाले दोनाही नर्क गामीहोते हैं दानपात्रकपात्रकाविचारकरकेदेना ओरलनासबकोउचिनदेएकनोरानउनकोदेनाचाहिये जोबिहानदेशक पकाक धीरधर्मसुधारमें अपना समयखर्चकरनेहेंजोसत्यवादीबोरसबकाकल्याण करनेचाटने वाले बामणगुणयुक्तपुरुषहदुसरेविया
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(४८)
बंधपाठ शानामादिक उपकारमेनीसरेगोरक्षामा दिदेशोन्नतीका में औरभी जिससमय जिसपालीकोनि सपदार्थकीप्रवश्यकताहोउसीसमय उसीप्राणीको। वोही वस्तु दानदेनापरमदानहै प्रत्यहव्याख्यानब हुन बदगया बुद्धिमान थोड़ेहीमेय हुन विचारकरलें| गि अवपरमेश्वरसेपहीप्रार्थनाहैकिहेसत्यस्वरूपन संसारसे प्रसत्यप्रोरपावंड़कानाशंकर पोरभारत सन्तानको ऐसीसुबुद्भिदेकि जिससे यहदेशदुर्दशा को देखकर सुदशाका बिचारकरके उन्ननिकोपाप्नहीं
.
इनि. .
प्रो३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः
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आर्यसमाजकेनियम ||२॥ सबमन्यविद्या औरनोपदार्थ विद्यामेजाने जाते हैं
उनका प्रादिमूलप २. ईश्वरसच्चिदानन्दस्वरूप निराकार सर्वशक्तिमान्
न्यायकारी, दयालु अजन्मा अनन्त निर्विर अनादि अनुपम सर्वाधार सर्वेश्वर सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी
अजर अमर अभय नित्य पक्निीरसृष्टिकर्ताहै - उसीकी उपासना करनीयोग्यहै ... ३. वेदसन्यविद्याअंकापुलकहैवेदकापदना पदाना । औरमुन्नासुनानासबन्ना-कोपरमधर्महै ४॥ सत्यग्रहण करने और असत्यके छोडनेमेसर्वदायन | रत्नाचाहिये
॥ सवकामधर्मानुसारजनसत्य औरषमत्यकोविचा ॥ .रकरकें करने चाहिये। . ॥६। संसारका उपकारकग्नाइससमाजकामुख्य उद्देश्यहै
प्रर्थातशारीरिक मामिकसामाजिक उन्ननिकरना। ७। सबसे प्रीतिपूर्वकधर्मानुसारयथायोग्यवर्तनाचाहिये। | अविद्याकानाशीरविद्याकीरद्धिकरनी चाहिये। टी प्रत्येककोअपनी हीडनविसेनमंतुष्टरहनाचाहिये किन्न । सबकी उन्ननिमअपनीउन्ननिसममनीचाहिये॥ ॥ । सबमनुष्यों कोसामाजिकसर्वहितकारी नियमपाल, . . नेमें परतन्त्रमनाचाहिये घोरप्रत्येकहित्कारी
नियममेंसबस्वतन्महैं।
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Chhangamal Lalchand Goklani
बान्धव बधमाथा नं. १२
महात्मा बुद्ध
का
जौवन-चरित
श्रीवृन्दावनलाल वर्मा द्वारा संकलित
प्रथमावृत्ति
5
कुंवर हनुमन्त सिंह रघुवंशी अध्यक्ष राजपूत ऐंग्लो-ओरियण्टल प्रेस द्वारा मुद्रित और प्रकाशित ।
100
पागरा
राजपूत ऐंग्लो-मोरियरटल प्रेस । सं० १९६१ वि०
++83163++
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मूल्य 1)
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सूचना।
इस पुस्तक का पूर्व मुद्रण-स्वत्व कुंवर हनुमन्त सिंह रघुवंशी अध्यक्ष राजपूत-ऍग्लो मोरियण्टल प्रेस, नागरा को दिया गया है।
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भूमिका |
बुह के जन्म के समय भारतवर्ष में वैदिक धर्म लुप्तप्राय है। गया था। शोर व ममागं की बड़ी प्रबलता हो रही घी । यों तो महाभारत के सर्वनाशी भीषण संग्राम के बाद ही से भारत का अधःपतन प्रारम्भ है। गया था परन्तु बुद्ध के ३ शताब्दी पहले ( विक्रम के के। ई एक हजार वर्ष पहले ) भारतवर्ष कं। श्रवस्था बड़ी शोचनीय है। गई थी । वाममार्ग मे भारत को हिंसा और दुराचार में ऐसा लिप्त किया, कि इसके उद्धारक। बहुत पड़ी अाशा रही । अधिकांश लोग वेद का नाम तक भूल गये थे । इसी दुस्समय में, मानो भारत के बचने के लिये, ईश्वर ने बुद्ध जन्म दिया ।
बुद्ध देव ने इन दुष्कर्मों को रोकने और हिंसारहित पवित्र जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया । महात्मा बुद्ध मे बड़े परिश्रम के साथ विद्याध्ययन और ज्ञान सम्पादन किया था। ये पूर्व विद्वान्, सर्वशास्त्रवेत्ता और संयमी पुरुष थे। इनका जीवन निस्पृह खोर निर्दोष था । ये मनुष्यमात्र के हितकारी सिद्धांतों का प्रचार करना चाहते थे । अतः इनको अपने उपदेशकार्य में बड़ी सफ लता प्राप्त हुई। बहुत सुगमता के साथ सम्पूर्ण भारतवर्ष में बहुमत का प्रचार हो गया । पीछे से बोद्धमत के प्रचारकोंने तिब्बत, नेपाल, तातार, मङ्गोलिया, जापान, चीन, अनाम, ब्रह्मदेश, सिंहलद्वीप ( लङ्का), स्थान, मलाया, कोरिया, मंडरिया, साइबेरिया का कुछ माग, बारुहीक ( प्राथमिक उत्तर अफ़ग़ानिस्तान, चित्राल और
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बुख़ारा ) गान्धार । आधुनिक कन्दहार, उत्तरीय और पूर्वीय बलोचिस्तान और ग़ज़नी--यहां पर आर्य राजा राज्य करते थे ) आदि दूर दूर तक के देशों में जाकर इस मत का प्रचार किया । इन में से बाल्हीक और गान्धार को छोड़ कर अन्य देशों में इस धर्म को जड़ जम गई । बद्ध धर्म का प्रभाव अब भी उन देशों में बना हुश्रा है । भारतवर्ष से चीन में कुछ बौद्ध परिव्राजक इस धर्म का प्रचार करने गये थे। विक्रमी सम्वत् के १६० वर्ष पूर्व इन लोगों का जाना सिद्ध होता है।
विक्रमी सम्बत्के ४ वर्ष पूर्वतक चीन में बौद्धधर्म बहुत शं घ्रता के साथ नहीं फैलसका, क्योंकि सब लोगोंका ध्यान इसकी और अ.कृष्ट न हुअा था। परन्तु जब (वि० पू० ४ वर्ष) चीन सम्राट् मिङ्ग-ती चीन के सिंहासन पर बैठे, तब यह चीन भर का धर्म हो गया । यहीं से यह जापान इत्यादि देशों में फैल गया । समय समय पर चीनी यात्री भारत में बौद्ध धर्म से सम्बन्ध रखने वाली नई बातें जानने के लिये प्राते रहे । उनकी प्रकाण्ड धर्म रुचि का इस से अच्छा पता लगता है।
माज तक दुनिया में जितने धर्म निकले हैं, उनमें से सब से अधिक अनुयायी इसी धर्म ने श्राकृष्ट किये हैं,दुनिया में बौद्ध सब से अधिक हैं। अाजकल इस धर्मका यरोप व अमेरिका में अधिक प्रचार हो रहा है। बहुधा विद्वान् पुरुष ईसाईमत छोड़कर बौद्धधर्म स्वीकार करते नाते हैं । इस मतके अनेक ग्रन्थों के अंगरेजी श्रादि भाषाओं में अनुवाद हो गये हैं। इन यूरोपियन लोगों ने पाली . भाषा बड़ी बड़ी कठिनाइयोंसे सोखकर, तथा बौद्ध ग्रन्थों
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तो बड़े परिश्रम से सोच कर उनका अंगरेजो, मन, जर्मन श्रादि.भाषाओं में अनुवाद किया है। खेद है कि बिन महात्मा बुद्ध के विचारों को अन्य देशों में इतनी कदर हो रही है, उनका कोई विस्तृत जीवन-चरित्र अब तक भारत की भावी राष्ट्रीय भाषा हिन्दी में नहीं प्रका. शित हुप्रा । इस प्रभाव को देख कर, कुंवर हनुमन्तसिंह रघुवंशो मध्यप राजपूत एंग्लो-ओरिएण्टल प्रेस प्रागरा' व सम्पादक 'स्वदेश-बाम्धव' के अनुरोध से यह संगित 'जीवन-चरित 'अल्प समय में लिख कर पाठकों को मेट करता हूं। यदि यह रुचिकर हुना तो बहुत बीघ्र बुद्ध का विस्तृत जीवन-चरित्र प्रकाशित करूंगा।
में कुंवर हनुमन्तसिंह जी को विना धन्यवाद दिये नहीं रह सकता । आप चाहते हैं, कि हिन्दी में उत्तमोत्तम पुस्तके प्रकाशित करें, परन्तु जब तक उत्तम पुस्तकों की सर्व साधारस हिन्दी भाषी जनों बनुपाहकता न हो तब तक हिन्दी भाषा के साहित्य का उत्कट होना कठिन मालूम होता है।
मैंने इस पुस्तक लिखने में J. Barthetemy Saint 'Hillaine त "युद्ध का धर्म" औरMarcus Dods, D. D. कृत "मुहम्मद, बुद्ध और ईसा" नामक पुस्तकों से बहुत पुष सहायता पाई, इस से में इनका कृताहूं।
झांसी, बुन्देसरा । बन्दावन शाखा वर्मा। भारका पतीया ०१९६५ वि०)
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महात्मा बुद्ध।
Oविक्रमी सम्बत से 900 वर्ष पहिले कपिलवस्तु नामक राज्य की राजधानी कपिलवस्तु नगर में महात्मा बुद्ध का जन्म हुमा पा । श्राज कस्ल की अवध सीमा के उत्तर, नेपाल-पर्वतों के ठीक नीचे यह राज्य था।
लङ्का में एक अन्य महावंश नाम का है । उसमें बुद्ध पैदा होने का वर्ष विक्रमी सं० से ५६६ वर्ष पहिले और निर्वास ४६ वर्ष पूर्व लिखा है, और महानिर्वाण ८० वर्ष पोले। कई एक यूरोपियन विद्वानों ने इसकी जन्मतिथि ४२३ वर्ष वि०पू० (४० ई०पू० ) सिद्ध करना चाही, और निर्वातिथि ठीक ८० साल बाद । हम सब में लंका के महावंश का महत्व विशेष है। यह ग्रन्थ पाली भाषा में लिया गया। यह ग्रन्य सं० १६ और ५३४ के बीच में लिखा गया घा, इस कारण प्राचीन है, और प्राचीन होने ससा, तरतीबबार बात है सकार रस की तिविधिक मानने के योग्य है । कपिलवस्तु में सूर्य वंशोपत्रिों की शाम ज्ञासा राज्यशासन करती प।। इन्हें गौतम भी कहते थे । बुद्ध जी के पिता का नाम
विषमी समान की पांचों मतादी पादि में फाहियान नामक एक च! - यात्री भारत मा था। उस समय कपिलवस्तु उजाड हो गया था। इम के दा मी वर्ष बाद लगमन सम्बन र विक्रमी मनसेने मी इन संडारों को दंम्बा था ।
.नको बसोया तम्बाता २.राजा मह.भोर पवन का नकद .मोनको परिधि में पतलाता है । यह चतुर्कोट उम समय माफदिखाई देता । न खंडगे में बोमानेपन को बरको माता का नयनागारमा गम चयन का मग चिन्हाया था।
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शुद्धोदन था । यह उस समय राजा थे। बुद्ध की माता का नाम मायादेवी था। यह राजा स्वप्रबुद्ध की पुत्री थी।
मायादेवी रूप लावण्य में बहुत प्रसिद्ध थी । मायादेवी के शुभ गुण और उस की प्रतिभा, सुन्दरता से बहुत बढ़े हुए थे, क्योंकि उसे विद्या और धर्म के सर्वोत्कृष्ट और सर्वश्रेष्ठ तत्व प्राप्त हुए थे । शुद्धोदन अपनी रानी के योग्य था, वह नियमानुसार राज्यशासन करता था। शाक्य लोगों में कोई भी राजा अपनी प्रजा से-मस्त्रियों और दरबारियों से लेकर साधारण गहस्थ और व्यापारियों तक से-इतना सन्मानित न हुभा जितना शुद्धोदन हुमा था।
यह श्रेष्ठ घराना सी योग्य था कि इस में महात्मा बुद्ध से जन्म ग्रहण करें। बुद्धदेव क्षत्रिय अर्थात् योहाजाति से थे इसलिये अपने यौवन काल तक योद्धाओं के से कार्य करने योग्य गुण सम्पादन करते रहे और जम अन्त में उन्होंने धार्मिक जीवन स्वीकार किया तो अपने चुराने प्रसिद्ध घराने के नाम से शाक्य मुनि या श्रवण गौतम कहलाये थे। इनके पिता ने इन का नाम सिद्धार्थ या सर्वार्थसिद्ध रक्खा था। इन का यह नाम तब तक रहा जब तक कि युवराज थे।
गर्भवती होने पर प्रसव समय के निकट महारानी मायादेवी अपनी मातामही के लुम्बिनी* नामक उपवन में चली गई। वहां पर उन के गर्भ से उत्तराषाढ़ की
• मातामही लुम्बिशो या लुम्बिनी के नाम से यह उपवन मी लुम्बिी माम, प्रविहाचा । लुम्बिनी उपवन कपिलवस्त के २४ मौख उत्तर पश्चिम था । छ नसार
सान पर गया था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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तीसरी तारीख, या जैसा कुछ अन्य कहते हैं, वैशाख की १५ वी को बालक सिद्वार्थ का जन्म हुमा । जिस समय सिद्धार्थ गर्भ में थे मायादेवी ने बड़े बड़े वृत किये थे, इस कारण वह बहुत निर्बल हो गई थी। ब्रालापंडितों ने यह भविष्य वाखो की चो, कि होने वाला बालक योगी होगा, और भिक्षा इत्यादि से जीवन निर्वाह करता हुश्रा मारा मारा फिरेगा। इस कारण उन का दिल टूट गया था। वह अपने बच्चे को माता को त्याग कर भीख मांगते हुए मारा मारा फिरते हुए नहीं देख समतीची। मकारों से सिद्धार्थ को जन्म देने के सात दिन बाद वा परलोकवासिनी हुई। माताहीन बच्चा मायादेवी की बहिन और सोत प्रजापति गौतमी के सुपुर्दमा। यह प्रजापति गौतमी सिद्धार्थ के बुद्ध होने पर उस के बड़े से बड़े मक शिष्यों में से एक थीं।
बालकपनी माता दूध ही सुन्दर पा,और बालम परिणत असित ने, जो पुराने देवमन्दिर में लेजाने के उत्तम पर नियुक्त पा, कहा, कि उस के चक्रवर्ती होने के ३२ मुख्य सा , और ८० दूसरे। कुछ है, सिद्धार्थ पावर्ती राजा नही तो चक्रवर्ती धर्माचार्य हुए। जब बापाठशाला भेजे गये, उगों ने अपने गुरुजनों से भी अधिक प्रतिभा दिखाई । उनमें से एक का नाम विवामित्र पा, सिद्धार्थ उसी की शिक्षा में अधिक रसे गये थे, उस ने कुछ दिन पीले कर दिया कि मेरे पास और अधिक कुछ मी सिखाने को नही अपनी उम वाले सहपाठियों के साथ यह बाल्यावस्था में सेल कद में भाग नहीं लेते थे; उस समय भी वे सच्चतर
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विचारों में मम दिखाई पड़ते थे । मनन करने के लिये वह प्रायः अलग रह कर एकान्त सेवन करते थे । एक दिन जब वे अपने साथियों के साथ ग्राम्यक्षेत्र देखने गये तो अकेले एक जंगल में घमते फिरते चले गये। वहां वे कई घंटे रहे । कोई नहीं जान सका, कि कहां गये। शुद्धोदन बड़े चिन्तित हुए, और स्वयं ढूंढने को निकले । उन्हों ने सिद्धार्थ को जंगल में जम्ब वृक्ष की छाया में ध्यान में अत्यन्त निमग्न पाया।
अब युवक राजकुमार के विवाह का समय निकट श्रा पहुंचा। शाक्य लोगों में से वृद्ध पुरुष को ब्राह्मण पहितों की यह भविष्य वाणी खूब याद थी कि राजमुकुटकी अपेक्षा सिद्धार्थ योग भस्म अधिक पसन्द करेगा। इस कारण उन लोगों ने राजवंश की वृद्धि के लिये राजकुमार के शीघ्र ही ब्याह करने की प्रार्थना की । विवार से नवयुवक को सिंहासन से चपेटने को उन्हें प्राशा थी। राजा सिद्धार्थ के विचारों से सब जानकारी रखते थे। वे स्वयं उन से इस बात के बेड़ने का साहस न कर सके। उन्हें ने वृद्ध पुरुषों को बात चीत करने के लिये कहा । सिद्धार्थ मे, जोकि इन्द्रिय के बुरे प्रभावों से विष, अग्नि बा तलवार की अपेक्षा अधिक डरते थे, रोपने विचार के लिये सात दिन का समय चाहा । सब मोचने पर प्रार्थना स्वीकार की। उन्होंने विचार लिया कि पूर्व ऋषियाने मी व्याह किये हैं, और उन के बारव में रुकावट नहीं डाल सका तो यह मेरे शान्त मध्ययन, ध्यान और मनन नी बिन नहीं डाल सकता।" इस तरह सोच विचार करने के बाद उन्होंने एक शर्त
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पर प्यार करना स्वीकार किया कि " मेरे विवाह के लिये जो की ठोकको जावे, वह नीचहदया या अशुद्ध महो। यदि वर वैश्य या शूद्र कन्या भी होतो कुछ पर्ज नहीं। मैं उसे तमी प्रसन्नता के साथ ग्रास करूंगा जैसी ब्रालर या क्षत्रिय कन्या को । उस में मेरो इच्छानुमार गुरु अवश्य होने चाहिये।" सिद्धार्थ जिन जिन गुों को अपनी गाङ्गिमी में चाहते थे उनकी उन्होंने एक लम्बी सूची तय्यार की, और बद्ध पुरुषों के हाथों दी कि उन सोगेको मनचाही दुलहिन ढूंढने में सहायता मिले ।
अब राजपुरोहितने अपना काम प्रारंभ किया। वह घर उधर भावश्यक लड़की की खोज करने लगा। नवयुवतियों में से सिद्धार्थ के लिये योग्य जोड़ो ढूंढने लगा। सिद्धार्थ ने गुखों को जो सूची तय्यार की चो उस के अनुकल बोग्य कन्या का मिलना कठिन हो गया । अन्त में ए.कुमारी में पब अभिसषित गुण पाये गये । उसने पुरोहित ने सिद्धार्थ की पो होने की माना की। निदान वर गुत सी योग्य और सुन्दर सरियों के सच सिद्धार्थ के सामने बुलाने पर गई। पुष गौतम ने उसे पसन्द किया और शुद्धोदन ने भी
सम्बन्ध को स्वीकार कर लिया परन्तु इसकी का पिता, शास पराने का वा और जिस का नाम दरपालिका र सिलवार के विवाह सन्तुष्ट नहीं हुमा । पर सिद्धार्थको भानसी, निरुद्यमी,और एकान्त.
वो समझता का। उसका विचार पा कि गौतम में बाब मुखों को होता है. अधिवोषित पराकम का नाम है। बराहपाति ने स्पष्ट कर दिया, "पूर्व इस कि सिद्धार्थ
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मेरी कन्या का पाणिग्रहण करे, उसे सब प्रकार की विद्या में अपने को सिद्धहस्त प्रमाणित करना पड़ेगा।" उस ने कुछ क्रोध पूर्वक यह भी कहा कि “ राजकुमार महलों में बालस को गोद में खेलता है, परन्तु हमारी जाति का यह नियम है कि पुत्रियां केवल उन्हीं लोगों को दोजावें जो मर्दाना कामों में निपुण और अभ्यस्त हों, न कि सन को जो शस्त्र विद्या से अपरचित हों। इस कुमार ने कभी तलवार चलाना, मुष्टि प्रहार, धनुष की की प्रत्यञ्चा को चढ़ाना, मल विद्या, और युद्ध शाख नहीं सीखा है, तो फिर मैं कैसे एक ऐसे अयोग्य वर को अपनी प्यारी कन्या सौंप दूगा ?" ___ अब राजकुमार सिद्धार्थ उन गुणों के दिखाने को विवश हुए जो स्वयम्वर के लिये श्रावश्यक थे। स्वयंघर का यज्ञ प्रारम्भ हुआ । ५०० नवयुवा शाक्य वीर, जो शस्त्र संचालन में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे, एकत्रित हुए, और सुन्दर राजकुमारी जिसका नाम गोपा था जेता की अर्धाङ्गिनी होने की प्रतिज्ञा पर वहां उपस्थित हुई। राजकुमार सिद्धार्थ ने बहुत सुगमता से अपने को उन शायों से बढ़ा चढ़ा सिद्ध कर दिखाया । उसके प्रतिस्पर्धी मुंह बाए रह गये । यह स्वयस्वर की परीक्षा दण्डपाणि ने बहुत सी विद्यामों में ली थी। सिद्धार्थ ने लेखन विद्या, गणित, व्याकरण, तर्क, न्याय, और वेद शास्त्र में अपने प्रतियोगियों से तो सर्वोपरि प्रमाणित किया ही, किन्तु जितने वहां परीक्षा के परीक्षक थे सन से भी अपना पद कंचा सिद्ध कर दिया । वे अंपने परीक्षकों से भी अधिक विद्वान् और बड़े बड़ेथे, वे लोग इनकी विद्यायोग्यता देख
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दन रह गये । जब मानसिक अभ्यासे के पीछे शारीरिक व्यायामों का नम्बर जाया । सम्होंने अपने सब साथियों को कूदने, फांदने, तैरने, दौड़ने, धनुष खींचने और दूसरे कामेमेिं हरा दिया । इन बातों में उनकी जानकारी, शौर उनका अभ्यास पूर्वतः सिद्ध हुआ। उनके प्रतिद्वन्दियों में सनके दो चचेरे भाई भी थे। एक का नाम श्रानन्द था जे उनके बुद्धत्व पानेपर उनका एक बहुत बड़ा और पक्का भक्त शिष्य हुमा, और दूसरे का नाम देवदत्त था जो स्वयंवर में हार जाने के कारण बड़ा क्रोधित था, और अन्त में सिद्धार्थ का विकट शत्रु हो गया था । सिद्धार्थ को अपनी विजय का पारितोषिक सुन्दरी गोपा के रूप में मिला । गोपा भी जैसा अपने को समझती थी उसी योग्य पद पर पहुंच गई और युवराची पद से विभूषित हुई । उसने घर के लोगों के रोकने पर भी महल वालों के सामने अपना सुख ढांपना बन्द कर दिया । इस के लिये उसने प्रभाव दिया कि " वे थे। चम्र्मात्मा है, चाहे बैठे हों, बड़े हीं और फिरते है। बदा दर्शनीय हैं। एक मूल्यवान् दमदमाता हुआ हीरा कंडे की बेटी से और भी अधिक सम्बल दिखाई पड़ता है। जे। स्त्रिर्या अपने मन को अपने बशमें रखती हैं और जितेन्द्रिय हैं वे अपने पतिसे सन्तुष्ट रहती हैं, परपुरुष को तुच्छ समझती हैं और का विचार तक नहीं करतीं, उन्हें मुंह ढांपने शीर पर्दा डालने की कोई आवश्यकता नहीं है । वे तो सूर्य और चन्द्र के समान स्वयं सज्ज्वल हैं। श्रेष्ठ और पवित्रामा ऋषि, और दूसरे देवनय मो मेरे विचारों को जानते हैं, और मेरे चरित्र, धर्म, सत्य और नयता को खूब समझते ་་
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हैं तो फिर मुझे मुंह ढांपने की क्या आवश्यकता है ?
ऐसे प्रेम और ऐसी पवित्रता के साथ यद्यपि इस जोड़ी का जीवन सुख पूर्वक व्यतीत हो रहा था, तथापि सिद्धार्थने जिन विचारोंका पहलेही से निश्चय कर लिया था उन्हें वे न बदल सके । वे अपने विशाल महल में हर तरह के भोग विलास के सामानों से घिरे हुए थे, और आमोद प्रमोदकी किसी वस्तु की कमी न थी परन्तु जिस पवित्र जीवन का उन्होंने दृढ़ संकल्प किया था उसे वे किसी तरह भी नहीं छोड़ सकते थे । एक दिन उन्हें । ने अपने मन में बड़ी उदासीनता के साथ कहा, "यह सम्पूर्ण संसार बुढ़ापे और बीमारी के दुःखों से परिपूर्ण हो रहा है । मृत्यु की आग से निगला जारहा है और हर तरह के सहारेसे वञ्चित है । मनुष्य का जीवन श्राकाश में बिजली की चमक के समान है, जैसे एक झरना पहाड़ से नोचे झड़ा के के साथ बहता है उसी तरह यह जीवन विना किसी रोक टोक के बहुत जल्द चला जाता है । इतना जल्दी जाता है कि कोई रोक नहीं सकता I इस संसार में तृष्णा से और प्रज्ञान से जीव बुरे मार्गों में जा रहे हैं । जिस कुम्हार का चक्र बार बार घूमता है, उसी तरह अज्ञान पुरुष भ्रमते फिरते हैं । तृष्णा की प्रकृति, जे कि भय और दुःख से मिली हुई है, सब कष्टों की मूल है। इस से तलवारको तीक्ष्य चार सें मी अधिक डरना चाहिये और विषले वृत के पत्ते से अधिक भयङ्कर समझना चाहिये । यह दावा है, प्रतिष्धनि है, लहर है, स्वप्न के सदृश है, एक निस्सार शीर पोथी व तर के समान है, जादू जैसी धोखेबाज़ नहीं हुई है, पानी के बबूले के बराबर है ।
तरह
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रोग मनुष्य की शारीरिक सुन्दरता का नाश कर देता है, पानेन्द्रियों को नियंत्र कर देता है, मनोवृत्तियों और बल का नाम कर देता और घन व कुशलता का गला घोंट डालता है। इससे बार बार मौत होती है और भावागमन का पचड़ा लगा रहता है । प्रत्येक जीव चाहे वह जितना ही प्यारा, अत्यन्त सुन्दर और महा ममतापूर्व हो परन्तु सदा के लिये शासों को मोट हो जाता है । तब मनुष्य असहाय, अकेला और निराश्रित मारकमारा चिरता है। उसके पास केवल उसके सामारिक प्रमों का पल रह जाता है और कुछ भी नहीं।"
इसी तरह और और निम्न लिखित उदासीनता के बाप्प बह प्रायः बहा करता चा:___सब संगठित वस्तुओं का नाश होगा । जो कुछ गठित हैवानाश्य है, यह मिहीर बासन के समान है जो थोड़े
बजे दुबड़े बड़े हो जावेगा, सचार के घर के बरा बर, रेत के बने हुए घर के या नदी रेतीले किनारेके सदृश है । सम्पूर्व गठित वस्तुएँ कार्य और कारण में परिणत। एक दूसरे में इस तरह मिदी दुई जिस तरह बीज में अंकुर, पद्यपि अंकुर बोलनहीहै।सानो और बुद्धिमान् दिखाज सूरतों के झंझट में नहीं फंसते । बार लिये वह लमही बो रगही जाती है, और वा वि से बह रगड़ जाती है और हापों का काम, ऐसी तीन बातचिन से भाग पैदा हो जाती है परन्तु वरबाग विलुप्त हो जाती है और वह ऋषिको उमे व्यर्थ होता है, अपना करता हुमा कहता है यह कहां मे भाई और कहां सी गई ? जब जीमहोठों या ताल गा
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( १० ) कण्ठ पर बल मारती है, तब शब्द निकलते हैं । और भाषा मस्तिष्क के सहारे बन जाती है परन्तु सम्पूर्ण बात चीत केवल प्रतिध्वनि मात्र है और भाषा का स्वयं अस्तित्व नहीं है। फिर सितार से जे ध्वनि निकलती है उस के विषय में ऋषि अचम्भित है। कर कहता है कि यह कहां से भाई और कहां चली गई ?
इस तरह सम सूरतें कार्य और कारण से पैदा हुई हैं और योगी या ऋषि को ध्यान करने पर जल्दी मालूम हो जाता है, कि सूरतें कुछ भी नहीं हैं और यह अकेला कुछ नहीं का तत्व ही अपरिवर्तनीय है। जो वस्तुएं हमें अपनी इन्द्रियों के द्वारा मालूम होतो हैं वे अमल में हैं ही नहीं, उनमें स्थिरता नहीं है और यह स्थिरता ही है जो धर्म का मुख्य लक्षण है।
यह धर्म जो संसार को बचाने के लिये है, मैं समझता हूं और मेरा कर्तव्य है कि मैं इसे मनुष्यों पर प्रगट कर दूं। मैंने कई बार सोचा है कि जब में पूरा जान पाजाऊंगा, सब मनुष्यों को इकट्ठा करूंगा और उन्हें अमरत्व के द्वार में जाने का ढंग बतलाऊंगा। भवसागर के चौड़े समुद्र से उबार कर उन्हें सन्तोष और सहिष्क्षुता को पृथ्वी पर स्थित करूंगा। इन्द्रियों के कष्टप्रद विचारोंसे स्वतन्त्र करके मैं उन्हें शान्ति में स्थिर करूंगा । जीव जो अज्ञान के गहरे अंधेरे में सड़ रहे हैं उन्हें धर्म का प्रकाश दिखाने के लिये उन्हें नेत्र दूंगा जिन
वे पदार्थों को जैसे वे सचमुच हैं देखलें,मैं उहें निर्मल धान की सुन्दर चमक भेंट करूंगा, उन्हें अपवित्रता और सुटाई से रहिव धर्म के चक्षु दूंगा।
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ये गम्भीर विरार युवक सिद्वार्थ को उसके स्थानों तक में बताते थे। एक दिन उसने सुना कि स्थान में कोई उस से बह रहा है कि " जे संसार पर प्रगट करना निश्चित कर चुका है उस का समय मा चुका है। जो स्वतन्त्र नहीं है वह दूसरों को स्वतन्त्र नहीं कर सकता। अन्धा अन्धों को मार्ग नहीं बलता सकता, जो रहार पा गया है वही दूसरों का उद्धार कर सकता है, जिस के प्रांखें हैं वह उन लोगों को मार्ग बता सकता है जो उसे नहीं जानते । सम लोगों को, चाहे वे कोई हो, जो सांसारिक शुष्मानों से नष्ट हो रहे हैं, अपने घरों से चिपटे हुए हैं और अपने घन, प्रात्मज और पत्री में रत रहते हैं उन्हें ठोर शिक्षा दे। और उन में ऐसी अच्छा उत्पमा करो जिथे संमार में समर करते हुए साधु सन्तों का पवित्र जीवन धारण करें।"
सी बीच में राजा शुद्धोदन को इन बातों का कुछ सन्देह हो गया । वह उन बातों को ताहने लगा वो उसके लाले पदय में उत्पन हो पर उस को बेचैन कर रही थी। उस समय राजा की ममता और चिन्ता दस गुनी बढ़ गई । उसने सिद्धार्थ के लिये तीन नये . महल बनवाये। एसबसन्त चतु के लिये, दूसरा गर्मियों
लिये और तीसरा जाह के लिये । राणा परतावा कि कही रामकुमार सांसारिक दुःखों से पबहा कर निकल मनाने इसलिये उसने अत्यन्त बड़ी मात्रा दे रस्ती चो, किम की प्रत्येक गति-मति पर दृष्टि रक्सी जाये। लेकिन यह सब होशियारी और जापानी विफल दुई । मिन की कमी भाशा न चो, जिन का कभी विचार
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भी न था और जो विचित्र बातें थीं उन सबों ने मिल कर राजकुमार के निश्चय को और भी बढ़ता हुमा बल दिया । इन से सिद्धार्थ की दृढ़ता और भी दृढ़ हो गई। ____ यह एक दिन बहुत से लोगों के साथ लुम्बिनी उपवन को रथ में बैठ कर नगर के पूर्वी फाटक से जा रहे थे। यह उपवन इन्हें जम्म ही से प्यारा था क्योंकि यहां पैदा हुए थे। इस जगह जो इन्होंने बाललीला की थी उस की सुधि से यह उपवन और भी अधिक प्यारा हो गया था।
रास्ते में इन्हें एक बुढा आदमी मिला। उसके बदन भर में झुर्रियां थीं और उसकी नसें और पुढे ढीली रस्सियों की तरह मालूम होते थे, दांत बिलकुल हिलते थे, कठिनाई से दो चार घर्राते और बिगड़ते शब्द बोल सकता था। ऐसा निर्बल था कि शक्तिहीन हाथ में लकड़ी का सहारा होने पर मी पग पग पर गिरा चाहता था
और उसकी झुकी कमर और सूखे अंग पत्ते की तरह हिल रहे थे।
राजकुमार अपने सारथी से बोले " यह भादमी कौन है इसका कद ठिगना, बल से हीन है, इस का मांस और रक्त सूख गया है, इसके पढे खाल के थैले में लटक रहे हैं, बाल सफेद हैं, दांत हिलते हैं, और शरीर निकम्मा हो गया , विचारा लकड़ी पर झुका हुमा बड़ी कठिनाइयों और क्रश के साथ पग पग पर गिरता पड़ता अपने को घसीटे लिये जा रहा है। पास के घराने ही को यह विशेषता या यह नियम सम्पूर्ण मनुष्यों के लिये है।"
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सारी ने कहा, "कुमार, यह पुरुष बुढ़ापे के कारण इतना निबंल हो गया है, सभी सब इन्द्रियां अशक हो गई है, दुःखों ने उसके बल का नाश कर दिया है, समले सम्बन्धियों ने उससे किनारा कर लिया है; और इस का कोई रक नहीं है, प्रत्येक काम में निकम्मा होने के कारण, यह बस में सड़ी हुई लकड़ी की तरह क दिया गया है। यह कुछ इस के घराने को विशेषता नहीं है। जितने जीव हैं उन सब का यौवन बुढ़ापे से विचित हो जाता है, साप के माता पिता मादि सम्पूर्ण सम्बन्धी और अन्य वर्ग का भी इसी तरह अन्त होगा। यह सब के लिये स्वाभाविक बात है।"
यह सुनकर सिद्धार्थ ने कहा "प्रधान और निबल पुरुष में दूरदर्शिता नहीं होती, सो कारर वह जवानी
मद पर हो पर घमारा परता और भाने वाले बुढ़ापेवा विचार नही रखता। जब मैं मागे नहीं जाऊँगा। रमान तुरन्त रख को लौटायो । मैं भी बुढ़ापे से प्राकमरित होने वाला हूं, फिर इस भोग का पा प्रचं?" लुम्बिनी गये बिना ही राजकुमार लोट पाये।
पिर एक दूसरे दिन गुत के सङ्गियों के नाच वा मानन्द उद्यान की तरफ दमिती काटकसे जा रहे थे कि पहा नहोंने एक उबरपोहित, नो, बोस, मलीन और और महीन चूहे को मार भरते मौत की बाट जोहते हुए पाया। अपने सी रवाना कर बोषित सचर पाने पर :
" तब निरोगता केवल एक स्थान है और रोगों की प्रासपातमा हेपीईजनहीं सकता। बापानी
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( १४ )
पुरुष कहां है, जो इसे देख कर भागे के सुख और भोग विलास का अनुमान करे ?” इस तरह विना भागे गये
राजकुमार फिर नगर को लौट आये ।
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फिर एक दूसरे दिन वह पश्चिमी फाटक से आनन्द उद्यान को जा रहे थे कि मार्ग में उन्होंने एक मुर्दे को काठी पर जाते देखा, ऊपर कपड़ा पड़ा हुआ था, उस के साथ रोते हुए बान्धव जा रहे थे, अपनी चीत्कारों से, बाल खींचने से, मस्तक पर धूल डालने से, और छाती पीट पीट कर चिल्लाने से उन लोगों ने यह दृश्य और भी अधिक करुणा पूर्ण कर रक्खा था । राजकुमार ने अपने रथवान से कहा हा ! शोक ! उस जवानों पर जिसे बुढ़ापा नष्ट कर डालता है, हा ! शेक ! उस स्वास्थ्य और छारोग्यता पर जिसे रोग मटियामेट कर डालता है । हा ! शोक ! उस जीवन पर जे मनुष्य को इतना थोड़ा समय देता है । क्या अच्छा होता है यदि बुढ़ापा, रोग, या मृत्यु एक भी अस्तित्व न रखता होता । श्रहा ! क्या अच्छा हो यदि बुढ़ापा, रोग और मौत सदा के लिये नष्ट कर दिये जाते ।"
इस तरह अपना विचार प्रगट कर कुमार ने कहा " घर लौट चलो, मैं स्वतन्त्रता की प्राप्ति का उपाय श्रवश्य सोचूंगा।”
अन्तिम संयोग * ने सिद्धार्थ को सब चिन्ता श्रीर हिचकिचाहट दूर कर दो। अन्त में एक दिन वह श्रा
*ये भिन्न २ संयोग बौद्ध पुराचों में प्रसिद्ध है। जहां जहां सिद्धार्थ का इन संयोग से मिलाप हुआ वहां वहां सम्राट अशोक महाराज ने सूप और बिहार बनवाये थे । विकमौ सम्वत् को सातवीं शताब्दी के आादि में काम बैद्य ने इन के खंडहर देखे थे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( १५ )
नन्द उद्यान के लिये नगर के उत्तरीय फाटक से जा रहे थे । उस जगह उन्हें। ने एक शान्त, शुद्ध और गम्भीर प्रकृत ब्रह्मचारो भिक्षु को देखा उस की बाखें नीचे को धों, इधर उधर चचनताये न हुलाता था और बड़े निस्पृह भाव के साथ अपने लवादे को पहने कमण्डल लिये जारहा था । राजकुमार ने पूछा << यह कौन है ?"
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ग्यवान ने उत्तर दिया यह एक भिक्षु है । इमने सम्पूर्ण तृष्णामय इच्छाओं को त्याग दिया है और बहुत पवित्र जीवन व्यतीत कर रहा है । यह जितेन्द्रिय होने का प्रयत्न करता है और विरक्त साधु हो गया है । अब न तो इस में इच्छा का प्रचण्ड श्रोतः है और न इस में ईयां है, भिक्षा के सहारे रहता है ।"
सिद्धार्थ बोला " ठीक कहा, बहुत ठीक है। ऋषियों ने पहले ही से इस उत्तम जीवन का प्रादर्श उपस्थित कर दिया है। यही मेरा ब्राश्रय होगा और यही दूसरों का भी । यही जीवन सुख और शान्ति नय है।”
इसके बाद युवक सिद्धाचं अपने घर बिना लुम्बिची गये हो एक निश्चित विचार पर टूढ़ीभूत हो कर कीट माये ।
अब सिद्धार्थ का हार्दिक भाव बहुत दिनों तक डिपा रहा I राजा को किसी ने शीघ्र सब हाल हमा दिवा, और उन्होंने और भी अधिक कड़ाई के साथ पहरा और देख रेख का प्रबन्ध कर दिया। हर जगह महरो बड़ी सावधानी से नियुक्त किये गये, सब फाटकों पर प्रहरी रहने लगे, और राजा के सेवक गय दिन रात बड़ी चिन्ता में रहने लगे। पहले पहले सिद्धार्थ मे
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चालाकी से निकल भागना घृणास्पद समझा, और इसे किसी भावश्यकता के समय के लिये छोड़ दिया। उन्हें अपनी पत्नी गोपा पर बहुत विश्वास था। एक रात स्वप्न देखते देखते ये चौंक पड़े, ऐसा बहुधा हुमा करता था, गोपा ने इन स्वप्ने का कारण पूछा । उन्होंने साफ साफ बता दिया, और अपना भेद भी समझा दिया । भावी विछोह को चिन्ता में वह घबहाई परन्तु उन्होंने समझा बुझाकर शान्त किया। उसी रात को वे अपने पिता के पास गये, और बहुत ही श्रादर सन्मान और सङ्कोच के साथ बोले " महाराज प्रब वह समय भागया जिस समय मुझे पृथ्वी पर स्पष्टतया प्रगट होना चाहिये, मैं विनय करता हूं, कृपया विरोध मत कीजिये, और उसके कारण दुःखित मी न हूजिये । हे महाराज ! कृपा कर के मुझे बुट्टी देर, अपने कुटुम्ब और प्रजा से विदा होने की भाज्ञा दो।"
राजा की प्रांखों में आंसू भागये, और भरे हुए गले से उत्तर दिया, " बेटा तुम्हारे प्रयोजन के सिद्ध करने के लिये कहो मैं क्या कर सकता हूं ?" सिद्धार्थ ने नम्रता पूर्वक कहा “ मुझे चार वस्तुओं की इच्छा है जिन्हें मैं श्राप से मांगता हूं, और पाशा है कि आप स्वीकार करेंगे। यदि भाप इन्हें मुझे दे सकें, तो मुझे सदा अपने घर में देखोगे, और मैं कमी श्राप से अलग न होऊंगा । महाराज इन बातांको मुमो दीजिये, कि बुढ़ापा मुझे कनी में दवीचे, मैं सदा जवान और स्कर्तिमय तेजस्वी रहूं, रोग का प्राकम मेरे अपर महो, और मेरा जीवन नंती बनी रवि, और मुझो कर फीका पड़े।"
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इन बातों को सुन कर राजा को बड़ा दुःख हुमा । उन्होंने कठिनाई से कलेजा बाम पर कहा "प्यारे बेटा, तुम जो कुछ चाहते हो वह मिल नहीं सकता, मैं असम हूं। यहां तक कि हषि लोग भी इन से छुटकारा नहीं पा सकते । बुढ़ापा,बीमारी, राम और मृत्यु सबके भाग्य में साधाररतः एक से हैं।"
उस विचारशील नवयुवा ने फिर कहा “ यदि मैं बद्धावस्था, रोग, मृत्यु और जीता मे नही बच मकता
और यदि महाराज, पाप मुझे उपरोक्त बातें नहीं दे सकते तो कृपा करके कम से कम एक वस्तु, जो कम महत्व की नहीं, तो देरी दीजिये कि मैं मरने के बाद प्रावा. गमन के पचड़ों में उद्वार पा जाऊ"। . अब राजा ने समझ लिया कि ऐसे दृढ़ विचार का विरोष करना व्यर्ष प्रया, प्रातः ही उन्होंने सम्पूर्ण घापों को बुलाकर दरबार किया और वह शोकमद समाचार सुनाया । उन लोगों ने राजकुमार के भागने का बलात् रोकना मिरिचत किया। उन लोगों ने स्वयं नाल
माटों पर पहरा देने का भार अपने ऊपर लिया। युवा पुरुष पारे वालों का काम करने लगे। और जो वह थे उन्होंने यह सूचना नगर में फैला दी कि सब लोग भाने वाले समय के लिये तय्यार हो नार्वे । राजा अद्धोदन प ५०० चुने हुए शाप सत्रियों के साथ माल के सदर बाटक पर जाकर हट गये । राणा के तीन भाई, युवा सिद्धार्षदेचा, नगर के अन्य फाटकों पर जा कर मह गये। और शाम लोगों का एक सरदार नगर के केन्द्र में जाकर बस गया, और देखने लगा, कि राजाचा नियम
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और पाबन्दी के साथ बर्ती जाती है या नहीं। माल के भीतर भी सिद्धार्थ की माता की बहिन प्रजापति गौतमी ने खियों का कड़ा पहरा लगाया और स्वयं उन का निरीक्षण करने लगी और नीचे का वचन कह कह कर सम को पहरे के लिये उत्साहित करने लगी।
"राजमहल और देश छोड़ कर यदि कुमार सन्तों की तरह निकल कर चला गया तो महल भर दुःख सागर में डूब जावेगा, और यह राजघराना, जो इतना पुराना है, बुरी तरह से अंत हो जावेगा।"
ये सब प्रयत्न व्यर्थ सिद्ध हुए, एक रात जब देर तक पारा देने के सबम सम प्रहरी नींद की चपेट में भागये तो युवक राजकुमार ने अपने रथवान चाण्डक को अपना घोड़ा कण्ठक सजने को कहा, और नगर से सम की मांख बचा कर निकल भागने में सफलीभूत हुए । स्वामिभक्त अमुचर चांडक ने कुमार की आज्ञा पालन करने के पहले अपूर्ण नेत्रों से बहुत समझाया और कहा, "कुमार, इस खिले हुए गौरवपूर्ण यौवन को कष्टपूर्ण विरक्त जीवन में नष्ट करने को क्यों उत्तारू हुए हो? ये विशाल सुन्दर महल मुख, और मानन्द, विलासके सदन हैं, इन्हें मत त्यागो।" परन्तु दृढ़प्रतिज्ञ सिद्धार्थ ने अपने प्यारे रथवान की एक न सुनी, किन्तु उसे यह उत्तर दिया:
"हे चारहक, मैं अच्छी तरह जानता हूं। सांसारिक इच्छाएं सब गुणों की मिट्टी पलीद करदेती हैं; मैं इन्हें सब जानता हूं, अब मुझे इन से अधिक सुख नहीं मिल सकता ऋषि लोम इन्हें सांप के फन की तरह त्याग देते हैं, और अपवित्र बर्वन की तरह सदा के लिये
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इन से हाथ धो बैठते हैं। मेरे ऊपर यकायक बजपात हो जावे से मुझे पसन्द है, सैकड़ों बार यकायक पाकर शरीर भेद दें सो पसन्द है, जलते हुए लाल भाले मेरे अपर गिरें सो पसन्द है, जलते हुए पर्वत है अग्निमय चहाने अभी भाकर मुझ घर चूर करदें सो भी पसन्द है, परन्तु फिर से हम पृथ्वी पर जन्म लेना स्वीकार नहीं, फिर मैं कैसे फिर पर गहस्थ आश्रम की खाओं और चिन्तामों में जाकर फंस जा?"
पापी रात थी जिस समय सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु बोहा । सिद्धार्थ पुष्य नक्षत्र में उत्पन्न हुए थे। उस समय भी हमी का उदय चा। सब प्यारी प्यारी, वस्तुमों को त्यागने के समय उस नवयुवा का हदय एक पल के लिये कुख मन्द हुमा और फिर अपने कपिलवस्तु की तरफ़ एक दृष्टि डाल कर धीमे स्वर से अपने माप बोले
"मैं तब तक कपिल नगर को नहीं लौटुंगा जब तक जन्म मरस से बचने को औषधि न ढूंढ़ लूंगा; मैं तब तक फिर कर नशागा जब तक उस उच्चस्थान और पवित्र जाम को न पा जागा नो प्रवस्था और सत्यु से परे है। जब में लौटूंगा ar कपिल मगर भी नोंद में मनन रह पर, जाग्रतावस्पा को प्राप्त होगा। " और सचमुच १२ चालतान तो उन्होंने अपने पिता को देखा और न कपिलवस्तुको। जब शाये तब नये धर्म में सब को पलट दिया।
सिद्धार्थ रात भर पोहे पर पड़े चले गये; शाप और पांच लोगों ने देश पीछे दोड़ते हुए और मन लोगों के प्रदेशको स्यागते हुए वे मैनेय नगर से होते हुए मागे निकल
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( २० ) गये । सूर्य निकलने तक वह १८ कोस निकल आये थे। यहां पर वह घोड़े से कूद पड़े, लगाम घाराहक के हाथ में देकर, सब आभूषण और रत्र उतार उसके हाथ में दे, उसे बिदा किया।
ललित विस्तर ग्रन्य, जिस से ये सब बातें ली गई हैं, कहता है कि जहां सिद्धार्थ ने चाण्डक को विदा किया वहां एक चैत्य-एक प्रकार का पवित्र स्तूप-खड़ा किया गया था और, वर ग्रन्थकार के समय सक चाण्डक निवर्तन के नाम से प्रसिद्ध था " । ह्य नसैङ्ग ने भी इस स्तूप को देखा था । वह कहता है, "यह स्तूप सम्राट अशेक ने एक जंगल को नुक्कड़ पर बनवाया था, जहां से मिद्धार्थ अवश्य निकले होंगे। यह कुशीनगर को जाने वाली राह पर बना था। इस के ५१ साल बाद इन्हों ने कुशीनगर में निर्वाण पाया था, इस से सिद्ध होता है कि घर से भागने के समय सिद्धार्थ की आयु २९ वर्ष की थी, क्योंकि वे ८० वर्ष की अवस्था में निर्वाण पद को प्राप्त हुए थे।
जब राजकुमार अकेले रह गये तो इन्हेंाने जाति और पद के शेष चिन्हें। से भी कुटकारा पाया। पहले उन्हेनि अपने लम्बे लम्बे बाल सलवार की धार से काट कर रवा में छितरा दिये,इस के बाद उन्हों ने अपने रेशम के राजसी वस्त्रों को एक शिकारी के पुराने मृगचर्म के वस्त्रों से बदल लिये । पहले तो शिकारी कुछ हिचकिचाया पर जब उसने देखा, कि किसी बड़े आदमी से व्यर्थ ही विरोध करना पड़ेगा सब उस ने असमता से अपने चर्म-चीबड़े उतार कर दे दिये । .
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( २१ ) जैसे ही राजा शुद्धोदन को सिद्धार्थ का भागना मालूम हुमा, उन्होंने बहुतेरे दूत उन की खोज में भेजे परन्तु वे सब प्रकृतकार्य हुए। अपनी ढूंढ खोज में उन लोगों को वा शिकारी राजसी ठाठ में मिला, उसे के लोग अवश्य ईरान और तङ्ग करते, किन्तु चा सडक साथ पास से वह बचगया, क्योंकि उसने यथायं बात बतला पर उन लोगों को कोपानि शान्त कर दी । उम ने राज. कुमार के निकल भागने का सब कच्चा पक्का हाल कर सुमाया । राजा को पाना के अनुसार वे लोग फिर कुमार की खोज में चल पड़ने वाले थे, परन्तु चारहक ने उन लोगों को समझा बुझा कर रोका । उसने कहा "तुम लोग कुमार को लौटा लाने में सफलमनोरथ न होगे। वे अपने विचार, पुरुषार्थ, और निरषय में अत्यन्त दूढ़ है। कुमार ने जाते समय कहा था, " कपिलवस्तु को में उस समय तक नही लौट सकता जब तक मैं परवानान प्राप्त कर लंगा और बुद्ध न हो जाना। वे अपने विचार को पलटने वाले पुरुष नहीं हैं। जैसा उगोंने कहा है वैसा ही होगा, वे अपने विचार बदलने बासे नहीं हैं।" हक ने लोट पर राजा को सम समाचार दिये । उसने प्रयापति गौतमीको रिहा सब खमटिव प्राभूषा सौंपे, परन्तु उसमे वे दुःखदायक मुचि दिखाने वाले भाभूपर अपने पास न रख कर एक सरोवर में पास दिये । वह सब से पाभूपए-पुष्कर बहलाने लगा। लिहावं की नवयौवना पनी गोपा अपने पति के दृढ़ निरषय को खूब जानती चो। बहस दुःख. दायक वियोग के लिये पहले ही से बहुत कुछ तपार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( २२ ) थी, परन्तु तो भी वह उस दिन से बहुत उदास रहने लगी। चाण्डक ने उस से गौरवपूर्ण भविष्य की बातें बहुत कुछ कहीं, पर स्त्री के जलते हुए हदय को शान्त करना कठिन है । वह प्रायः दुःखित ही रहा करती थी। ___ लगातार बहुत से ब्राह्मणों का प्रातिथ्य स्वीकार करते हुए, युवा राजकुमार अन्त में वैशाली के विशाल नगर में पहुंचे । इस समय वैदिक धर्म का प्रचण्ड दीपक टिमटिमा रहा था। इस अंधकार के समय में बहुत से अंधेर-मय सिद्धान्त प्रचलित हो गये थे। जाति का झगड़ा असली प्रयोजन से घटता हटता मूर्खता की अन्तिम श्रेणी को पहुंच गया था। नीच जाति के लोग बिलकुल अंधकार में थे, धर्म को केवल थोड़ी सी ज्योति विद्यमान थी । जैसा कि स्वाभाविक है, ब्राह्मणों की क्रमशः बढ़ती हुई प्रधानता लोगों पर असह्य भार हो रही थी । धर्म केवल नाम मात्र को रगया था। वाममार्ग की प्रमशता थी. । अधर्मसंगत बातों का बड़ा प्रचार हो रहा था। धर्म के नाम से लोगों को पाप में अधिक खूबते हुए देख कर अधर्मयुक्त सिद्धान्तों को उखाड़ने के लिये सिद्धार्थ ने दृढ़ता के साथ तय्यारी कर दी, पर शक है विभान्ति पूर्व कपिल ऋषि का मार्ग अनुवर्तन करने वाला मानी बिहार्य भी एक प्रग फिसल गया और फिर ऐसा गिरा कि घर को ही भूलगया । इन का मत था कि अपने कर्म का फल हर दशा में मिलता है, अपने कम्मो के फल भोगने से कोई बच नही साता लिसे कर्म को प्रधानता दी। वैशाली में पर्युप्रने पर उनके बड़े बाबा विद्वानों को ढूंढ़ कर
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( २३ )
बाधात् किया और उन से शास्त्रों का पढ़ना प्रारम्भ किया, क्योंकि बिना ऐसा किये वे उन लोगों के सिद्धन्तों का खण्डन भी नहीं कर सकते थे । अन्त में उन्हों ने प्राचार्य मलारकालाम्* ' से भेट की। ये बड़े बड़े विद्वान् श्रध्यापकों और प्राचाय्या में श्रेष्ठतम समझे जाते थे । इन
पास बहुत से श्रोता श्री के निवाय ३०० शिष्य भी थे । माथं बहुत ही सुन्दर रूपवान् थे । जब वे उपरोक्त प्राचार्य के श्राश्रम में गये तो लोग उनकी सुदरताकी मन ही मन में बड़ी सराहना करने लगे ; विशेषतः प्राचाय्यं ने उनको बहुत ही अधिक सराहा। इसके बाद हो सिद्वार्थ की विद्वत्ता से वे ऐमे ममन्न हुए, कि वे उनकी विद्याकी सुन्दरता से भी बहुत अधिक प्रशंसा करने लगे । सिद्धार्थ बहुत शीघ्र इतने योग्य होगये, कि श्राचाय्यं ने उन्हें अपनी बराबरी का शिक्षक बनने को कहा, परन्तु सिद्धार्थने ममता पूर्वक 'अस्वीकार कर दिया। इस नवोन ऋषि ने अपने मन में सेाचा:
" प्राचार्य का यह सिद्धान्त यथार्थ स्वतन्त्रता देने वाला नहीं है । इसका अभ्यास मनुष्य जाति को दुःख से बिलकुल नहीं जुड़ा सकता । इस सिद्वान्त को यथेष्ट बनाने के लिये प्रयत्न करूंगा । केवल भूखें। मरने और इन्द्रियों के जीतने से क्या होगा ? इस से भी कुछ अधिक -पूरी स्वाधीनता - पाने के लिये मुझे कुछ और खोज करनी पड़ेगी ।
सिद्वार्थ कुछ समय तक वैशाली में रहे, इस नगर को
• इस नाम में कुछ गड़बड़ मालूम होती है । अंगरेजी में " Alarkalam." लिखा है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( २४ ) छोड़ कर वह मगध देश में आये, और उसकी राजधानी राजगह पहुंचे । उनके मानेसे पहले ही उनकी मुन्दरता और विद्या की ख्याति यहां प्रापहुंची थी। ऐसी सुन्दरता को भितु के दुःखपूर्ण लिवास में देख कर लोग अचम्भे में भागये और उन्हें चारों तरफ से घेरने लगे । उस दिन गलियों में इतनी भीड़ हुई, कि नीची जाति के लोगों ने मद्यपान करना छोड़ दिया, बाज़ार बन्द होगये और क्रय विक्रय बंद होगया, क्योंकि सब कोई उस श्रेष्ठ भिक्षु स्यागी महात्मा को निहारने की लालसा रखते थे। स्वयं राजा बिम्बसार उन्हें देख कर उनके मातंक में श्रागया था। जब वे उस के महल की खिड़की के नीचे से उत्साही और जोशीले लोगों में होकर जारहे थे तो उस समय राजा ने भी स्वागतसूचक शब्द कहे। सिद्धार्थ का निवास स्थान पारडव गिरि की ढाल पर था। बिम्बसार ने उसे अपनी भाखों से वहां तक पडियाया और मादर प्रदर्शित करने के लिये, बहुत से सरदारों के साथ उन के पास स्वयं गये। बिम्बसार सिद्धार्थ को ही प्रायु का था। सिद्धार्थ जिस विचित्र दशा में थे उसका बिम्बसार केहदय पर बड़ा असर हुना, उन के मधुर भाषण और शान्त स्वभाव ने उसे मोह लिया। उनकी धम्मशीलता और सद्गु ने बिम्बसार को लुभा लिया, और उसी समय से उसने सिद्धार्थ के सिद्धान्तों का संरक्षकत्व स्वीकार किया और मरण पर्यन्त उन की रक्षा करता रहा । बिम्बसार ने इस संसारत्यागी विरागी को बहुत ही चित्ताकर्षक जगहों के देने का लालच दिखा कर फिर संसार में खींचने का उद्योग किया, परन्तु निस्पर महात्मा
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अपने दृढ़ निश्चय से विकिपर भी चलायमान न हुए। कुछ दिनों राजग में रहने बाद वह नैरजमा नदीमाधुनिक पग-बिमारे सांसारिक झगड़ों और झझटों से मांस इटावरमा गये और विरों की तरह रहने लगे।
सा में बड़े भारी मारव की एक ऐतहासिक पुस्तक महाबंश नाम की। यह पुस्तक विक्रम की पांचवीं शताब्दी में लिखी गई थी। इस का लेखक महानाम है। इस महामाम ने अत्यन्त प्राचीन बौद्ध पत्रों और पिट्ठों सेण्टा पर लिखा था। इसमें लिखा है कि बिम्बसार बौद्ध हो गया-या पन्यकार के शब्दों में विजेता २ दल में मिल गया। उस में यह भी लिखा है, जिवाब १ बर्ष यानी अपने राज्य काल के १६ वर्ष में पावर बोहमा पावह १५ साल की शायु में रामसिंहासन पर बैठा था और इसने १२ वर्ष तक राज्य विवादा। विम्बसारका पिता रामा मुद्धोरम-सिद्वार्थ . या पिता-बा परम मित्र था, हम दोनों में अत्यन्त मोखिकोसीबार सिद्धार्थ और बिम्बसार में भी पनिट निवादी गई थी। बिम्बमारोसरले बातमीपारामा पापोंदिया पहले युद्ध के हिंसा और दवा के विचारों से उससे सहमत नहीं चा, परको भी उसने बताया और तबियापा, परन्तु हिरबानीका अनुवर्ती हो गया। होमपा सोमाले पर बने। बमल गौतम को गुस रामानों और मनुष्यों का सामना । यद्यपि उन सेग्गों
बरन विद्वान्तों का बड़े नाम के साथ स्वागत विवापा, तापिस अपने पर सभी पूरा भरोसा
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( २६ ) म था, इस से सम्होंने अपनी योग्यता की एक पक्की और अन्तिम परीक्षा लेनी चाही ।
हमने पहले एक ब्राह्मण भाचार्य का वर्णन किया है सस से भी बढ़ कर राजगृह में एक विद्वान् था। राम नामक एक विद्वान् था उसका ही पुत्र या प्राचार्य उदरक नाम का था और सचमुच यह एक असाधारण विद्वान् था। उसकी बराबरी पास पास के बहुत कम पण्डित कर सकते थे, और बढ़ कर तो कदाचित उन में कोई नहीं था। सिद्धार्थ सन के पास गये और अपना शिष्य बना लेने की उन से प्रार्थना की । कुछ शास्त्रार्थ के बाद उदरक ने सिद्धार्थ को अपनी बराबरी का पद देकर उन्हें अपने आश्रम में एक अध्यापक नियत किया, और कहा हम दोनों मिल कर अपने मिद्धान्त लोगों को सिखावेंगे । उक्त अध्यापक के 900 शिष्य थे।
जिस तरह वैशाली में हुआ था, उसी तरह यहां भी राजकुमार की विद्या की श्रेष्ठता झलकने लगी, और सिद्धार्थ को लाचार होकर उन लोगों से यह कह कर जुदा होना पड़ा " मित्र, यह मार्ग मनुष्यों का उद्धार नहीं कर सकता, इससे कामेन्द्रिया नहीं जीती जा सकती और न इस से मनुष्य आवागमन के दुःखें। से बच सकता है, न यह पूर्ण ज्ञान और शान्ति की ओर जाता है, और न इस से अमण अवस्था प्राप्त हो सकती है और न निर्वाण ।" इसके बाद वे उदरक, और उनके समस्त शिष्यों के समीप से चले गये।
उदरक के पांच शिष्य श्रमण गौतम को भोहिनी बक्तता, चरित्र और मुगों की पवित्रता से लुभाकर उन
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( २७ )
के साथ चल दिये। उन्हें ने अपने पहले गुरु का साथ कोड़ दिया और सिद्धार्थ के शिष्य हो गये । वे सब लोग उच्चजाति के थे । उन सबों के साथ मे नवीन प्राचार्य पहले गया पर्वत की भोर चले गये, फिर नेरलुना नदी के किनारे पर उरुवेल. नामक गांव के निकट छाये । वहाँ इन्होंने अपने सिद्धान्तों को फैलाने के पहले उन पर विचार किया । उस समय के सिद्धान्तों और ब्राह्मणों
विद्या से इनका जो फिरगया । उन में जो कुछ त्रुटि घो, ये समझ गये, और इस तरह इन्होंने उन लोगों से अपने को योग्यता में अधिक ममझा । इस पर भी इन्हें अपनी निर्बलता के ही दूर करने के लिये अधिक बल प्राप्त करना था, और यद्यपि ये उस समय के संन्यास को कड़ाइयों को बुरा समझते थे तथापि इन्होंने तप और ब्राहमदमन कई साल तक करते रहने का दृढ़ निश्चय कर लिया । इस के दो कारण थेः- एक तो यह कि, इन्हें ब्राह्मयों ही के सदृश लोकप्रियता प्राप्त करनी थी, श्रीर दूसरे इन्हें इन्द्रिय दमन भो पूरा करना था ।
:
इस तप के लिये उरुवेल गांव बौद्ध इतिहासों में प्रसिद्ध है । चिठ्ठार्च मे यहां ६ वर्ष तक बराबर उग्र तप किया था। उन्हों ने अपनी इन्द्रियों के अत्यन्त भयानक ब्राह्ननयों का सूब प्रतिहार किया ।
बः वर्ष के अन्त में अत्यन्त इन्द्रिय-दमन, उपवास, कष्ट सहन और चात्मसंयम के बाद सिद्धार्थ को मालूम दुधा कि इस तरह पूर्व ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता, और इस कारण उन्होंने यह अत्यन्त दुःखदायी संघम शेष करने का नियन कर लिया। जब वे नियमानुसार भोजन
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करने लगे । यह भोजन एक ग्रामीय बालिका सुजाता नाम की प्रति दिन लाया करती थी। थोड़े ही दिनों में सोंने अपनी शारीरिक शक्ति और सुन्दरता, जिन्हें उन्होंने अत्यन्त कठिन संयमों से बिगाड़ दिया था, फिर प्राप्त कर ली। उन के पांचों शिष्यों को, जो अब तक उन के बड़े श्रद्धालु भक्त थे और उन्हीं को देखा देखी घोर सप करते थे, अब उनकी इस मिलता पर बड़ी पृषा हुई। उन्हें जोड़ कर काशी की ओर ऋषिपाटन नामक स्पाम में चले गये । यहाँ पर अन्त में हम लोगों का गौतम ऋषि से मिलाप हो गया था।
सिद्धार्थ ने अब तपस्या और उपवास का त्याग कर दिया । अकेले उरुवेल के निकट पाश्रम बना कर, मनन करते हुए रहने लगे। इस में कोई संदेह नहीं, किसी जगा सिद्धार्थ ने अपने नबीन धर्म के सिद्धान्त निषित किये, और अपने अनुयायियों के लिये नियम बनाये। नो भेष और नियम वे अपने अनुयायियों के लिये बनाना चाहते थे उन का वे स्वयं उदाहरण बने; क्योंकि ऐसा किये बिना उनके महामत शिष्य भी बिद्रान्वेषर किये बिना न रहते, और नियमों का बर्ता जाना भी कठिन है। जाता । जो धर्म-व- । ने६ साल पहले एक शिकारी से बदले ये वे बिल्कुल चिप होगये थे । उनी वस्त्रों से वे नगर नगर घनते थे, और ऋतु का कठोर प्रभाव भी उन्हीं सहा था, तात्पर्य यह, कि उनहीं से उन्हें ने भनी तक इतने बड़े दिन बिताये थे। अब में चि खरी मैदाने के काम के न रहे, इस कारण नये बनी को मावश्यकता है। माता उसवेल के सरदार
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की सहलीसा कुछ बन पहले भी माना है। बा द्धिार्थ में बड़ी भक्ति रखती थी । वह दस स्त्रियों
साप प्रावर सिद्धार्थको भोजन देवावा करती थी। सनी एक दासी वो उसका नाम पा रापा । वह हास ही में मर नई बीस बी अन्त्येष्टि क्रिया का एक सहा पुराना बस निवार्च को मिल गया । उसे सीकर उसने एकोपीन तम्यार किया । इस तरह वे बौद्ध साधु के लिये उदाहरण रुप हुए। जिस जगह उन्होंने वह वस्त्रा हवार पिया बा उसे पानकल-सीवन कहते थे। उनके जमुवायो साधुओं में यह नियम प्रचलित होगवा, कि जब समी बलको अत्यन्त प्रावश्यकता पड़े तोके हुए चि. पड़ों और कपड़ों से वे अपने हाथों तय्यार किये बाई किसी बीह साधु को यह कहने को जगह -बी, कि बखराब है, कि बौद्ध धर्म के स्वापक, पास एक मात्र प्रतिनिधि, एकबड़े राजा के उत्तराधिकारी, और स्वयं महापरिहत सिद्धाने वैशा किया तब दूसरे के लिये ऐसा करने में पापापत्ति
इन दुःखदापी तपों का अन्त समय निषट मागवा । द्विवल एक पग जाने बहना बा । वे
अपने नाबी बना वो जानते थे, और अपने पाप कोनी पहचानते थे, वे उन लोगों को मिलता है पानी और अपने बसानी समझते थे परन्तु उन की दूरदर्षिता ने धमी ठहरा रहा। वे अपने शाप वितररने लगे, कि मैं अभी मनुष्य जाति मोराद्वार बरसाने योग्य हो गया हूं या नहीं। मुकर्म संसार समनट करने की पूरी शचि मागई. या
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नहीं । उन्हों ने एक बार अपने भाप कहा, " जो कुछ मैं ने अभी तक किया है, या प्राप्त किया है, उस से मैं मानुषिक-धर्म से आगे बढ़ गया हूं? अभी तक मैं उस पद पर नहीं पहुंचा हूं जहां उच्च ज्ञान को स्पष्टतया समका सकं । मैं अभी तक जान के सच्चे रास्ते पर नहीं पाया हूं, और न उस मार्ग पर पहुंचा हूं जिस से बुढ़ापा, रोग और मृत्यु की सच्चो औषधि मिल जाती है।" कभी कभी सन्हें अपने बचपन की सुधि पाती थी, रम्हें ने अपने पिता के उपवन में जम्बू वृक्ष के नीचे जो जो स्प्न देखे थे वे सब धीरे धीरे उस के इ.दय पर उतरने लगे और उन्होंने अपने आप प्रश्न किया, “ क्या वे स्वप्न अवस्था और विचारों की प्रौढ़ता के साथ सच्चे होंगे ? क्या मेरे बचपन के विचारों ने जो मुझे विचित्र विचित्र वचन दिये थे वे पूरे होंगे ? क्या मैं मनुष्य जाति का मोक्षदाता होगा ?" ऐसी ऐसी बातें वे पूरे एक सप्ताह तक सोचते रहे । अंत में उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने प्रश्न का हां में उत्तर दिया ।
"हां, अब मैं ने महत् होने का सच्चा मार्ग ढूंढ़ निकाला है। यह मार्ग प्रात्मबलिदान का है और यह ऐसा है कि कभी नहीं चूकेगा, कभी विफल न होगा और कमी निरुत्साह न करेगा । यह मार्ग पवित्र पुण्य का है; इस मार्ग में कोई कांटा, कङ्कड़ नहीं-इस में दुष, ईर्ष्या, अज्ञान और तृष्णा दूर रहेंगों; यह वह मार्ग है जिस से स्वाधीनता मिलती है, और जिस से पाप जह मूल उखड़ जाता है। यह वह मार्ग है जिस से भावामामन का डर न रहेगा, यह वह मार्ग है.बिस से विश्व,
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( ३ ) विद्या अधिकृत होती है, यह अनुभव और न्याय का मागं है, यह बुढ़ापे और मृत्यु को कोमस कर डालता है, या परशान्त मार्ग है जिस में पाप का भय नहीं है और निर्वास की ओर सीधा चला गया है।" तात्पर्य यह कि सिद्धार्थ ममय से अपने को बुद्ध समझने लगे।
जिस जगह मिढा बुद्ध हुए वह कामों में उतनी हो प्रमिह जितनी कपिलवस्तु नगरी । ये चार स्थान एक ही से प्रमिह हैं, कपिल वस्तु, उरुवेल-जहां ६ साल घोर सप पिया, बर स्पाम जहां उन्हेंाने बुद्धत्व पाया और कुशीनगर-जहां उनका निर्वार हुमा । जिस स्थान पर मिद्धार्थ बुद्ध हुए, उसे बोधिमाह कहते हैं बम का अर्थ है सम्पूर्व बुद्धि का स्थान । इन बातों को बोहों की प्रग. पित पीढ़ियों ने रचित रक्सा है।
गौतम ऋषि बोधिमरह को जा रहे थे कि नैरखना के किनारे सहें। ने सड़क के दाई ओर एक पास बेचने वाले को, जिसका नाम स्वस्ति चा, खस खोदते हुए देखा । बोधिस्तत्व-भावो बुद्ध-उस की तरफ फिरे और घोड़ा सा सर मांगा। पश्चात् खस लेकर उसकी जड़ें अपर की तरफ और नो नीचे की तरफ कर चटाई का साकार बनाया, और पूर्व दिशा की ओर मुंहार के बैठ गये। जिस पेड़ के नीचे वे बैठे थे उसका नाम बो. पिदम पड़ा।
प्रासम समाने पर उन्होंने अपने बाप कहा, "ब तक मैं पूर्व पान प्राप्त न कर लूंगा तब तक यह म उलूंगा, चाहे बाल, बहो, और मांसपों न नष्ट हो जावें।"
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( ३२ ) विमा हिले दुले वे २४ घंटे भासन पर बैठे रहे। जिस समय धीरे धीरे प्रातःकाल हो रहा था, जिस समय नींद सब को प्रादबोचती है उसी समय गौतम. मुनिने पूर्स बुद्धत्व और धान प्राप्त किया।
उस समय वे यकायक पिला उठे, "हां! निःसन्देश अब इस तरह मैं मनुष्य जाति के कष्टों को दूर करूंगा। पृथ्वी पर हाथ पटक कर-श्रावेश में प्रा सम्होंने कहा, " पृथ्वी मेरी साक्षी हो, यह सम्पूर्ण जीवों का निवास स्थान है, इस में चल अचल सब विद्यमान हैं, यह पक्षपातरहित है, यह साक्षी देगी, कि मैं झूठ नहीं बोल
इस समय बुद्ध बत्तीस वर्ष के थे। जिस पेड़ के नीचे बोधिमण्ड में बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त किया था, वह पीपल का वृक्ष था। इस पीपल के पेड़ को बौद्ध लोग बोधिद्रम कहते थे । सम्बत ६९ विक्रमी में बुद्ध की मृत्यु के १२०० साल बाद चीनी यात्री ह्य नसेन ने यह वच देशा था । ललितविस्तर में लिखा है, कि यह मगध की राजधानी राजगह से ४५ मील की दूरी पर था, और नैरंजना से कुछ दूर नहीं था। इस पेड़ की भारों तरफ षको पक्की नही दीवारें घों, जो पूर्व पश्चिम की ओर बढ़ती चली गई थी, और घर दतिरको ओर सरासर मोबी पी । सदर फाटक पूर्व की ओर था। पास के सामने नरंजना नदी यो । दक्षिणी फाटक के सामने एक बड़ा पोखरा घास में नई सन्देह नहीं यह वही होगा जिसमें शुद्ध बड़ा गला कान बस वो कर अपने पारने के लिये तय्यार किया था।
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परिषम की ओर नुत से ढाल पहाड़ थे, और उत्तर को भोर यह स्थान एक मठ से मिला हुणा चा । हम पेड़ की पेही सदी लिये हुए पोली पो, इसकी पत्तियां चिनी, चमकदार और रीची, इस पेड़ के नीचे पर पास बुद्ध-निर्वाच-दिवसोत्सव पर नपतिगर, मन्त्री लोग और न्यायाधीश जुड़ा करते थे। इस पेड़ को इस दिन दूध से चते थे, दीपक जलाते थे, पुष्प वर्षा करते थे, और गिरी दुई पत्तियां बोन कर चल देते थे।
बोधिद्रम पास बनसङ्ग ने बुद्ध की एक मूक्ति देवी को उसने साष्टांग प्रवान किया। कहा जाता था कि इसको मैत्रेय ने बनवाया है। वह बुद्ध का अत्यन्त म शिवपा! उस मूत्ति और वाचारों ओर एक बेटी की जगह में, बहुत से धर्म सम्बन्धी स्तूप खड़े थे। ये विसी न किसी पवित्र यादगार में बनवाये गये थे।
बाबानी बतलाता, कि उसे इन मूर्तियों के पर एक पर पूजन करने में - दिन लगे थे। वहां पर तरह के रूप और भाजार के विहार, स्तूप और मठ थे। बोनी की बजासनम् नामक पहाड़ी मुस्य कर दिखाई नईपी। बहर पहाड़ी पी जिस पर बुद्धदेव बैठा
यपिस समय घटनास्थल पर पहले के वृक्षों का कोई चिन्दनी , परन्तु मनि नहीं बदली जा सकी। संचारों किन्तब भी दिखाई पड़ते हैं । ललित विस्तर माहिकान और पना के प्रामाविक लेसों की बापता है बोधिनराका पता लगा लिया गया है, और प्रत्येक पूर्व सिसित वस्तु का ठीक ठीक स्थान
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मालूम कर लिया गया है।
बोधिमण्ड के पीपल के वृक्ष के नीचे बुद्ध का वैराग्य कुछ ऐसा गुप्त नहीं था कि लोग उन से भेट करने में वंचित रह जाते । सुजाता और उस की सखियों के अतिरिक्त, जो उसे भोजन इत्यादि से सहायता देती चली प्राई वी, बुद्ध ने दो मनुष्यों को और भी अपनी दीक्षा दी। ये दोनों सहोदर भाई थे । व्यापार किया करते थे । दक्षिण की भोर से माल लाद कर उत्तर की ओर जा रहे थे। बीच में बोधिमयड पड़ा था। उनके जो साथी थे, वे भी संख्या में बहुत थे, क्योंकि उनके साथ कई सौ छकड़े लदे चले जा रहे थे । उनको कुछ गाड़ियां कीचड़ में बेतरह फंस गई। दोनों भाई जिनका नाम त्रिपुष और भलिक था, महात्मा बुद्ध के पास सहायता के लिये आये । बुद्ध के कथनानुसार उन्होंने यत्न किया और कृतकार्य हुए। वे लोग उन के सद्गुणों और अलौकिक ज्ञान से मुग्ध हो गये। ललितविस्तर कहता है, “बे दोनों भाई और उनके सम्पूर्ण साथी बुद्ध के सिद्धान्तों के अनुयायो हुए।"
सफलता के इन पहले शुभ लक्षणों के होते हुए भी, बुद्ध अब भी हिचकिचाते थे। अब आगे से उन्हें अधिक विश्वास हो गया, कि सत्य पूर्णतया मेरे पाधीन हो गया है। परन्तु सन्देह था कि मनुष्य मेरे नतन मार्ग का अवलम्बन करने को तय्यार होंगे या नहीं ? मैं मनुष्यों के लिये प्रकाश बाहर लाया हूं परन्तु क्या मनुष्य उसके लिये अपने नेत्र खोलना स्वीकार करेंगे? क्या वे उस मार्ग का अनुसरण करेंगे जिस के लिये उनसे कहा जावेगा? अब इस तरह के विचार बुद्ध को सताने लगे। वे फिर विरक्त
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होकर एकान्त सेवन करने लगे। ध्यान करते करते उन्हें ने एक बार रदय में सोचा :
जो मिट्ठान्त मैं ने निकाला है गढ़, गम्भीर और सूम है और मनन करने में कठिन है; इसे अलग अलग कर के समझने में बुद्धि हार खाजाती है,
और यह तक शास्त्र की सम्पूर्ण शक्तियों की पहुंच के बाहर है; इसे केवल पानी और बुद्धिमान् पा सकते हैं। इस में संसार की सम्पूर्ण बुद्धि का समावेश है । इस से निर्वार सुगम और सहज हो जाता है। परन्तु यदि मैं, दो सत्यज्ञानसम्पस बुद्ध हूं, स सिद्धान्त को लोगों को मिख तो वे हमे समझेंगे नहीं, और मुझे उलटे उनके अनुचित कटाक्ष झेलने पड़ेंगे और गालियां सहनी पड़ेगी। नी, मैं इस तरह करुणा के वशीभूत न होगा।
बुद्ध तीन बार हम मिलता ये दबजाने वाले थे, और कदाचित् वे अपने इस बड़े भारी पराक्रम को सदा के लिये त्याग भी देते, और अन्तिम उद्धार का सिद्धान्त अपने ही माप ले मरे होते, परन्तु एक चे विचार नेशन्त में सनी न सम अड़चनों और हिचकिचाहटों को दूर करने में दृढ़ कर दिया।
तुम्ने सोचा:
"चाहेरचे हो वा नीचे, चाहे बहुत अच्छे हो वा बहुत बुरे, या विरक स्वभाव के हो मनुष्य तीन श्रेणियों में विभक्त किये जा सकते हैं। उनमें से एक तिहाई धम में भूले हुए हैं और मदा भूले रहेंगे, एक तिहाईप्र. विवार में सत्य धर्म है, और शेष एक तिहाई अनिरचय भीर अविश्वास के किनारे खड़े हैं। चाहे में सिखा
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या न सिसा जो लोग सन्देह के सम्यकप में सड़ रहे। कदापि अधिक जान न पा सकेंगे ; चाहे मैं सिखाया न सिखाऊं जो श्राप जानी और बुद्धिमान् हैं सदा बुद्धिमान बने रहेंगे; परन्तु वे प्राणी जो अनिश्चय और अविश्वास में ग्रस्त हैं यदि मैं सिखा तो अवश्य जाम प्राप्त कर लाभ उठाएंगे और यदि न सिखागा, तो वे नहीं सीख सकेंगे।
जो लोग अनिश्चय के गड्ढे में पड़े हुए थे, उनके अपर बुद्ध को बड़ी दया भाई, और उनके विचार करुणा से तो भरे थे ही उन्होंने कर्तव्य क्षेत्र में उतरने के लिये दृढ़ता से निश्चय कर लिया। जो लोग अनिश्चय और मविश्वास में थे सन के लिये के अमरता का द्वार खोलने को उद्यत हुए। उन्होंने अन्त में ४ श्रेष्ठ और सत्य सिद्धान्त ध्यानसागर से खोज निकाले । इन सबों को वे भले हुए लोगों को बचाने के लिये प्रकाश करने को उतारू हुए ।
अपने सिद्धान्त के प्राधार को एक बार पक्का और मिश्षय कर लेनेपर और अपने विचारोंको फैलाने के यन में आने वाली आपदाओं और कठिनाइयों का सामना करने का विचार दूढ़ कर लेनेपर, उन्हें यह विचार हुभा, कि मैं पहले पहले पिसे अपना धार्मिक सिद्धान्त जताऊं। यह कहा जाता है कि पहले उन का विचार अपने पुराने गुरुत्रों को राजगह और वैशाली में जाकर सिखाने और उपदेश देने का हुमा । कुछ दिनों पहले जब वे उन लोगों के पास गये थे सब ने उनका सबभागत स्वागत किया था;
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उन्होंने उन दोनों को श्रद्ध, पवित्र, ईर्ष्यारहित और तमोगुणहीन, काम और सत्य से पूर्व पाया था। जिस प्रकाश को उन्होंने स्वयं सोमाबा, वह उन लोगों की शिक्षा दीक्षा का ही फल था । स नवीन प्रकाश की जह समाने वाले ही लोग थे। वाराणसी [काश'] में जा पर उपदेश देने के पूर्व उन्होंने रामात्मज उदरक, और अलारवालम्, जिन्हें वे कृताता के साथ याद किया करते थे, को सिखाने को इच्छा की । परन्तु इसी बीच में वे देणों परलोकवासी हो गये थे। जब बुद्ध ने हुना तो उन्हें बड़ा दुःख हुमा । उन्होंने सोचा कि मैं ने हम दोको बचा लिया होता, और अवश्य ही वे मेरे उपदेशों की अवहेलना न करते । अब उन का ध्यान उन पांचों शिष्यों की भोर गया जो उनके एकान्त सेवन के साचो रहे थे, और उनके तपों और बड़े वृतों में दिल से उनकी सुधि लेते और चिन्ता रखते थे। यह सब घा, चिम लोगोंने भावेश की अधिकताके कारण उन्हें त्याग दिया था, परन्तु वे महात्मा दूध पुरुष, जो सच जाति और श्रेष्ठलेचे, तो भी बहुतही भलेभारनी और सत्य उपदेश पारकरनेवा तय्यार रहते थे, वे लोग बहे तपों औरतों के करने में अभ्यस्त थे। यह स्पष्ट पा, कि वे तीन माह की भोर मुके हुए थे और सचमुच वे लोग उन बगुती सावटों को दूर कर चुके थे और लोगों को सति बाचाबालती है। बुद्ध मानते थे, दिवे सोम मुझे पापी दूष्टि से नही देखेगे, इसी कारण
ने उन लोगों को खोज निकालने का निराकर लिया । जाने बोधिनरा बड़ा और तर की
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( ३८ ) और चलते हुए गया गिरि पार किया। यह थोड़ी ही दूरी पर था। इस जगह उन्होंने कलेवा किया। मार्ग में जाते हुए रोहितवस्तु, उरुवेल, कल्प, अनाल, और सारथी में ठहरे । यहां के मुख्य गृहस्थों ने उनका आदर सन्मान किया, और भातिथ्य सत्कार का पुण्य लाभ किया । इस तरह वे वहनदी गङ्गा के निकट पहुंच गये । वर्षा के कारण उस समय पानी बहुत चढ़ा हुमा था और बड़े वेग के साथ बह रहा था। बुद्ध ने एक मल्लाह से विवश हो कर पार उतारने को कहा, परन्तु उनके पास देने को एक कौड़ी भी न थी इसलिये कुछ कठिनाई के साथ पार उतरने का प्रबन्ध कर पाये । जैसे ही नरेश बिम्बसार ने इस अड़चन की बात सुनी उसने तुरन्त सम साधुओं के लिये विना किराये लिये पार उतारने की माजा दे दी।
वे अब वाराणसी पहुंच गये, और सीधे अपने पुराने शिष्यों के पास चले । वे इस समय मृगदाव नामक वन में रहते थे। इसे ऋषिपाटन भी कहते थे। यह काशी के बिलकुल पास था, उन्होंने दूर से महात्मा बुद्ध को भाते हुए देखा, जो जो बातें बुद्ध के विरुद्ध उन लेगों के इ.दय में भड़भड़ा रही थी, वे फिर लहलहा उठीं । वे सब आपस में कहने लगे हम लोग इन के साथ मिल कर कोई काम नहीं कर सकते; न तो हमें उन का आगे बढ़ कर स्वागत करना चाहिये, और न उन के माने पर अभ्युत्पान करना चाहिये, न हमें उन का धार्मिक-सा उतार कर लेना चाहिये, और न भिक्षापात्र छना चाहिये, न हमें उनके लिये अर्घ तय्यार
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( ३८ ) करना नाहिये, न शासन देना चाहिये । हम अपने शासनों पर बैठे रहेंगे, वे चटाई से नीचे बैठ जावेंगे । परन्तु तुमको यह उदासीनता और असन्तोष देर तक मही ठहर मना । जैसे जैसे गुरू निकट भाते गये तैसे तैसे उन्हें अपने पासनों पर बैठा रहना कठिन मालूम होने लगा, और किसी एक भीतरी गुप्त शिक्षक ने उन लोगों से उन के सामने खड़े होने की इच्छा प्रकट की । यह मन्तःकरण पर प्रकृति को टङ्कार घो। सचमुच शीघ्र हो बुद्ध का भातक, और तेज सँभालना उन के लिये अत्यन्त कठिन हो गया, वे लोग एक एक करके खड़े होगये, वे लोग अपना निश्चय दूढ़ नहीं रख सके। कुछ ने उन्हें श्रादर सम्मान के लक्षण दिखाये, कुछ ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया, और उनसे सादर उनका कोपीन, चार्मिक वस्त्र और भिक्षापात्र ले लिया, उनके लिये एक चटाई पिबाई और पैर धोने के लिये पानी भरा, फिर कहने लगे :___ "महात्मन् पाप का स्वागत है; चटाई पर विराज. मान इजिये।"
जप के पश्चात् उनसे उन उन विषयों पर बात चीत प्रारम्भ की, जिनसे उन्हें माशा पो, कि वे प्रसस है। जावेंगे। वे सब उनके निकट ही एक ओर बैठ गये और बोले :
शायुष्मन गौतम की इन्द्रियां बिलकुल पवित्र गई हैं, और त्वचा पूरे तौर से शुद्ध हो गई है। प्रायुहमन गौतम, ना तुम्हारे वेचान च सुल गये हैं जिन
पवित्र मान बिलकुल स्पष्ट दिखाई देता है, वह
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( ४० )
पवित्र ज्ञान जेा मानुषिक नियम से बहुत परे है ? '
बुद्ध ने उत्तर दिया “ मुझे प्रायुष्मन की पदवी मत दे।। बहुत दिनों से मैं तुम्हारे किसी काम का नहीं रहा और न तुम्हें सहायता दी है और न विश्राम । हाँ, अब मुझे साफ सूझने लगा है कि अमरता क्या है, और वह मार्ग भी जिस से अमरता मिलती है । मैं बुद्ध हूं; मैं सब जानता हूं, सब देखता हूं, मैं ने पाप को धो डाला है, मैं धर्म के नियमों का गुरु हूं, आाम्रो मैं तुम्हें सत्य का प्रकाश दिखाऊं, ध्यान पूर्वक मेरे कथन को सुना, मैं तुम्हें उपदेश द्वारा समझाऊंगा, और तुम्हारी आत्मा को पापों को क्षीण कर उद्धार - मार्ग पाने का उपाय और स्पष्ट आत्मज्ञान बतलाऊंगा । तुम वह सब करने में समर्थ होगे जेा ब्रावश्यक है, और फिर तुम श्रावागमन से पूर्वतया रहित हो जाओगे – बस यही तुम लोगों को मुझ से सोखना है ।" इसके बाद उन्होंने नम्र भावसे उन लोगों को वे सब बातें कहीं जो उन्होंने दुराग्रह वश उन का अपमान करने को उन के आने के पहले गांठी थीं । उनके पांचों शिष्य उनकी यह बात सुन लज्जित हो गये । अपने को उनके पैरों पर डाल उन्हों ने अपना अपराध स्वीकार किया और बुद्ध को संसार का दक्षिक मान उन के नये सिद्धान्त और धर्म को बादर स्वीकृत किया । इस पहली बात चीत में और रात के अन्तिम पहर लंक बुद्धने उन लोगों को अपने सिद्धान्त समझाये । यदि कुछ महत्व के थे तो येही लोग थे ओर पहले पहले उनके मतानुयायी हुए ।
सनातन धर्मवलम्बी हिन्दुओं को दृष्टि में काशी
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( 88 )
बहुत पवित्र तीर्थ है, परन्तु उन से बढ़ कर बौद्ध लोग उसे पवित्र मानते हैं । पहले पहले बुद्ध ने इसी जगह अपना उपदेश दिया था, या जैसा बौद्ध पुरानों ने रूपक बांधा है, पहली बार धर्म का चक्र घुमाया था। यह चक्र* शौर उस में का धर्म सम्बन्धी लेख सब बौद्ध शाखाओं में प्रचलित है। उत्तर, दक्षिण और पूर्व में, तिब्बत और नेपाल से लेकर लङ्का और चीन+ तक इसका प्रचार है । सातवीं शताब्दी में यूनसेन ने काशी का जे वर्णन किया है, उससे सिद्ध होता है, कि बुद्ध के समय में काशी का उतना महत्व नहीं था, जितना उसके बाद हुआ । परन्तु उस समय भी वह एक बड़ा और विशाल नगर रहा होगा । हिन्दू धर्म के कई महा प्रधान केन्द्रों में एक यह अधिक महत्व का था और अब तक चला श्राता है । इस में कोई सन्देह नहीं, बुदु इसी कारण वहां गया था । वैशाली और राजगृह में ब्राह्मयों के सहस्रों शिष्य घे, और कदाचित् काशी में उनसे भी अधिक थे इस
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• इस चक्र बौ, जो यह की तरह का होता है, चीन व तिब्बत बादि देशों के बौ 'बानेकामे' कहते है और भंगरेज बुटि होल' कहते हैं। इसके भीतर यह जब “ॐ मणि पद्म हुं" रूपा रहता है।
+ विब्बतियों के प्रार्थना चकों पर बायट में जो लेख लिखे है वे पढ़ने योग्य है । चादश्चिक सूत्रों के पपबीय वर्षो को इन लोगों ने पचर पचर बैसाको मान लिया ● मे दो बड़े बड़े चक्र चलाते है, उन पर पवित्र प्रार्थनाएं विखी पडती है और इस तरह वे लोग बुद्धदेव को प्रथिना करते है ।
+नसे कहता है कि बाम : मौल सम्पो और तीन मौल चोड़ी थी, उसमे चन्य कई कीर्त्ति सम्भों में एक सपनो देखा था जो २१-१४ मज ऊ ंचा था और पामही एच पाषाच छम्म था जो २५-२९ मचा था। इसे पोष मे बनवाया था। यह ठीक उसी जगह या अहो बुह मे अपना पहला व्याख्यान दिया था चौर धर्म का चक्र माया चा !
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( २ ) कारण बुद्ध को अपने विचार और सिद्धान्त के पलाने में इस से अधिक भयङ्कर और विस्तृत मैदान कोई नहीं मिल सका।
दुर्भाग्यवश, काशी में रहने का बुद्ध का अधिक वर्षन हमें नहीं मिला । ललितविस्तर ने विस्तार पूर्वक जिस कथा का वर्णन किया है वह पांच शिष्यों की बात चीत के बाद शेष हे जाती है। अन्य सूत्र शापमुनि जीवनचरित की बातें शृङ्खलाबद्ध नहीं बताते । इसी कारण बुद्ध के काशी में ब्राह्मणों से जो शास्त्रार्थ सम्बन्धी झगड़े हुए होंगे, वे अधिकतर अज्ञात हैं। बुद्ध ने किस तरह विपतियों के विरोध का सामना किया, और किस तरह स. फलता पाई ये सब बातें जानने को कौन उत्सुक न होगा परन्तु क्या कहें, अभी तक इनका ब्यौरेवार वर्णन प्रकाशित नहीं हुमा है। जब तक बौद्धों के नये २ सूत्र प्रकाशित न हेनि, तब तक यह चर्चा एक किनारे रखनी पड़ेगी। अब तक जितने सूत्र प्रकाशित हुए हैं उम से उपर्युक्त बातों का पूरा पता नहीं मिलता। बहुत से सूत्रों में बुद्ध के एकाप कार्य काही वर्सन मा है। कोई कोई उसके बहुतों में से एकाध उपदेश को ही गाया गाते हैं, परन्तु उनके जीवन का पूरा वर्खन कोई भी नहीं देता । किन्तु फिर भी उनमें इतना मसाला मरा हुमा, कि बांट कर. बुद्ध के जीवनचरित सम्बन्धी घटनाओं को सङ्कलित करने में कोई कठिनाई नहीं पड़ती। केवल उनका क्रम ठीक नहीं से उसे ठीक करना मुगम है; क्योंकि घटनाओं को सचाई में कहीं अन्तर नहीं पाया जाता । बुद्ध के जीवन की कई मुख्य पटनाएं कुछ गड़बड़ के साथ कही गई है, इस
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( 1 )
कारण उनका इच्छित क्रमानुसार ठोक २ वर्षन करना कठिन है— सब घटनाओं को ऐतिहासिक तिथियों में विभक्त करना कठिन है ।
यह मालूम पड़ता है कि शाक्यमुनि काशी में अधिक दिनों नहीं ठहरे । यद्यपि उन्हों ने वहां बहुत से शिष्य किये, किन्तु वह नहीं मालूम पड़ता कि वे वहां बहुत दिन ठहरे हैं। । सूत्रों का अधिकतर भाग यही बतलाता ,, कि बुद्ध का समय गङ्गा हा के उत्तर में, यातो मगध के राजगृह में, या कोयल की अवस्ती नगरी में बीतता इन दो राज्यों में उस के जीवन का लगभग सम्पूर्ण भाग, जे ४० वर्ष का था, बीता था । उपरोक्त दोनों देशों के नरेश उनकी रक्षा करते थे । उन दोनों ने उनका धर्म अङ्गकार कर लिया था । बिम्बसार मगच का राधा ३ । उसने बुद्ध के प्रारम्भिक सन्यास में उन पर जो कुछ कृपा दिखाई थी, उसको पहले ही कह चुके हैं । अपने सम्पूर्ण राज्य-काल में उसने उस कृपा में कमी कमी नहीं की। राजगृह नगय राज्य के लगभग केन्द्र में था। वहां बुद्ध सहवं रहते थे करें। कि वहां से वे ज्ञात पास के देशों में अपने विचारों का प्रचार सुगमता ये सब स्थान बुद्ध को अवश्य ही प्यारे रहे होंगे क्वें। कि उनके बाद ये सब स्थान उनकी स्मृति में पवित्र नावे खाने लगे थे। राजगृह से कोथिमरड मोर तरुबेल कुछ दूर थे । वहां से ६-9 मील की दूरी पर गृह-कूट नाम का एक पहाड़ था । यदि ह्यू नसेङ्ग का कहना सत्य है इसकी एक चोटी के रूप, शाकार से बहुत मिलती पी । यह पर्वत मनोहर दृश्यों से भरा हुआ रहता था ;
से कर सकते थे ।
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( ४४ ) तरह तरह के सुन्दर, हरे भरे पुष्पमय, वृक्षों से परिपूर्ण पा ; मीठे पानी के चमकते हुए झरने पवंत की सुन्दर प्राकृतिक बटा का प्रत्येक समय भांति भांति के प्रतिबिम्ब उतारा करते थे। इस पर्वत के पास पास बुद्ध प्रफुल्लचित्त होकर घूमा करते थे। बहुत से शिष्यों घिरे रह कर, बुद्ध ने यहीं महाप्रज्ञा पारमिता सूत्र, और अन्य बहुत से सूत्र पढ़ाये थे। ___ राजगृहके उत्तरीय फाटक पर एक विशाल विहार था यहां पर युद्ध प्रायः रहा करते थे। यह कालान्तक वा कालान्तवेलु वन कहलाता था। यमसङ्ग के लेखानुसार कालान्त एक व्यापारी का नाम था । उसने अपना उप. वन पहले ब्राह्मणों को दान किया था। पीछे बुद्ध के विचारों की झनकार कान में पड़ने पर उसने ब्राह्मणों से अपना दिया हुमा दान बीन कर, बोद्धों के हवाले किया । वहां उसने एक मनोहर विशाल भवन बनवाया, श्रीर बुद्ध को भेंट किया । इसी स्थान पर बुद्धने अत्यन्त प्रसिद्ध शिष्य अपने धर्म में मिलाये थे। उन के नाम थे शारि पुत्र, मुगलान और कात्य यम । इसी भवन में बुद्धको मृत्यु के बाद पहली बौद्ध महासभा हुई थी।
राजगह से थोड़ी ही दूरी पर एक जगह थी उसका नाम था नालन्द । मालूम होता है बुद्ध ने यहां अपना श्रानन्दमय वास बहुत दिनों किया होगा। यहां पर भक्त राजाओं ने बहुत से मूल्यवान् कीर्ति स्तम्भ बनवाये
थे, इसी से उपर्युक्त बात सिद्ध होती है। पहले २ इस ' स्थान पर श्रामों का एक बड़ा उपवन था, पास ही एक भील ची ।. उपवन का स्वामी एक धनी पुरुष था।
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५०० व्यापारियों ने मिल कर इसको कय किया, और बुद्ध को दान करदिया । बुद्ध ने इसके पहले तीन महीने उन लोगों को अपने धर्म में दीक्षित किया था। नरेश विम्बिसार उत्तराधिकारियों ने इसे बहुमूल्य भवनों से सजाया था। वहां पर उन लोगों ने बः मठ बनवाये चे। ये साराम कहलाते थे। इन में से प्रत्येक एक दूसरे से बड़ा था। एक नरेश ने इन सबों को एक में जोड़ने के लिये ईंटों की दीवार से घेर दिया था।
समसङ्ग ने लिखा है कि भारतवर्ष भर में इन की बराबरी की लम्बाई चौड़ाई और मनोहरता में एक भी इमारत नहीं है, ये ही सर्वश्रेष्ठ हैं। वह कहता है, कि वहां राजा की उदारता से दस सहस्त्र साधु अर्थात् विद्यार्थी रहते थे; न के लिये कई नगरों का भूमि कर मय होता था। नालन्द विश्वविद्यालय के मठों ने भीतर सीमावास्यं नित्य शिक्षा दिया करते थे, और विद्यार्थी अपने विद्वान् अध्यापकों का तेजस्विता और मावेश के साथ अनुसरण करते थे। सहिष्णुता भी वहां की विचित्र पी। सब मिलजुल कर विद्याध्ययन करते थे। वेद और बौद्धसूत्र बराबर निष्पक्षपातसे पढ़ाये जाते थे। इनके अतिरिक्त आयुर्वेद और गढ़ दर्शन, विधानादि शाम भी पढ़ाये जाते थे। बुद्ध का यह प्राचीन निवास स्पाम पीनी यात्री के समय में भी पवित्र समझा जाता पा, और शादर सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। यह पवित्र विश्वविद्यालय सान सो वर्ष का प्राचीन पा जिस समय किन नसगने इसे देखा पा । वहां पर यह यात्री कईवर्ष रहा और मानन्द साप प्रतिषिसत्कार भोगता
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रहा । नालन्द विश्व विद्यालय के गुरागाही एवं प्रतिघिसत्कार कारी विद्वानों ने इसका पूर्णता प्रादर सम्मान किया था। इसे सुख पहुंचाने में उन लोगों ने कोई बात उठा नहीं रक्खी थी। इस बात को यह स्वयं कृतवता के साथ स्वीकार करता है। यहां हम नालन्द का अधिक वर्यन नहीं कर सकते । अपने प्रधान लक्ष्य बुद्ध इति हास के विषय को फिर गहण करते हैं।
बिम्बसार अल्पवयस ही में सिंहासनारूढ़ हुआ था। नवीन धर्म में दीक्षित होने पर उस ने तीस वर्ष राज्य किया। उसका पुत्र और उत्तराधिकारी अजात शत्र, जिस ने पितृहत्या कर राजसिंहासन पाया घा, पहले इस नये धर्म से चिढ़ता था । उसे यह पसन्द नहीं था। सिद्धार्थ के चचेरे भाई दुष्ट देवदत्त की बाबत प्रारम्भ के पृष्ठों में हम कुछ कह पाये हैं । स्वयम्वर के समय से बह गौतम का शत्रु हो गया था। उसकी मन्त्रणा से अजात. शव ने बुद्ध को फांसने और कष्ट पहुंचाने के लिये बहुतेरे फन्दे रचे; परन्तु वह कृतकार्य नहीं हुमा । उलटा उसके शुद्ध गुखों, परिष्कृत और परिमार्जित बुद्धि और पवित्र उपदेशों से वह उसके ऊपर रीझ गया, और उसने बुद्ध से दीक्षा लेली । उस ने जिस तरह अपने पिता का सिंहासन पाया था, वह घोर अपराध भी बुद्ध के सामने खोल कर स्वीकार किया । ला एक बौद्ध सत्र का माम सामनापन सत्र । इस समस्त सत्र में अजातशत्र को दोबा हो को बाते भरी हैं। इस का कारण यह है कि युद्ध-को इसी एक मनुष्य को अपने धर्म में दीक्षित करने में बड़ी बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा
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पा। यह महात्मा बुद्ध की सब से कठिन, किन्तु सब है अधिक बोरवसम्मन विजय घो । अजातशत्रु उन पाठ पुरुषों में से एक है जिसने बुहुने स्पति-चिन्हों का टवारा किया था।
बाई गुह का मगध पर कितना हो प्रेम रहा हो पोनि मगच उनले महाकदिन एकान्तवात और गौरव. सम्पम विजय का रजरपल था पर यह मालूम होता है कि वह अधिकार कौशल में रहा करते थे। यह देश, जिसका काकी को एक भाग है, मगध के उत्तर पश्चिम में स्थित पा। इसको राजधानी वस्ती थी। सबजीत राजा पा । मषस्ती का स्थान प्राधनिक फैजाबाद के भासपास हो रहा होगा। प्रसमजात मे एक निमन्त्रण पत्र भेजाचा, मिसको स्वीकार कर बुद्ध बिम्बसार को इच्छा से बहा गये । अनाच पिराहक या अनाथ पिरहप का प्रसिद्ध धानबाजेतवन कहलाता था, बुद्ध व्यास्थानों से न गया ।नों में जिन जिन व्याख्यानों का सार दिया है लगभग सब हो यही लोगों के कर कुहर में पड़े। मनसा कहता है कि अनाय पिराहक ने, जिस को हिमसीन उदारता और दामोलसाने, निनों और नाबों की सहायता विख्यात धो, यह उद्यान हो राम कर दिया था । अनाप पिराहक राजा प्रमजीला मन्त्री बा। उसने इस सम्पत्ति को बहुत तो व रेकर राधा केह पुत्र जेल से बोल लिया था इस बार उद्यान का नाम त धन पड़ा। अत्यन्त
• परमिशन समान सामीब माम मारों को नपरोमिवावा. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(४८ ) मनोहर, सुन्दर और सायादार वृक्षों के नीचे जेत वन के बीचों बीच अनाथ पिण्डक ने एक विहार बनवाया । यहां पर बुद्ध २३ वर्ष रहे प्रसन्न जीत ने स्वयं नवीन धर्म में दीक्षित होने पर नगर के पूर्व को पोर एक व्याख्यान शाला बनवाई थो। ह्य नसङ्ग ने इस के सडहर देखे थे। इन के ऊपर एक स्तूप था । इस से थोड़ी दूर एक बुजं था। यह एक प्राचीन विहार के खंडहर के रूप में था। इस विहार को बुद्ध की मौसी प्रजापति गौतम ने बनवाया था। इस घटना से सिद्ध होता है कि बुद्ध के घर के लोग अधिक नहीं तो कुछ उनसे इस प्यारी जगह में श्रान मिले थे। उस जगह में जो बुद्ध को प्रानन्ददायक थी और जहां के निवासा उन्हें बहुत अधिक चाहते थे अपने चचेरे भाई अानन्द के बहुत कुछ कहने सुनने पर उन्होंने महाप्रजापति गौतमी को अपने धर्म में दीक्षित किया था। यही पहली स्त्री थी, जो पहले पहले बौद्ध हुई । दीक्षित करने के उपरान्त उसने गौतमी को पार्मिक जीवन विताने की प्राज्ञा देदी थी।
श्रवस्ती से १८-१९ मील दक्षिस यू नसङ्गको वह स्थान भी बताया गया था, जहां १२ वर्ष के वियोग के बाद बुद्ध अपने पिता से मिले थे। शुद्धोदन को अपने पुत्र से बिछड़ने का महाक हुमा था, और उन्हों ने उन्हें पुनः जंजाल में घसीटने के निरन्तर प्रयत्न किये थे। एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा इसतरह ८ दूत उन को गोज में भेजे थे परन्तु कैसे पाश्चर्य की बात है कि वे सब राजकुमार के मनोहर व्याख्यानों और चरित्र की श्रेहता पर ऐसे लुब्ध हुए कि फिर कभी न घिरे, वे लोग
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उनले संग मेंजामिसे । अन्त में राजा ने अपने एक मन्त्री वो मेवा । इसका नाम चरक चा । दूसरे दूतों की तरह यह भी दौड हे।गया, परन्तु यह राजा के पास लौट कर गया, और बुद्ध ने माने का समाचार मुमाया । मालम होता है कि शुद्धोदन बुद्ध के माने की बाट म देख कर स्वयं ही उनके पास चले गये । युद्ध पिता से मिले, और चाहे दिनों में कपिलवस्तु चले गये । शुद्धोदन की देखा देखी अन्य शाप भी बौद्ध होगये । सचमुच उनमें से बहु. तेरों ने बौद्धों पार्मिक वस्त भी पहिन लिये । बुद्ध की तीन पविमों मोपा, याचरा और उत्पलवर्ग मे, और अन्य बहुत सी खिपों ने बौद्ध साध्वी होना स्वीकार
जन साधारण की सहानुभति का प्राधार होते, और बरे २ बली राजाओं की सहायता और रजा पाते हुए भी दुहबी ब्रामों से अत्यन्त विकट मुकाबिला करना पड़ा था । उन लोगों की प्रतिद्वन्द्विता कभी कभी बुद्ध के लिये महा भयर होजाती थी । इतिहासलेखकों में जो ग्रामों को पनपद्धति को नीचा दिखाने और पृषित बनानेमन पिये दुख दिपे नहीं हैं। उनके किसी भी तकनीजिये, यूरोपीय पमण्डी विद्वान् उन सब की-पद्यपि वे उनके विषय से पोड़ी ही जान. जारी रस-सदा निन्दा दिया करते हैं, और किसी नबिसी बहाने उनका सहन किया करते हैं। फाहियान और मनसेनेची यात्रा-पुस्तकं लिखी हैं, वे सर्वथा सवाइयों का कोष नहीं हैं। उनमें से बहुत सी बातें पूज पर लिखी गई होंगी, पुष बनात्मक बुद्धि मे, कुछ दुरा
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ग्रह से और कुछ मूढ़ विश्वास से लिखी हुई मालूम होती हैं। हम यह नही कहते हैं कि लनङ्ग ने जो मारतवत्तान्त लिखा है, वह, सर्वथा ही चममूलक और असत्य है। सू नसङ्ग ने ब्राह्मण पण्डितों की हर जगह पुराई की है, और बौद्धों को प्रत्येक जगह प्रशंसा । बुद्ध के धर्म की जो उन्नति उस समय हुई, उसके तीन मुख्यकारण हैं। १-वेदों की संस्कृत समझना बहुत ही कठिन होगया था। २-छोटे अपढ़ लोग धार्मिक विषय में प्रत्येक बात के लिये ब्राह्मणों का मुंह ताका करते थे। ३-उन लोगों में सरलता और उदारता की जगह धीरे धीरे अकड़ और घमण्ड होता जाता था। लोग उनसे उकता चले थे । बुद्धने धर्म को सब के सम्मुख प्रकट किया । परन्तु ब्रालगों ने लापरवाही के कारण उस ओर ध्यान नहीं दिया । बुद्ध को राजाओं की रक्षा का सहारा घा, इससे उन्हें प्रजा का चित्त आकर्षण करने में कोई बाधा नहीं पड़ी, क्योंकि प्रजा राजा की प्रायः नकल करती है। बुद्ध का शील चरित्र बहुत बढ़ा चढ़ा था । उन के पवित्र गुणों और चित्ताकर्षक व्याख्यान ने बहुतों का रदय मोह लिया था । बुद्ध ने यह कभी नहीं कहा कि बौद्ध धर्म कोई नया धर्म है । उनकी बातों से प्रकट होता है कि वे केवल सुधारक थे, नवीन धर्म प्रचारक न थे परन्तु पीछे वे नवीन धर्म प्रचारक माने गये, यद्यपि उस समय ऐसा होने की बहुत कम सम्भावना थी । ब्रामण लोग बुद्ध के सिद्धान्तों को केवल दर्शन की एक नई परिपाटी मानते थे। वह श्रावागमन को मानते थे, केवल मेरा के मार्ग में कुछ थोड़ा सा अन्तर था।रको दर्शन की
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नई परिपाटी समझ,-जैसा भारतवर्ष में सदा ही कुमा करता पा-विचारक लोग नये २ सिद्धान्त निकालते थे। उन लोगोंने मामूली सराम सिवाय कुछ अधिक ध्यान नहीं दिया । इसी कारण बौद्ध धर्म को उमति होती
ली गई, और अन्त में उसने वह जोर पकड़ा, जो बहीही कठिनाई से तोड़ा जा सका था।
बालरोगों के धर्म पम्प संस्कृत में थे, इससे साधारण सोग उनके समझने में असमर्थ थे, और इसी कारण पोर अन्धकार में पड़े राते थे। बुद्ध व्यास्थान उस समय की प्रचलित भाषा (पाली) में दुश्रा करते थे। अपढ़ से अपढ़ लोग भी उन्हें समझ जाते थे। वेद की बातों को देसपरोक कार से जानते तो हो नहीं, इस कारण उनमें बहन की शक्ति नहीं की। उन्होंने बुद्ध से जो पुख हमा लगमग नया ही जामा, और उनके मधुर और पित्ता. यामानों पर मुग्ध होकर उनके अनुयायी हो गये। इन कारों के अतिरिक्त और भी कई बेटे मटकार, परन्तु उनके उमेख की कोई आवश्यकता
बुद्ध नाम निरन्तर प्राकमों से सीज कर उन लोगों पर बड़े २ कटास और मर्मवेषी टीका टिप्पणी बिवा परते थे। वे उनकी प्रत्येक दर्शन पद्धति का सरन परते थे और मोमर, पासा), और मकार कहा करते थे तिसपर भी दोनों दले नाई बड़ा मेद नही था। यहां पर यूरोप के विरुद्ध प्रत्येक दो धर्म स्वातंत्र्य पहा है। यदि पूरेप में बुद्ध का जन्म होता तो वे या तो जला दिये जाते, या न्याय के मिस
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( ५२ ) से मारडाले जाते, परन्तु भारत में सब को अपने अपने विचार प्रकट करने की स्वाधनता थी, और इस पर भी ब्राह्मणों ने मारे घमगह के लापरवाही की, बस फिर पा था, बौद्ध धर्म को अच्छी बन पड़ो । प्रतिहार्य सूत्र नाम की एक कहानी की पुस्तक है । उस में प्रसन्नजीत के सन्मुख ब्राह्मणों और बौद्धों का जो शास्त्रार्थ हुमा चा, उसका वर्णन है । उस शास्त्रार्थ में ब्राह्मण हार गये थे। यह एक तरह का दङ्गल सा था। इस में राजा और प्रजा निबटेरा करने वाले बनाये गये थे। बस इम्हीं सब बातोंका उपरोक्त सूत्र में सम वेश है। इससे भी अधिक विचित्र कहानी में एक कथा लिखी है। वह इस प्रकार है:
भद्रङ्कर नाम का एक गांव था । वहां के नागरिकों से ब्राह्मणों ने वचन लेंलिया था, कि वे लोग बुद्ध को अपमे नगर में नहीं घुसने देंगे। परन्तु जब भागवत (बुद्ध) ने नगर में प्रवेश करना चाहातो एक ब्राह्मणी, जे। कपिलवस्तुको मिवासिनी थी, और भद्रङ्करमें व्याही थी, चुपकेसे रात को दीवार लांघ कर बुद्ध के पास पहुंची। वह उनके पैरों पर गिर पड़ी और नवीन धर्म को शिक्षा पाने को प्रार्थना करने लगी। उसका अनुकरण एक अत्यन्त धनी नागरिक ने, जिसका नाम मेन्धक था, किया। उसने सब लोगों को जोड़ कर व्य ख्यान दिये और सब को स्वतन्त्र कर्ता के लिये जीत लिया। यह ही क्यों और भी बड़े बड़े झगड़े हुए होंगे। फाहियान और ह्य नसङ्ग, जो कि बुद्ध के सहस्त्र वर्ष उपरत पाये, लिखते हैं कि लोगों ने बुद्ध के मार डालने का भी बहुत बार चेष्टा की थी परन्तु बद्ध इन सब प्रापत्तियों से बचते गये।
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( ५३ ) बुद्ध जीवन सम्बम्धी घटनाओं के वन में कुछ न पुष गड़ब, अवश्य ; परन्तु जहां उनकी मृत्यु हुई उसके विषय में सब एक मत हैं। सब कुशीनगर में उनका देहान्त होना बताते हैं । यह नगर सी नाम के राज्य का राज. स्थान था। इसमें कोई संशय नहीं कि यह प्रसनजीत के कौशल का एक भाग होगा। इस समय बुद्ध को घायु ८० वर्ष की ची। वे मगध की राजधानी से राजमह को लौटे थे और अपने चचेरे भाई प्रानन्द और बहुत से लोगों के साच प्रारहे थे। गङ्गा के दक्षिीय किनारे पर पहुंच, पार उतरने के पहले, एक वर्गाकार बड़े पत्थर के ऊपर सड़े हुए और बड़े प्यार के साथ अपने साथियों की ओर प्रेम की दूटिपात कर बोले "यही सब से अंतिम समय है जो राजगृह और प्रजासनम् के देखने का है। अब मैं इन स्थानों को फिर कमी नहीं देखूमा ।"
महापार उतरने के उपरान्त वह वैशाली नगरी में गये और वहां भी उन्हों ने वेही विदाई मर्मस्पशी वास्प कहे। यहां पर कई मनुष्य उनके अनुयायो माधु होगये। हम में सब से अन्तिम सन्यासी सुभद्र नाम का पा । कुशीनगर पाम के साथ मील उत्तर पश्चिम, अधिरावती नदी के पास, मरल देश था । वहां पर वे यकायक मूछिन गये । शास दा की एक कुख के नीचे उनकी श्रेष्ठमात्मा ने उनका साथ दिया, या जैसा बुद्ध पुराण कहते हैं, वह निर्वास के द्वार में प्रविष्ट होगये। मनसङ्ग ने चार साल के पेड़ देसे थे। वे चारों एक सी उंचाई थे। कहा जाता था, कि बुद्ध ने इन के नीचे अपना प्राय दोहा था । लङ्का का तिहास कहता है कि अजातशत्रु
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( ५४ ) के पाठवें राज्यवर्ष में बुद्ध ने निर्वाण प्राप्त किया था।
तिब्बती दल्य कहता है कि बुद्ध को भम्त्येष्टि क्रिया [चितादाह] बड़े समारोह के साथ की गई थी । यह उतनी ही बढ़ी चढ़ी हुई थी, जितनी किसी एक चक्रवर्ती राजा की की जाती है। उनका सब से अधिक प्रसिद्ध और योग्य शिष्य अभिधर्म का रचयिता, जिसने पहली बौद्ध महासभा में सब से अधिक काम किया था, इस समय वहां न था । वह राजगह में था। परन्तु ज्योंही उसने बुद्ध के परलोकवास का समाचार पाया त्योंहीं वह तुरन्त कुशो मगर को दौड़ा चला पाया । बुद्ध का शव उनके देहान्त के पाठ दिन पीछे तक नहीं जलाया गया था। बहुत लहाई झगड़े के बाद, जे लोहू लुहाम तक पहुंच गया था, और जो केवल उस नम्रता और शान्ति द्वारा ठण्डा पड़ा था जिसकी बुद्ध मूतिं थे, और जिसे उन्होंने अपने शिष्यों के रक्त में खब भेद दिया था, अन्त में यह ठहरा कि बुद्ध के शव के पाठ भाग किये जावें । इन में से एक कपिलवस्तु के शाक्यों को दिया गया था।
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उपसंहार।
महात्मा बुहरे जीवन-परिश की यदि कुछ बातें बोरी जावे तो यह पूर्व रहेगा। इस कारण इस महा बिद्वान् के चम्म सम्बन्धी विचारों की भी कुछ चर्चा परनामसरी।
शापमुनि तत्ववेत्ता थे, वपिनी हो सकते हैं, परन्तु हम कुछ और मान लेना भूल है। बुद्ध ने कभी अपने कोचर का अवतार नही कहा । सचमुच वह उस समय के बिगड़े हुए वैदिक धर्म का अचार मात्र परना चाहते थे, परन्तु परते २ उनके सिद्धान्त कुछ के कुछ हो गये। उस समय जाति विभाग को कठिनाइयां माह्य हो वहीं ची, ब्राला लोग नित श्रेती के लोगों को बिलकुल अन्धकार में रखेलने लगे थे, और उन के साथ कुछ २ निर्दयता का मी बर्ताव हो चला था । पम्ही कारणों है बुद्ध के इदय में अपूर्व दया का संचार सुधा । उन्होंने सचमुच संसारको पाप से बचाने की चेष्टा की । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उन्हें ने भोग विलास दोहरा,पर द्वारोड़ा, और संसार मोड़ा। अहा, कैसा अपूर्व प्रात्मत्याग पा !
इसमें आई सन्देह नही, कि बुद्ध के बराबर वाग्मी महात्मा गाई कभी ना, नी, और न होगा। उनमें मोह लेने कीबो शक्ति पो, यह अनुतपूर्व घो। उन की वह स्व शक्ति को उपमा शङ्कराचार्य को पर, संसार में किसी से भी नहीं दी जासकती । जो लोग केवल उत्सुकतावश उनके व्याख्यान हमने जाते थे, जो लोग उनके विरुद्ध मनसूबे गांठकर उसके सामने पहुंचते थे, वे मी उनका धर्म अङ्गीकार कर लेते थे।
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( २ )
पहले बुद्ध का विचार वेदप्रचार हो का था, उन्हें ने अपने जन्म भर वेद के महत्व के विरुद्ध कोई बात नहीं कही । हाँ, धीरे २ उन के विचार बदलते गये । फिर तो वे वेद ही क्या, वेद के आधार ईश्वर को भी भूल गये । उन्होंने केवल असीम स्वावलम्ब का नमूना लोगों के सामने रख दिया। कहा, अपने हो बाहुबल से तुम भवसागर पार कर सकते हौ । बुद्ध ने स्वर्ग माना है, नरक माना है और सब माना है, केवल एक जगदाधार ईश्वर को ही वे भूल गये I
बुद्ध का उद्देश्य बहुत ही श्रेष्ठ, और लक्ष्य बहुत ही ऊंचा था, परन्तु जेा विषय उन्हें ने उनके सिद्ध होने के लिये चलाये, वे अन्त में चिरस्थ यो न ठहरे । यह बात ब्रह्मदेश, स्याम, जावा, चीन, तिब्बत, मङ्गोलिया और कई अंशों में जापान में भी प्रत्यक्ष दिखाई देती
। विना ईश्वर के अन्तःकरण के शान्ति नहीं मिलती । उस के विना यह चचल है। कर मटरगश्त लगाता रहता है । यही कारण है, कि उपर्युक्त देशों में बौद्ध धर्म - बुद्ध के निश्चित सिद्धान्त-- अपनी पहली हालत में नहीं हैं । बुद्ध ने मूर्तिपूजा के लिये कब कहा था ? परन्तु जितनी मूर्तिपूजा बौद्ध धर्मानुयायियों में होती है, उतनी किसी में नहीं । बुद्ध ने कब कहा, कि मैं किसी महाशक्ति का अवतार या स्वयं कोई महाशक्ति हूं ? - याद रखिये, बुद्ध ईश्वर को ज़रा भी न मानते थे । परन्तु फिर भी सम्पूर्ण बौद्ध बुद्ध बुद्ध रटा करते हैं। यह क्यों ? बुद्ध ने तो कभी इन बातों का उपदेश ही नहीं किया । बुद्ध के न कहने पर मी लोग मूर्तिपूजा करने लगे, और दूसरे रूप में ईश्वरवाद भी करने लगे ।
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बुद्ध की युक्ति बहुत प्रबल होती थीं, उनकी बुद्धिकशापता अपूर्व थी, उनके जान दो सामने बड़े २ विद्वानों को बुद्धि चकरा जाती थी, वे बहुत सी बातों के जानने वाले थे, उनके बर बर करुणा किसी में न रही होगी, वह सच्चे दिल से मानव जाति का उद्धार करना चाहते थे,वह जो कुछ कहते और करते थे, अपने अन्तःकरण से कहते और करते थे, परन्तु उन के विचारों की, उनके सिद्धान्तों की जड़ कच्ची थी। जिस नींव पर अपना धर्म खड़ा करना चाहते थे, वह नींव ही कच्ची थी । उन्हों ने संसार को अत्यन्त विरक्त भाव से देखा है । उन्हें संसार में दुःख के मा चे २ पहाड़ों के सिवाय और कुछ भी न दिखाई दिया। उनका सिद्धान्त था, कि दुनिया में सिवाय दुःख के सुख रत्ती भर पा, परमाणु भर भी नहीं । यह उन की बड़ी भारी भूल थी। निःसन्देह संमार में दुःख है, परन्तु जहां दु . वहां मुख ज़हर है। यदि घर ने संसार को केवल दुःखमय और पीड़ापूरित ही बनाया होता तो इसबा बनाना और न बनाना दोनों बराबर था। दुःख है परन्तु मुल भी है । यदि संसार में दुःख रे, तो उसे दूर करो, उस सेर कर और निराश होकर भागना कायरता का काम है।
युद्ध के धर्म ने भारत को लाम भी पहुंचाया, और उस की हानि भी कुछ घोड़ी नहीं की। इस धर्म के साथ यहां वैद्यक विद्या, शिलालेख प्रणाली, और नये २ दर्शन शाखा के विचारों ने सूब उमति की । पूर्वी दुनिया ने भारत से धर्म के साथ सम्यता सीखी। जिन देशों ने भारत में उसका पैदा किया हुमा, यह नया मत सीसा, वे इसे परम पवित्र मानने लगे। भारत की इस तरह दूसरे देशों से
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( ४ )
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जानकारी बढ़जाने से यहां शिल्प की खूब उकति हुई और यह देश धन भाग्य से परिपूर्ण हे । ने लगा । छाब भारतवर्ष - यद्यपि उसका उत्तरोत्तर पतन ही है। ता जाता था-संसार भर के सब देशों का सिरमौर है गया । प्राप कहते होंगे, कि बाबुल, मिश्र, यूनान, फ़ारस ( संस्कृत पारस ) और रोम देश भी तो भारत से कुछ कम सभ्य म घे । हम मानते हैं, कि सभ्य थे, परन्तु इस भारत के मुक़ाबले में कुछ भी न थे । याद रखिये कि जिस समय उपरे।क्त देश “सभ्य" कहलाते थे, उस समय भारत पतनमार्ग पर होने पर भी उन से ऊंचा था । यदि यूनान में अफ़लातून ( Plato प्लेटो ) हुआ तो भारत में उस से बढ़ कर कपिल हुए थे, यदि यूनान में अरस्तू ( Aristotle एरिस्टे|टिल ) हुआ, तो उसके गुरुतुल्य यहां वशिष्ठ हुए, यूनान में प्रसिद्ध इतिहासकार हेरोडोटस हुआ। तो उसको लज्जित करने वाले यहां कृष्णद्वैपायन व्यास हुए, यदि यूनान में महाबली हरक्यूलीज़ था तो उस से कई गुने बल वाले श्रमेोघ वीप्यंशाली भीमसेन, अर्जुन और हनुमान थे । चरक, सुश्रुत और वाग्भट्ट के वैद्यक की समता करना आज भी कठिन है । मिश्र के पिरामिड देखकर क्या कोई यहां के पहाड़ काट काट कर बनाये हुए विशाल, विचित्र, अनुपम और सुन्दर मन्दिर भल सकता है ? बाबुल का व्यवहार सदा भारत से रहा है । यहां के नक्काशी किये हुए पत्थर वहां की इमारतों में लगाये जाते थे । यहां के रेशमी और ज़री के वस्त्र बाबुल के तो क्या, सभ्य संसार के समस्त स्त्री पुरुष शौक़ के साथ पहनते थे । रोममें ग्लेडियेटर फ़ाइट (Gladiator fight) एक तरह की लड़ाई, जिसमें सिंह, भालू इत्यादि जङ्गली
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जन्तुओंसे मनुष्य लड़ाये जाते थे,के विशाल भवनके चंदोवा किम देश के वकों का बनाया जाता था ? भारत रेशम, जरी और पत्रीकारी के काम के लिये प्राचीन काल से प्रसिद्ध है। यहाँ के ये वस्त्र रोम में बहुतायत से जाते थे। दतिर में कास्यिस के ज़माने के रोमन सिक्के मिले हैं, इस से यह बात सिद्ध होती है कि पारपात्य देशों में भारत की सभ्यता का नमूना-व्यापार-सूम पमका था। एक बार, इस भारतीय व्यापार से रोम को ऐसा पहा लगा था, कि वहांका बासिन्य व्यापार और शिल्प
बने लगा, तब वहां वालों ने एक काना बना कर यहां के माल का बहिष्कार तक कर शला था। अब हम अपने वीरवर भीष्म पितामह को सामने रखते हैं। हमें विश्वास है, कि कोई भी देश इतने भारी महात्मा का गर्व और दावा ही कर सकता। फिर बालक, किन्तु अनन्य वोर अभिमन्युकी भी कोई समता किसी देश नही? ये सब बातें भारत की प्राचीन सभ्यता का घोड़ा सा नमूना दिखाने को कहो गई ।
महाभारत से भारत का सम्पूर्व शरीर जर्जर हो गया चा, उसके शारीरिक पाव अभी सूखने भी न पाये थेबगुत से तो सह तक गये थे,-कि बुद्ध ने उसको चिकित्सा करनी चाही। बुद्ध का इरादा बहुत ही अच्छा था, यह हम पहले ही कर पाये है, परन्तु जिस प्रोवधि को हाहोंने भारतले मानसिक रोग के लिये उपयोगी समझा पा, वह बिलकुल सटी हुई । " मज़' बढ़ता गया ज्यों न्यों दवा को"।
पुरा ने स्वयं पुष नहीं लिखा, उनके पीछे उनके शिष्यों ने उनके उपदेषों को कहा पर पुस्तक का रूप
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दिया। अपने धर्म का खब प्रचार करने के लिये बुद्ध ने जा व्याख्यान दिये थे उन के शिष्यों मे उनको उस समय की प्रचलित भाषा [ प लं ] में लेखाद्ध किया । बरनफ (Burnough) कहता है, कि बौद्ध सत्रों की लेखन प्रणाली बड़ी वाहियात है और उनका साहित्य भी ज । हुला नहीं है, क्योंकि बौद्धों को किसी तरह की भी कला में निपुणता प्राह न थो, विरक्त ही ठहरे। ___ङ्का, ब्रह्मा, पीगू, स्याम और चीन में जो चार " सत्य " कहे जाते हैं उनका बड़ा भारी मादर है । इनको सम्पूर्ण बौद्ध जानते हैं। ये " भार्याणि सत्यानि" कहलाते हैं। उनका व्यौरा इस प्रकार है :___ पहला सत्य, दुःख को वह दशा, जो मानव जाति को एक या दूसरे रूप में सताती है, अवश्यम्भावी है। चाहे मनुष्य की कुछ भी स्थिति क्यों न हो। ( यह " सत्य" बिल्कुल सत्य है, परन्तु इस से छुटकारा पाने के उपाय उतने ही अधरे हैं जितना यह मत्य है । )
दूसरा सत्य, इन्द्रियों को वश में न रखने से, पापपूर्ण वासनाओं में लिप्त रहने से, सब दुःख हे।ते हैं । [इस में कोई सन्देह नहीं।] : तीसरा सत्य, उपर्युक्त दोनों क्लेशों की सान्त्वना के लिये यह तीसरा सत्य है । निर्वाण, जो कि मनुष्यमात्र के प्रयत्रों का सार है, इन क्लेशों से बचा सकता है ।
चौथा सत्य, केशों के बचाने वाला मार्ग है। यह मार्ग, वही निर्वाण है। इस केदूसरे शब्दों में मोक्ष का उपाय भी कह सकते हैं।
फिर निर्वाण पाने के लिये “ नाठ श्रेष्ठ उपाय" हैं। बे इस प्रकार हैं:
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पहला है, मक्ति और धर्मदृढ़ता; दूसरा है, सत्यपूर्व न्याय जिस से संशय दूर हो जाते हैं; तीसरा, सत्य संभाषण, अर्थात् झूठ का सर्वथा त्याग और प्रत्येक बात में सत्य ही बोलना और उसी के अनुसार करना; चौघा, मत्यपूर्ण उद्देश्य, अर्थात् सदा खरी ईमानदारी का व्यवहार; पांचवां, जीवन का न्यायपूर्ण पोषर अर्थात् दोषरहित और पापहीन कामों से-सन्यासी होकर-जं वन निर्वाह करना; छठवां धर्म में ठीक २ और पूरा मन लगाना; सातवां सच्ची स्मृति का रखना, अर्थात् वे बातें ना हो चुकी हैं, उनका ठोक २ याद रखना; पाठवां और अन्तिम है, सत्यपूर्ण ध्यान ( इसे बौद्ध जोग भावना कहते हैं ) जिस से मनुष्य इसी लोक में शान्ति, नो निर्वास के बराबर के दर्जे की है, पासकता है।
उपर्युक्त चार "मार्याधि सत्यानि" बुद्ध को बोधिमराह पर बोष इतके नीचे प्राप्त एघे । ये सिहान्त, बुद्ध ने पहले काशी में फैलाये थे, और फिर कौशल के अधकचरे परिश्तों को हराकर उन्होंने ये सिद्धान्त सम्पूर्ण देशों । लाये। इन चार सत्यों को इस तरह भी दुसरा सकते दुल का अस्तित्व, दुःख का कारण, दुःख का नाच, और दुःखनाश करने का उपाय । एक तरह से ये " पत्य" ही बौद्ध धर्म की नींव हैं। बौद्ध सन्त इन को बड़े प्रेम के साथ दुहराते हैं और ये लगभग बुद्ध की सम्पूर्ण मूर्तियों की सुदे हुए भी पाये जाते हैं।
इन "त्यों " और " उपायों के बाद पुष उपदेशपूर्व सिद्धान्त पास भी है। ये बहुत ही सीधे राधे
ही में एक भाग पांच रिशाम्तों का है और दूसरा मी पांच का। इस तरह पम मिलाकर, ये दस होते।
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( ८ ) ईसाइयों ने अपश्य ही कुछ मदन बदल के बाप इन्हीं दसों को अपने यहां भो स्थान दिया है। इस से साफ सिद्ध हो जावेगा, कि कुछ परिवर्तन के साथ, ईसाई धर्म बौद्ध मत ही से गिकता है। केवल दो बातें परिवर्तन में भुला दी गई हैं। एक तो अहिंसा और द्वितीय पुनर्जन्म। अहिंसा विना जीवन निर्वाह कठिन समझा होगा और पुनर्जन्म का सिद्धान्त समझ में आया न होगा । बाबू हरिश्चन्द्र ने लिया है, कि भारत के उत्तर और पूर्वोत्तर देशों में गौतम को गोडमा कहते हैं। बिगड़ते २ गौरमा का अपभ्रंश गौडगवा । या यही शब्द बाइबिल का गौर (God) है? अस्तु, कुछ ही हो, यह निर्विवाद है, किशशोक के भेजे हुए उपदेशकों के उपदेश ईसा के समय में भी मित्र, बाबुल, बैक्ट्रिया, और एशिया माइनर में फैले हुए थे। उहाँ उपदेशों को-जो पुराने पड़गये थे-ईसा ने परिमान्जित कर लोगों में फैलाये होंगे । बहुत से ( बर्मनी के कई विद्वान् ) तो इस बात की भी शङ्का करने लगे हैं कि ईसा नाम: पुरुष इस संसार में कभी पैदा हुमा या महीमा । प्रस्तु, वे दस उपदेश बुद्ध के इस तरह पर ई-. पहले पांच ( इनका अवश्य ही पालन होना चाहिये )
(१) हत्या मत कर, [ईसाई केवल मनुष्य हत्या न करने को कहते हैं। ] (२) चोरी मत कर, (३) व्यभिचार मत कर, (४) झूठ मत बोल, (५) मद्य मत पी ।
दूसरे पांच ( ये ऐसे हैं, जो महत्व के होने पर भी, ज्यादा ध्यान से नहीं माने जाते)
(१) नियत समय के सिवाय कभी भोजन मत कर, (२) नाचना, गाना, सङ्गीत और नाट्याभिनय को देखने तक का निषेध, (३)नरत नरम बिकीनों [जिस में भाग
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विज्ञास की सझे ] पर मत सो। [४] पुष्पमाला या इस का बवहार मत घर । (५) सोना वा चांदी स्वीकार न करना चाहिये।
न दसों नियमों या माशाओं को वैरामिनी भी कहते । प्रत्येक बौद्ध मत में विश्वास रखने वाले को हम बातों का जानना परम श्रावश्यक है। पहली पांच प्राचा प्रत्येक बौद्धको माननी चाहिये । पिडली पांच केवल परिव्राजकों, सभ्यासियों, सम्तों या साधुओं के लिये हैं। हम पिबलों लिये और भी बहुत से नियम हैं। अपर के नियम वेद और वाहनों ही से लिये गये हैं। बुद्ध ने जो साधुओं के लिये नियम बनाये थे वे बहुत ही कड़े थे। सौर ने एक तरफ से जातिबन्धन ढीला कर दिया, दूसरी वरक ये नियम उस बम्धन से भी ज़ियादह कड़े बना दिये। परन्तु वे स्वयं इन नियमों का पूरा पूरा पालन करते थे। मिनु, अमर इत्यादि उपाधियां जो बौद्ध साधुगर अपने लिये लगाते थे वे स्वयं पर्युक्त बातो प्रतिध्वनित परती। बुद्ध भी इन उपाधियों को अपने लिये प्रयोग करने में बचन करते थे। वे अपने को कई जगह नहानिए और बमल गौतम कहते हैं । निःसन्देह, उपरोक्त नियमों का पालन करने वाला नहाल्मा हो सकता है। परन्तुचनाज का न हित होना बहा कठिन है।
हमेचपने पर्म का प्रचार नसतारेकरनेकी शाखा दो। उनले सिद्वान्तों का प्रचार तसवार बोर सेनही शाबा ।वह कटा और तीब्र मालोचना भी न करते थे, जो पुख परतेचे से बहुत सरलता और नयता से करते थे। मुह ने माता पिता को मात्रा मानने और सनकी सेवा करने की भी कही मात्रा दोहै। प्राचीन
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( १० ) ऋषियों और पूर्वजों का भी ये महात्मा बहा मादर करते थे। बौद्ध धर्म-ध्यानियों के लिये अच्छा होसकता है, परन्तु सर्व साधारण इस से कोई लाभ नहीं उठा सकते। इसके कारण आबादी भी बहुत कुछ घट सकती है। क्योंकि जब जिस के विरक्त भाव हो गये तो गृहस्थ क्यों होने लगा ? मङ्गोलिया और चीन-जहां यह धर्म विशेष जमा हुमा है-तक के साधारण लोग इस धर्म के बहुत से तत्व नहीं समझते । अहिंसा तो वहां है ही नही-लोग कुत्ते बिल्ली तक मार कर खाजाते हैं-व्यभिचार का बहा भयामक प्रचार हो गया है। जब से उन लोगों ने पादरियों का तलाक ( Divorce ) वाला मन्त्र सीखा है, तब से तो इसमें 'बूमन्तर' की सी बढ़ती हुई है। उपरोक्त देशों में किसी किसी मठ में पच्चीस पच्चीस हज़ार तक निठल्ले साधु भरे हुए हैं। इस से वहां की समाजों और उक्त देशों को बड़ा चक्का पहुंचा है।
बुद्ध लोगों को समझाने के लिये ऐसी ऐसी मनोहर और उपदेशपूर्ण कथाएं कहते थे, कि उनको स्पति और बहुशता का उन से अच्छा पता लगता है। उनमें से एक दो ये हैं :___ काशी के समीप एक लड़की रहती थी। इसका नाम था कृष्णा गौतमी। इसका विवाह कम अवस्था होगया था। इस से एक लड़के का जन्म हुश्रा। जब वह चलने फिरने लायक हो गया, तब वह मर गया । कृष्णा को अपने बच्चे से असीम प्रेम था। वह उसे गोद में लेकर द्वार द्वार पर औषधि पाने की लालसा से-बच्चे को पुनर्जीवित करने
• बाल विवाह को पृथा यहां मुसलमानों के जमाने से नहीं, बाद पानी से पदी चावी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(१९) की सा-मारी भारी गिरी, परन्तु मरे हुए बच्चे को कोई बच्चा न कर सका। अन्त में एक बुद्धिमान् पुरुष ने उसका इत्तान्त सुनकर. अपने मन में सोचा "अफसोस ! यह कृष्णा गौतमी मृत्यु का तत्व नहीं समझती। मैं इसे सान्त्वना दूंगा । " उस ने उस लड़की से कहा, “ मेरी प्यारी बेटी, मुके कोई ऐसी दवा नहीं मालूम जिस से तेरा पुत्र पुनः जीवन पा सके, परन्तु मैं एक ऐसे पुरुष को जानता हूं, जो तुझे दवा दे सकता है।" "कृपा कर
बताइये बह पौन, बताइये बताइये" लड़कीने कहा। उमने जवाब दिया " उस का नाम बुद्ध है।" लड़की दौड़ी दौड़ी बुद्ध के पास पहुंची । सादर प्रणाम कर के उसने बुद्ध पर अपना अभिप्राय प्रकट किया। उसने उससे कहा, "हां मैं एक ऐसी दवा जामता हूं। मुझे तुम मुही भर सरसों लादो।" लड़की वहां से भागी। पर बुद्ध ने रोकर उससे कहा, "इस बात का ध्यान रखियो कि जिस पर में न तो कोई लड़का मरा हो, शीर न पति, माता, पिता या दास मरा है, वहीं से सरसों लाइयो।"
"बहुत अच्छा" कह कर लड़की वहां से जल्दी जल्दी नानी । अपने मरे हुए बच्चे को भी वह पीठ पर लादे हुए किये जारही पा । पहले जिस से वह सरसों के बीज मां. गतो पर यह कहता कि ये रहे, ले जाओ। पर ज्यों ही वह पहली, कि काई-पति...दास इत्यादि-इस घर में मरा तो नहीं, सब उसे यही उत्तर मिलता, कि पति ...दाम में से कोई न कोई मर गया है। एक ने उत्तर दिवा, बाला, तुम यह कैसा अनोखा प्रन्न करती हो ? जीवित मनुष्य कम हैं, मरे हुए ज्यादा हैं।" अन्त में, म उसने किसी घर को मौत से बचा दुश्रा न देखा,
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तब बुद्ध के पास लौट प्राई । बुद्ध ने उससे पूंजा " पा सरसों के बीज मिलगये " ( इस के पहले ही वह अपने मृत बच्चे को जङ्गल में रख पाई थी ) उसने उत्तर दिया मैं नहीं ला सकी, गांव के लोग कहते हैं कि जीते कम हैं, मरे अधिक हैं।" तब बुद्ध ने कहा, "तुमने सोचा था, कि केवल तुम्हीं ने अपना बालक खोया है, मृत्यु के नियम के अनुसार सब जीवोंके जीवन में स्थिरता नहीं है।" इस तरह महात्मा बुद्ध ने उस लड़की का अन्धकार दूर कर दिया, उसे सान्त्वना दी और वह उन की चेली हो गई।
दूसरे प्रकार का एक दृष्टान्त यह है:
पूर्ण नाम का एक धनी व्यापारी था। जिस समय वह अपने जहाज़ पर था, किसी ने उसे बुद्धका नवीन मत सुनाया । उसने तुरन्त ही इस नवीन मत को अङ्गीकार कर लिया, और त्यागी हे। कर, दूसरे लोगों को इसी मत में लाने के लिये वह भयानक लोगों में धार करने के लिये जाने की तय्यारी करने लगा । बुद्ध ने बहुत कुछ समझाया, परन्तु उसने एक न सुनी । वह अपने निश्चय पर दृढ़ रहा । दोनों में इस प्रकार बातें हुई:
बुद्ध ने कहा, श्रोण प्रान्त के मनुष्य, जिनमें तुम जाकर बसना चाहते हो, क्रोधी, निर्दय, वासनालिप्त, भयानक और असभ्य हैं* । जब वे लोग तुम्हें दुष्टतापूर्ण, पाशविक, जङ्गली गालियों से भरी और असभ्य भाषा में सम्बोधन करेंगे, तब हे पूर्व तुम क्या करेंगे?
पूर्व ने उत्तर दिया, "जब वे लोग मुझे कुवचनों से
बोग पाम कल के मोहमन्द, बकाखेल प्रत्यादि पठानों के पूर्वजोंगे । उपर पिए दबाज भी न खागोम पाये जाते है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( १३ ) भरी हुई माया में सम्बोधन करेंने तब में यह सोचलूंगा, किर प्राम्स के मनुष्य सचमुच बहे गले और सज्जन हैं वो मुझे देखते ही चूंसा और पत्थर से मेरी खबर नहीं लेते।" पिर उन दोनों में यें। बात चीत हुई:
"परन्तु यदि वे तुम्हें चूंसे और पत्थर ही मारतो?"
" में उनको मला और सज्जन ही समझंगा, क्योंकि उन्हों ने मुझे लट्ठ या तलवार से तो न मारा।
" परन्तु यदि वे तुम्हारे तलवार ही मारदें तम ?" "में नरें भला और बच्चन समझंगा, क्योंकि वे मेरी जाम तो छोड़ देंगे।"
" परन्तु यदि वे तुम्हारी जान ही लेलें तब क्या. कराने!" ___ "पिर भी मैं उन्हें भला और सज्जन समझंगा, क्योंकि वे दुर्वासनामों से भरे मेरे शरीर को दुःखमय संसार से दूर कर देने।"
"साधु ! पूर्व साधु ! तुम्हारा घेयं प्रशंसनीय है । तुम मोर प्रान्त में जाकर रहे, तुम्हारा उद्धार होगया है, अब तुम दूसरों का उद्वार करो ; तुम पार उतर चुके हो, दूसरों के पार उतरने में सहायता पहुंचामो ; तुम ने शान्ति पई, दूसरों को शान्ति पहुंचायो ; तुम पूर्व निर्वारपाचुके हो, दूमरों को भी उस मार्ग पर चलायो।
स तरह उत्साहित होने पर पूर्वस कष्टसाध्य पान में निमगवा । बहा! धर्म प्रचार के काम में और अन्य बातों में भी भारतवासियों को दूरता और वीरता कैसी सम्भवलता के बाद दमदमाती है।
हम तरह के शौर्य और पुरुषार्थ है बौद्धों ने पृथ्वी की भयानक से भी भयानक जातियां शीलसम्पन कर ली।
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( १४ ) महा सभ्य, जङ्गली और धर लोग भी दानशील, उदार और दयालु होगये हैं । मंगोलिया और लङ्का इस बात के उदाहरण हैं । धार्मिक भावेश के बौद्ध उपदेशकों के ऐसे असंख्य उदाहरण हैं।
बुद्ध मरते मरते तक उपदेश करते रहे। जिस रात को उनके गौरवपूर्ण जीवन पर अन्तिम पर्दा गिरा एक तत्व. वेत्ता ब्राह्मण शास्त्रार्य करने पाया । उसकी बोली पहिचान कर, बुद्ध ने उससे कहा " यह समय शास्त्रार्थ करने का महीं है"। धर्म का एक ही मार्ग है । वह मार्ग मैं ने निश्चित कर दिया है। बहुतेरे उस के अनुयायी हो गये हैं। उन लोगों ने वामना, अहङ्कार, और क्रोथ को जीत लिया है, इन के जीतने से वे अज्ञान, शङ्का, और असत्य पर भी विजय पा चुके हैं । वे लोग विश्व - दया के प्रशान्त मार्ग पर जा चुके हैं। उन लोगों ने इसो जीवन में निर्वाण पा लिया है। मेरे धर्म में १२ बड़े २ शिष्य हैं । वे लोग संसार भर को दीक्षित कर रहे हैं । उनके बराबर जामो दूसरे धर्म में कोई नहीं । हे सुभद्र ! मैं उन बातों को नहीं कहता जिनका मुझे अनुभव नहीं । मेरी २९ वर्ष की अवस्था थी जब से मैं पूर्ण ज्ञान के पाने के लिये उद्योग कर रहा हूं। यही पूर्ण ज्ञान निर्वाण का साधन है ।" इस के बाद उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, "प्रियवर्ग ! जिस कारण से जीवन होता है, उसी
से तीणता और मृत्यु भी होती है। इस को कभी मत . भूलना । इस सत्य को सदा मन में रखना । मैं ने तुम्हें यही कहने को बुलाया था।" ये बुद्ध के अन्तिम शब्द थे । इस के बाद उन का शरीरान्त हुना।
. ॥ति ॥
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राजपूत ऐंग्लो-ओरियण्टल प्रेस आगरा की उत्तम और उपयोगी पुस्तकें ।
मेवाड़ का इतिहास — मूल्य १९)
बीता जी का जीवन चरित्र ( सम्पूर्ण बाल्मीकीय रामायण का सार ) - मूल्य ॥ ) गृहिबी - कर्त्तव्य- दीपिका - मूल्य | ")
राजर्षि भीष्म पितामह - मूल्य 1)
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रमबी-रत्नमाला मूल्य 15)
रमबी- पंचरत्र – मूल्य ।)
रूपवान, बुद्धिमान व बलवान सन्तान उत्पन्न करने की
विधि - मूल्य 5)
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चमय वृत्तान्त — मूल्य ॥ )
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चन्द्रकला उपन्यास मूल्य ।) नारफ़ील्ड का जीवन-चरित्र - मूल्य 1) डोरों की बीमारी का इलाज – मूल्य 1)
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गर्भाधान विधि व जन्मोत्तर विधि - मूल्य )
बालहित — मूल्य ॥ जगत् हितैषियो मूल्य 1)
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मैनेजर राजपूत एंग्लो-मोरियण्टल प्रेस,
बागरा । www.umaragyanbhandar.com
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________________ થી યશો, ભાવનગ૨ Giler! Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com