Book Title: Jain Aur Bauddh ka Bhed
Author(s): Hermann Jacobi, Raja Sivaprasad
Publisher: Navalkishor Munshi

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Page 142
________________ होकर एकान्त सेवन करने लगे। ध्यान करते करते उन्हें ने एक बार रदय में सोचा : जो मिट्ठान्त मैं ने निकाला है गढ़, गम्भीर और सूम है और मनन करने में कठिन है; इसे अलग अलग कर के समझने में बुद्धि हार खाजाती है, और यह तक शास्त्र की सम्पूर्ण शक्तियों की पहुंच के बाहर है; इसे केवल पानी और बुद्धिमान् पा सकते हैं। इस में संसार की सम्पूर्ण बुद्धि का समावेश है । इस से निर्वार सुगम और सहज हो जाता है। परन्तु यदि मैं, दो सत्यज्ञानसम्पस बुद्ध हूं, स सिद्धान्त को लोगों को मिख तो वे हमे समझेंगे नहीं, और मुझे उलटे उनके अनुचित कटाक्ष झेलने पड़ेंगे और गालियां सहनी पड़ेगी। नी, मैं इस तरह करुणा के वशीभूत न होगा। बुद्ध तीन बार हम मिलता ये दबजाने वाले थे, और कदाचित् वे अपने इस बड़े भारी पराक्रम को सदा के लिये त्याग भी देते, और अन्तिम उद्धार का सिद्धान्त अपने ही माप ले मरे होते, परन्तु एक चे विचार नेशन्त में सनी न सम अड़चनों और हिचकिचाहटों को दूर करने में दृढ़ कर दिया। तुम्ने सोचा: "चाहेरचे हो वा नीचे, चाहे बहुत अच्छे हो वा बहुत बुरे, या विरक स्वभाव के हो मनुष्य तीन श्रेणियों में विभक्त किये जा सकते हैं। उनमें से एक तिहाई धम में भूले हुए हैं और मदा भूले रहेंगे, एक तिहाईप्र. विवार में सत्य धर्म है, और शेष एक तिहाई अनिरचय भीर अविश्वास के किनारे खड़े हैं। चाहे में सिखा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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