SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | मनुः॥ गुरुग्णानुमतःस्नानासमादत्तोयथाविधिः । उहहेनहिनोभार्यामवलक्षणन्किाम यहभीमनुस्मुनिकाश्लोकहै किगुरुकीसानाले लानकरगुरुकुलसे अनुक्रम पूर्वक धाके वासरण क्षत्रीयवैश्य अपनेवर्णानुकूलसुन्दरलक्षणयुक्त कन्या बिवाहकरे मर्नु असपिडाचयामानुरसगोत्राचया पितः। साप्रशस्लाहिजानीनादारकमणिमेथुने।। जोकन्यामाताकेकुलकीछःपीदियोमैन होनौर पिनाकेगोत्रकीनहोउसकन्यासे विवाह करना उचि नहै इसकायहप्रयोजन हैकि | परोक्षप्रियाइवहिदेवाः प्रत्यक्षद्वियः यहानपत्रानणग्रंथकावचनहै यहकिमीपरोक्षपदार्थमें प्रीतिहोती हैवैसीप न्यसमें नहीं होतीजेसेकिसीने मित्रीक गुणसुने हो औरण्याईनहोउसकामनउसीमेलगारहता हिजैसे किसीपरोक्षबस्लुकी प्रशंसा सुनकरमि, लनेकी उत्कट इच्छा होती है वैसीहीदूरस्थत्र र्थात् जो अपने गोत्रवामानाके कुल में निकट । सम्बन्धकीनहो उसी कन्यासेबरकाविवाहहो नाचाहिये निकट और दूरबिवाहकरनेके गुण -- - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034854
Book TitleJain Aur Bauddh ka Bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHermann Jacobi, Raja Sivaprasad
PublisherNavalkishor Munshi
Publication Year1897
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy