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मेरा दूसरा पत्र श्री काशी वाराणसी सम्वत् १९३७ चैत्रशुक्ला पूर्णिमा श्री ५ मत्स्वामि दयानन्द सरस्वतीभ्यो नमो नमः
आप का कृपापत्र चैत्र शुक्ला १२ का पा अत्यन्त कृतार्थ हुआ ग्रीष्म का प्रचंड उत्ताप अवकाश नहीं देता कि आपके दर्शनानन्द से मन ठंढा करूं तब तक आप कृपा करके पत्र द्वारा मेरे मनको सन्देह के ताप से बचावें ॥
आपने लिखा "ब्राह्मण ग्रन्थ+सब ऋषि मुनि प्रणीत और संहिता ईश्वर प्रणीतहै” वादीकहताहै जो "संहिता ईश्वर प्रणीतहै"तो ब्राह्मणभी ईश्वर प्रणीतहै और जो "ब्राह्मण ग्रन्थ+सब ऋषि मुनि प्रणीत" है तो संहिता भी ऋषि मुनि प्रणीत है आपने लिखा "वेद (संहिता) स्वतः प्रमाण और ब्राह्मण परतः प्रमाण हैं" वादी कहताहै जो ऐसा तो बाह्मणही स्वतः प्रमाण है आपका संहिता परतः प्रमाण होगा (२) आपने प्रमाण ऐसा कोई दिया नहीं (३) जिस्से जिज्ञासू की तुष्टि
(२) मैं अपने पहले पत्रमें लिखचुका हूं कि “वादी को आप अपना प्रतिध्वनि समझिये" ॥
(३) स्वामीजी महाराज प्रमाण कुछ भी नहीं देते जो आप अपने मनमानी कह देते हैं उसी को चाहते हैं कि लोग विधाता का लेख जानें ।।
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