Book Title: Jain Aur Bauddh ka Bhed
Author(s): Hermann Jacobi, Raja Sivaprasad
Publisher: Navalkishor Munshi

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Page 126
________________ इन से हाथ धो बैठते हैं। मेरे ऊपर यकायक बजपात हो जावे से मुझे पसन्द है, सैकड़ों बार यकायक पाकर शरीर भेद दें सो पसन्द है, जलते हुए लाल भाले मेरे अपर गिरें सो पसन्द है, जलते हुए पर्वत है अग्निमय चहाने अभी भाकर मुझ घर चूर करदें सो भी पसन्द है, परन्तु फिर से हम पृथ्वी पर जन्म लेना स्वीकार नहीं, फिर मैं कैसे फिर पर गहस्थ आश्रम की खाओं और चिन्तामों में जाकर फंस जा?" पापी रात थी जिस समय सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु बोहा । सिद्धार्थ पुष्य नक्षत्र में उत्पन्न हुए थे। उस समय भी हमी का उदय चा। सब प्यारी प्यारी, वस्तुमों को त्यागने के समय उस नवयुवा का हदय एक पल के लिये कुख मन्द हुमा और फिर अपने कपिलवस्तु की तरफ़ एक दृष्टि डाल कर धीमे स्वर से अपने माप बोले "मैं तब तक कपिल नगर को नहीं लौटुंगा जब तक जन्म मरस से बचने को औषधि न ढूंढ़ लूंगा; मैं तब तक फिर कर नशागा जब तक उस उच्चस्थान और पवित्र जाम को न पा जागा नो प्रवस्था और सत्यु से परे है। जब में लौटूंगा ar कपिल मगर भी नोंद में मनन रह पर, जाग्रतावस्पा को प्राप्त होगा। " और सचमुच १२ चालतान तो उन्होंने अपने पिता को देखा और न कपिलवस्तुको। जब शाये तब नये धर्म में सब को पलट दिया। सिद्धार्थ रात भर पोहे पर पड़े चले गये; शाप और पांच लोगों ने देश पीछे दोड़ते हुए और मन लोगों के प्रदेशको स्यागते हुए वे मैनेय नगर से होते हुए मागे निकल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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