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________________ ( १० ) कण्ठ पर बल मारती है, तब शब्द निकलते हैं । और भाषा मस्तिष्क के सहारे बन जाती है परन्तु सम्पूर्ण बात चीत केवल प्रतिध्वनि मात्र है और भाषा का स्वयं अस्तित्व नहीं है। फिर सितार से जे ध्वनि निकलती है उस के विषय में ऋषि अचम्भित है। कर कहता है कि यह कहां से भाई और कहां चली गई ? इस तरह सम सूरतें कार्य और कारण से पैदा हुई हैं और योगी या ऋषि को ध्यान करने पर जल्दी मालूम हो जाता है, कि सूरतें कुछ भी नहीं हैं और यह अकेला कुछ नहीं का तत्व ही अपरिवर्तनीय है। जो वस्तुएं हमें अपनी इन्द्रियों के द्वारा मालूम होतो हैं वे अमल में हैं ही नहीं, उनमें स्थिरता नहीं है और यह स्थिरता ही है जो धर्म का मुख्य लक्षण है। यह धर्म जो संसार को बचाने के लिये है, मैं समझता हूं और मेरा कर्तव्य है कि मैं इसे मनुष्यों पर प्रगट कर दूं। मैंने कई बार सोचा है कि जब में पूरा जान पाजाऊंगा, सब मनुष्यों को इकट्ठा करूंगा और उन्हें अमरत्व के द्वार में जाने का ढंग बतलाऊंगा। भवसागर के चौड़े समुद्र से उबार कर उन्हें सन्तोष और सहिष्क्षुता को पृथ्वी पर स्थित करूंगा। इन्द्रियों के कष्टप्रद विचारोंसे स्वतन्त्र करके मैं उन्हें शान्ति में स्थिर करूंगा । जीव जो अज्ञान के गहरे अंधेरे में सड़ रहे हैं उन्हें धर्म का प्रकाश दिखाने के लिये उन्हें नेत्र दूंगा जिन वे पदार्थों को जैसे वे सचमुच हैं देखलें,मैं उहें निर्मल धान की सुन्दर चमक भेंट करूंगा, उन्हें अपवित्रता और सुटाई से रहिव धर्म के चक्षु दूंगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034854
Book TitleJain Aur Bauddh ka Bhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHermann Jacobi, Raja Sivaprasad
PublisherNavalkishor Munshi
Publication Year1897
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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