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उन्होंने उन दोनों को श्रद्ध, पवित्र, ईर्ष्यारहित और तमोगुणहीन, काम और सत्य से पूर्व पाया था। जिस प्रकाश को उन्होंने स्वयं सोमाबा, वह उन लोगों की शिक्षा दीक्षा का ही फल था । स नवीन प्रकाश की जह समाने वाले ही लोग थे। वाराणसी [काश'] में जा पर उपदेश देने के पूर्व उन्होंने रामात्मज उदरक, और अलारवालम्, जिन्हें वे कृताता के साथ याद किया करते थे, को सिखाने को इच्छा की । परन्तु इसी बीच में वे देणों परलोकवासी हो गये थे। जब बुद्ध ने हुना तो उन्हें बड़ा दुःख हुमा । उन्होंने सोचा कि मैं ने हम दोको बचा लिया होता, और अवश्य ही वे मेरे उपदेशों की अवहेलना न करते । अब उन का ध्यान उन पांचों शिष्यों की भोर गया जो उनके एकान्त सेवन के साचो रहे थे, और उनके तपों और बड़े वृतों में दिल से उनकी सुधि लेते और चिन्ता रखते थे। यह सब घा, चिम लोगोंने भावेश की अधिकताके कारण उन्हें त्याग दिया था, परन्तु वे महात्मा दूध पुरुष, जो सच जाति और श्रेष्ठलेचे, तो भी बहुतही भलेभारनी और सत्य उपदेश पारकरनेवा तय्यार रहते थे, वे लोग बहे तपों औरतों के करने में अभ्यस्त थे। यह स्पष्ट पा, कि वे तीन माह की भोर मुके हुए थे और सचमुच वे लोग उन बगुती सावटों को दूर कर चुके थे और लोगों को सति बाचाबालती है। बुद्ध मानते थे, दिवे सोम मुझे पापी दूष्टि से नही देखेगे, इसी कारण
ने उन लोगों को खोज निकालने का निराकर लिया । जाने बोधिनरा बड़ा और तर की
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