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( १३ ) वेदोंके अनुकूल होनेसे प्रमाण के योग्य तो हैं" यदि आप इतना और मान लें कि सम्पूर्ण ब्राह्मणों का प्रमाण संहिता के प्रमाण के तुल्य है अथवा पृष्ठ ४२ पंक्रि ७ में आप लिखतेहैं "तत्रापरा ऋग्वेदो यजु. र्वेदः सामवेदो ऽथर्ववेद शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते” इसका अर्थ सीधा सीधा यह मान लेवें कि आप के चारों वेद और उनके छों अंग "अपरा” हैं जो “परा" उससे अक्षर में अधिगमन होताहै अपना फिरवटका अर्थ वा अर्थाभास छोड़दें (८) तो बड़ा अनुग्रह हो मेरा सारा परिश्रम सफल होजावे और आपके दर्शन का उत्साह बढ़े किमपिकमित्यलम् । आप का दास शिवप्रसाद परन्तु स्वामीजी महाराज ने पहले ( और ) की जगह ( अर्थात् ) कल्पना कर लिया अर्थात् ब्राह्मण अर्थात् इतिहास पुराणादि !
(८) स्वामीजी महाराज अपनी भाप्य भूमिका में पृष्ठ ४२ पंक्ति ७ , इस के अर्थ यों लिखते हैं "(तत्रापरा० ) वेदों में दो विद्या हैं एक अपरा दूसरी परा इन में से अपरा यह है कि जिससे पृथिवी और तृण से लेके प्रकृति पर्यन्न पदार्थों के गुणों के शान से ठीक ठीक कार्य सिद्ध करना होता है और दूसरी पण कि जिस से सर्वशक्तिमान् ब्रम की यथावत् प्राप्ति होती है यह परा विद्या अपरा विद्यासे अत्यन्त उत्तम है क्योंकि अपगकाही उत्तम फल परा विद्या है" निदान स्वामीजी महाराज ने इतना तो लिखा परन्तु सीधा मर्य वा पाय नहीं लिखा कि चारोवेद ( संहिता ) और उनके छओं अंग अपराहै परा उनके मिवाय अर्थान उपनिषद् है ।
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