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मालूम कर लिया गया है।
बोधिमण्ड के पीपल के वृक्ष के नीचे बुद्ध का वैराग्य कुछ ऐसा गुप्त नहीं था कि लोग उन से भेट करने में वंचित रह जाते । सुजाता और उस की सखियों के अतिरिक्त, जो उसे भोजन इत्यादि से सहायता देती चली प्राई वी, बुद्ध ने दो मनुष्यों को और भी अपनी दीक्षा दी। ये दोनों सहोदर भाई थे । व्यापार किया करते थे । दक्षिण की भोर से माल लाद कर उत्तर की ओर जा रहे थे। बीच में बोधिमयड पड़ा था। उनके जो साथी थे, वे भी संख्या में बहुत थे, क्योंकि उनके साथ कई सौ छकड़े लदे चले जा रहे थे । उनको कुछ गाड़ियां कीचड़ में बेतरह फंस गई। दोनों भाई जिनका नाम त्रिपुष और भलिक था, महात्मा बुद्ध के पास सहायता के लिये आये । बुद्ध के कथनानुसार उन्होंने यत्न किया और कृतकार्य हुए। वे लोग उन के सद्गुणों और अलौकिक ज्ञान से मुग्ध हो गये। ललितविस्तर कहता है, “बे दोनों भाई और उनके सम्पूर्ण साथी बुद्ध के सिद्धान्तों के अनुयायो हुए।"
सफलता के इन पहले शुभ लक्षणों के होते हुए भी, बुद्ध अब भी हिचकिचाते थे। अब आगे से उन्हें अधिक विश्वास हो गया, कि सत्य पूर्णतया मेरे पाधीन हो गया है। परन्तु सन्देह था कि मनुष्य मेरे नतन मार्ग का अवलम्बन करने को तय्यार होंगे या नहीं ? मैं मनुष्यों के लिये प्रकाश बाहर लाया हूं परन्तु क्या मनुष्य उसके लिये अपने नेत्र खोलना स्वीकार करेंगे? क्या वे उस मार्ग का अनुसरण करेंगे जिस के लिये उनसे कहा जावेगा? अब इस तरह के विचार बुद्ध को सताने लगे। वे फिर विरक्त
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