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और पाबन्दी के साथ बर्ती जाती है या नहीं। माल के भीतर भी सिद्धार्थ की माता की बहिन प्रजापति गौतमी ने खियों का कड़ा पहरा लगाया और स्वयं उन का निरीक्षण करने लगी और नीचे का वचन कह कह कर सम को पहरे के लिये उत्साहित करने लगी।
"राजमहल और देश छोड़ कर यदि कुमार सन्तों की तरह निकल कर चला गया तो महल भर दुःख सागर में डूब जावेगा, और यह राजघराना, जो इतना पुराना है, बुरी तरह से अंत हो जावेगा।"
ये सब प्रयत्न व्यर्थ सिद्ध हुए, एक रात जब देर तक पारा देने के सबम सम प्रहरी नींद की चपेट में भागये तो युवक राजकुमार ने अपने रथवान चाण्डक को अपना घोड़ा कण्ठक सजने को कहा, और नगर से सम की मांख बचा कर निकल भागने में सफलीभूत हुए । स्वामिभक्त अमुचर चांडक ने कुमार की आज्ञा पालन करने के पहले अपूर्ण नेत्रों से बहुत समझाया और कहा, "कुमार, इस खिले हुए गौरवपूर्ण यौवन को कष्टपूर्ण विरक्त जीवन में नष्ट करने को क्यों उत्तारू हुए हो? ये विशाल सुन्दर महल मुख, और मानन्द, विलासके सदन हैं, इन्हें मत त्यागो।" परन्तु दृढ़प्रतिज्ञ सिद्धार्थ ने अपने प्यारे रथवान की एक न सुनी, किन्तु उसे यह उत्तर दिया:
"हे चारहक, मैं अच्छी तरह जानता हूं। सांसारिक इच्छाएं सब गुणों की मिट्टी पलीद करदेती हैं; मैं इन्हें सब जानता हूं, अब मुझे इन से अधिक सुख नहीं मिल सकता ऋषि लोम इन्हें सांप के फन की तरह त्याग देते हैं, और अपवित्र बर्वन की तरह सदा के लिये
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