Book Title: Jain Aur Bauddh ka Bhed
Author(s): Hermann Jacobi, Raja Sivaprasad
Publisher: Navalkishor Munshi

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Page 145
________________ ( ३८ ) और चलते हुए गया गिरि पार किया। यह थोड़ी ही दूरी पर था। इस जगह उन्होंने कलेवा किया। मार्ग में जाते हुए रोहितवस्तु, उरुवेल, कल्प, अनाल, और सारथी में ठहरे । यहां के मुख्य गृहस्थों ने उनका आदर सन्मान किया, और भातिथ्य सत्कार का पुण्य लाभ किया । इस तरह वे वहनदी गङ्गा के निकट पहुंच गये । वर्षा के कारण उस समय पानी बहुत चढ़ा हुमा था और बड़े वेग के साथ बह रहा था। बुद्ध ने एक मल्लाह से विवश हो कर पार उतारने को कहा, परन्तु उनके पास देने को एक कौड़ी भी न थी इसलिये कुछ कठिनाई के साथ पार उतरने का प्रबन्ध कर पाये । जैसे ही नरेश बिम्बसार ने इस अड़चन की बात सुनी उसने तुरन्त सम साधुओं के लिये विना किराये लिये पार उतारने की माजा दे दी। वे अब वाराणसी पहुंच गये, और सीधे अपने पुराने शिष्यों के पास चले । वे इस समय मृगदाव नामक वन में रहते थे। इसे ऋषिपाटन भी कहते थे। यह काशी के बिलकुल पास था, उन्होंने दूर से महात्मा बुद्ध को भाते हुए देखा, जो जो बातें बुद्ध के विरुद्ध उन लेगों के इ.दय में भड़भड़ा रही थी, वे फिर लहलहा उठीं । वे सब आपस में कहने लगे हम लोग इन के साथ मिल कर कोई काम नहीं कर सकते; न तो हमें उन का आगे बढ़ कर स्वागत करना चाहिये, और न उन के माने पर अभ्युत्पान करना चाहिये, न हमें उन का धार्मिक-सा उतार कर लेना चाहिये, और न भिक्षापात्र छना चाहिये, न हमें उनके लिये अर्घ तय्यार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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